BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Monday, March 10, 2008

80 साल में पहली दफा भारत ओलिंपिक खेलने से वंचित

http://hindi.webdunia.com/sports/others/news/0803/10/1080310068_1.htm
भारतीय हॉकी हुई शर्मसार
80 साल में पहली दफा भारत ओलिंपिक खेलने से वंचित
सीमान्त सुवीर
भारत में खेलप्रेमियों की दीवानगी को देखते हुए यह सोचना पड़ जाता है कि देश का राष्ट्रीय खेल क्रिकेट है या हॉकी? क्रिकेट की विश्वस्तरीय सफलता पर खिलाड़ियों को शोहरत के साथ बेशुमार दौलत भी मिलती है और हॉकी में हार के साथ ही खिलाड़ियों के साथ-साथ कोच और फेडरशन के अधिकारियों को कोसा जाता है। यह रस्म फकत एक दिन निभाई जाती है और अगले दिन सब भूल जाते हैं कि कल क्या हुआ था।



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भारत में पिछले बरस आयोजित एशिया कप हॉकी में चैम्पियन बना था, उसके बाद तो ऐसा 'ग्रहण' लगा कि हर तरफ से हार की खबरें आने लगीं। रविवार की रात जब भारतीय खेलप्रेमी नींद के आगोश में थे, तब सुदूर चिली के सेंटियागो शहर की चिलचिलाती गर्मी में भारतीय हॉकी सूरमा ग्रेट ब्रिटेन के सामने घुटने टेक चुके थे। बीजिंग ओलिंपिक का टिकट हासिल करने के लिए भारत को यह क्वालिफाइंग फाइनल हर हाल में फतह करना था।

भारत में लोगों ने सुबह उठकर ठीक से आँखें भी नहीं मली थीं कि यह खबर आ गई कि हमारे देश की हॉकी को कालिख पुत चुकी है और भारतीय टीम बीजिंग पहुँचने से वंचित रह गई है। 80 बरस में यह पहला प्रसंग है, जब हमारी टीम को ओलिंपिक में भाग लेने के लिए पात्रता मुकाबले की जलालत झेलनी पड़ी और शर्मनाक हार ने सभी का सिर नीचा कर दिया। हॉकी को केन्द्रित करके जो 'चक दे इंडिया' फिल्म बनाई थी, उस गीत के बोल हमारा मुँह चिढ़ा रहे थे।

भारत का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सुबह से हार के गम को परोसता रहा और शाम ढलते-ढलते हार की खबर जाने कहाँ गुम हो गई। सच है कि लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है। टीस उसी को होती है जो वाकई भारत के राष्ट्रीय खेल से मोहब्बत करता है। हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की आत्मा आज जहाँ भी होगी, वह उन लोगों को कोस रही होगी, जो इस दुर्दशा के जिम्मेदार हैं।



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आश्चर्य तो इस बात का होता है कि भारतीय हॉकी संघ के मुखिया केपीएस गिल को इस शर्मनाक हालत का कोई रंज नहीं है और वह यह बयान देकर मुक्त हो रहे हैं कि टीम की वापसी के बाद ही हम उन कारणों को ढूँढेंगे, जिसकी वजह से हम हारे। गिल साहब क्या यह नहीं जानते हैं ‍कि इस हार ने कई दिलों में खंजर भोंका है? भारत ने ओलिंपिक खेलों में 8 स्वर्ण पदक जीते और आज हालात इतने बदतर हो गए हैं कि हम ओलिंपिक से ही बाहर हैं।

गिल पिछले 15 सालों से भारतीय हॉकी को अपने ढंग से चला रहे हैं। जोकिम कार्वाल्हो की कोचिंग में उन्हें पता नहीं क्या नजर आया कि वे इतने सालों से उन्हें सह रहे हैं। जब धनराज पिल्ले ने भारतीय हॉकी के हित में आवाज उठाई तो उन्हें हाशिए पर धकेल दिया गया।

ऑस्ट्रेलिया के पूर्व कप्तान रिक चाल्सवर्थ (अपने समय के पेनल्टी कॉर्नर विशेषज्ञ) को बुलाकर अपमानित किया गया। अच्छा होता कि रिक के हाथों में टीम सौंप दी जाती और उन्हें चिली के मिशन पर भेजा जाता। नि:संदेह आज हम इस तरह अपमान का घूँट नहीं पी रहे होते। दरअसल कार्वाल्हो और चार्ल्सवर्थ के बीच अहम की लड़ाई है और सलीब पर टँग रही है भारतीय हॉकी।

भारतीय हॉकी टीम 1980 का ओलिंपिक स्वर्ण पदक जीतने में कामयाब रही। क्या आपको मास्को में हुए 1980 के ओलिंपिक याद हैं? अमेरिका और रूसी महाशक्तियों के द्वंद्व की वजह से कई देशों ने अमेरिका के समर्थन में रूस नहीं जाने का निर्णय लिया था। यानी भारत वहाँ भी सितारा टीमों की गैर मौजूदगी में ओलिंपिक चैम्पियन बना था। सही मायने में देखा जाए तो भारत ने 1964 का ओलिंपिक स्वर्ण पदक ही अपनी मेहनत और काबिलियत के बल पर जीता था और इसके बाद 1975 में क्वालालाम्पुर में वह पाकिस्तान को हराकर विश्व चैम्पियन बनते हुए अपनी अंतिम आभा बिखेरने में सफल रहा था।

इसके बाद से ही भारतीय हॉकी रसातल में जाती रही। इसकी दो वजह रहीं। पहली यह कि मैदान पर खेली जाने वाली परंपरागत हॉकी पीछे छूट गई और उसकी जगह नकली घास एस्ट्रोटर्फ ने ले ली। और दूसरी यह कि यूरोपीय देशों ने अपने मनमाने तरीके से हॉकी के नियम बना डाले। यानी मूल एशियाई तो पहले ही दम तोड़ चुकी थी। कलात्मक हॉकी ने 'हिट एंड रन' का ‍लिबास ओढ़ लिया था। नकली घास गरम नहीं हो उस पर पानी छिड़का जाने लगा और जिस देश के खिलाड़ी दमखम में माहिर थे, वे आगे निकलते चले गए।

करीब दो दशक पहले जब भारत में केवल 2 एस्ट्रोटर्फ थे, वहीं दूसरी तरफ हॉलैंड के स्टार खिलाड़ी बोवलैंडर के मुताबिक तब तक उनके देश में 350 ऐस्ट्रोटर्फ बिछ चुके थे। हॉलैंड में जहाँ बच्चे स्कूल में एस्ट्रोटर्फ पर खेलते थे, वहीं भारत में खिलाड़ी तब नकली घास के दर्शन करता था, जब वह 18-20 बरस का होता था।

एक तरफ खिलाड़ी सुविधाओं के लिए तरसते हैं तो दूसरी तरफ हॉकी महासंघ की राजनीति इस खेल को बर्बाद करने में रही-सही कसर पूरी कर देती है। गिल अपने हिसाब से टीम चुनते हैं, कोच को मनमाने ढंग से विदा कर देते हैं। उनके 15 साल के कार्यकाल में भारत के 16 कोच बदले गए हैं। भारतीय टीम का कोच खुद नहीं जानता कि उसकी उम्र कितने बरस रहेगी।

केपीएस गिल भारतीय हॉकी को पुलिसिया डंडे से चलाना चाहते हैं, जो इस लोक‍तांत्रिक देश में संभव ही नहीं है। देश के तमाम पूर्व ओलिंपियन भारत की इस हार पर लज्जित हैं और चाहते हैं कि कम से कम अब तो गिल साहब हॉकी के भले के लिए अपना पद छोड़ दें लेकिन ऐसा होगा नहीं। वह वक्त कब आएगा जब हॉकी महासंघ के पदाधिकारी हार की जवाबदेही लेंगे?

देश के इस राष्ट्रीय खेल को वाकई में सम्मानजनक स्थिति में देखना है तो सभी को सामुहिक प्रयास करने होंगे। हॉकी को जमीनी स्तर पर सुधारना होगा। ऐसे प्रयास नहीं हुए तो हम इसी तरह शर्मसार होते रहेंगे और हमारे खिलाड़ी झुके हुए कंधों के साथ मुरझाए चेहरे लिए मैदान से बाहर आते रहेंगे।

प्रसंगवश अतीत की याद ताजा हो रही है। रविवार की रात चिली के सेंटियागो शहर में जिस ग्रेट ब्रिटेन की टीम ने भारत को 2-0 से हराया, इसी देश की टीम को भारत ने 1948 के ओलिंपिक के फाइनल में हराकर स्वर्ण पदक हासिल किया था। भारत ने ब्रिटेन को उसी की सरजमीं पर जाकर शिकस्त दी थी।

1947 में भारत आजाद हुआ था और 1948 की भारतीय ओलिंपिक टीम के कप्तान महू (मप्र) के किशनलाल थे। किशनदादा ने पूरा जीवन हॉकी को समर्पित किया और उन्हें 'पद्मश्री' से सम्मानित किया गया था। आज हालत यह है कि किशनदादा की विधवा को अपना घर चलाने के लिए महू में ही स्वल्पाहार की दु‍कान पर बैठना पड़ रहा है लेकिन मप्र सरकार ने कभी जरूरी नहीं समझा कि उन्हें पेंशन दी जाए।

ओलिंपिक में नहीं दिखेगी भारतीय हॉकी

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