BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Thursday, May 2, 2013

विषयविहीन हो चुका है आज का सिनेमा

विषयविहीन हो चुका है आज का सिनेमा


-अनुराग मिश्र||

'ये कहाँ आ गए है हम' लता जी की मीठी आवाज़ में गया ये गाना आज भारतीय सिनेमा के १०० साल की यात्रा पर बिल्कुल फिट बैठता है क्योकि अपने उदगम से लेकर आज तक भारतीय सिनेमा में इतने ज्यादा बदलाव आये हैं कि कोई भी अब ये नहीं कह सकता कि आज की दौर में बनने वाली फिल्मे उसी भारतीय सिनेमा का अंग है जो हमेशा भारतीय समाज में चेतना को जाग्रत करने का काम करता आया है। कहा जाता है कि किसी भी समाज को सही राह दिखाने के लिए सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा है,क्योकि सिनेमा दृश्य और श्रव्य दोनों का मिला जुला रूप है और ये सीधे मनुष्य के दिल पर प्रभाव डालता है ।seductresssep6-12

हमारे भारतीय सिनेमा ने अपने गौरवमयी १०० साल पूरे कर लिये है पर इन १०० सालो  की यात्रा भारतीय सिनेमा कहा से कहाँ पंहुचा यह सोचनिय विषय है या फिर यूँ कहा जाए इन १०० सालो की यात्रा में भारतीय सिनेमा ने समाज को क्या दिया? ये सच है की फिल्मे समाज का आइना है और समाज के शसक्त निर्माण फिल्मो की अहम् भूमिका होती है और इसीलिए ८० की  दशक कि फिल्मे जमींदारी, स्त्री शोषण सहित उन सभी मुद्दों पर आधारित होती थी जो समाज को प्रभावित करते थे। तब जो फिल्मे बनती थी उनका उद्देश्य व्यावसयिक न होकर सामजिक कल्याण होता था। पर ९० की दशक में फिल्मो में व्यापक बदलाव आये।

c549fd49-c1b7-4d78-bf62-00f8e14b63cdMediumResये वो दौर था जब भारत में उदारीकरण की प्रक्रिया को अपनाया गया, भारत ने भी वैश्विक गांव में शामिल होने की दिशा में कदम बढ़ाए और दुनिया भर के देशों में वीजा नियमों में ढील देने की प्रक्रिया शुरू हुई। तब इन भौतिक बदलावों से प्रेरित होकर प्रवासी भारतीयों का स्वदेश प्रेम मुखर हुआ। इसके दर्शन हर क्षेत्र में होने लगे। एक तरह से उन्होंने अपने देश की घटनाओं में आक्रामक हस्तक्षेप शुरू किया।बिल्कुल उसी समय भारत में एक बड़ा मध्यवर्ग जन्म ले रहा था, जिसकी रूचियां काफी हद तक विदेशों में बस गए भारतीयों की तरह बन रही थीं। इसका श्रेय उपभोक्ता उत्पाद बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत आने और स्थानीय जरूरत के हिसाब से खुद को बदलने की प्रक्रिया को दिया जा सकता है। नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में वैश्विक गांव बनने की प्रक्रिया का पहला चरण पूरा हो चुका था। भारत का मध्यवर्ग और विदेश में बसा प्रवासी भारतीय खान-पान, पहनावे, रहन-सहन आदि में समान स्तर पर आ चुका था।
दोनों जगह एक ही कोक-पेप्सी पी जाने लगी, पिज्जा और बर्गर खाया जाने लगा और ली-लेवाइस की जीन्स पहनी जाने लगी। भारत की मुख्यधारा के फिल्मकार इस बदलाव को बहुत करीब से देख रहे थे। इसलिए उन्होंने अपनी सोच को इस आधार पर बदला। मशहूर फिल्मकार यश चोपड़ा के बेटे आदित्य चोपड़ा ने स्वीकार भी किया कि वे घरेलू और विदेशी दोनों जगह के भारतीयों के पसंद की फिल्म बनाते हैं। यहां घरेलू भारतीय दर्शक का मतलब भारतीय मध्यवर्ग से लगाया जा सकता है.heroine-dec8 भारतीय फिल्मकारों की इस सोच में आए बदलाव ने फिल्मों की कथा-पटकथा को पूरी तरह से बदल दिया, खास कर बड़े फिल्मकारों की। उन्होंने ऐसे विषय चुनने शुरू कर दिए, जो बहुत ही सीमित वर्ग की पसंद के थे, लेकिन बदले में उन्हें चूंकि डॉलर में कमाई होने वाली थी इसलिए व्यावसायिक हितों को कोई नुकसान नहीं होने वाला था। और ये वही दौर था जब फिल्मे समाज हित से हटकर पूरी तरह से व्यावासिक हित में रम गयी। फिल्मे बनाने वाले निदेशको और निर्माताओ का उदेश्य फिल्म में वास्तविकता डालने को बजाये उन चीजों को डालने का होता जो दर्शक को मनोरंजन कराये जिसका आज समाज पर नकरात्मक प्रभाव पड़ने लगा। आज भारतीय समाज जो आधुनिकता की नंगी दौड़ में दौड़ उसका श्रेय बहुत हद आज के दौर निर्मित होने वाली फिल्मो को ही जाता है अगर उदाहरण से समझना हो तो नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में बनी फिल्म 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, से शुरू करके 'नील और निक्की' तक की कहानी में इस बदलाव को देखा जा सकता है।इस बदलाव को दो रूपों में देखने की जरूरत है। एक रूप है भारत के घरेलू फिल्मकारों का और दूसरा प्रवासी भारतीय फिल्मकारों का। दोनों की फिल्मों का कथानक आश्चर्यजनक रूप से एक जैसा है। इनमें से जो लोग पारिवारिक ड्रामा नहीं बना रहे हैं वे या तो औसत दर्जे की सस्पेंस थ्रिलर और अपराध कथा पर फिल्म बना रहे हैं या संपन्न घरों के युवाओं व महानगरों के युवाओं के जीवन में उपभोक्तावादी संस्कृति की अनिवार्य खामी के रूप में आए तनावों पर फिल्म बना रहे हैं। घरेलू फिल्मकारों में यश चोपड़ा, आदित्य चोपड़ा, करण जौहर, राकेश रोशन, रामगोपाल वर्मा, फरहान अख्तर जैसे सफल फिल्मकारों के नाम लिए जा सकते हैं और दूसरी श्रेणी में गुरिन्दर चङ्ढा (बेंड इट लाइक बेकहम), नागेश कुकुनूर (हैदराबाद ब्लूज), विवेक रंजन बाल्ड (म्यूटिनी : एशियन स्टार्म म्यूजिक), बेनी मैथ्यू (ह्नेयर द पार्टी यार), निशा पाहूजा (बालीवुड बाउंड), महेश दत्तानी (मैंगो सौफल), मीरा नायर (मानसून वेडिंग), शेखर कपूर (द गुरू), दीपा मेहता आदि के नाम लिए जा सकते हैं, जो अनिवार्य रूप से प्रवासियों के लिए फिल्में बनाते हैं।
वास्तव में यही वो कारण जिनके कारण आज भारतीय सिनेमा के कथानक में गिरावट आती जा रही है जिसका सीधा असर आज समाज पर रहा है. ये कहना गलत न होगा की इन १०० सालो की यात्रा भारतीय सिनेमा ने जितने मुकाम हासिल किये उतना ही इसने समाज को गलत दिशा भी दी।  आज हमारी बॉलीवुड की फिल्मे सेक्स, थ्रिल, धोखे के काकटेल पर बन रही है ऐसी फिल्मे हिट भी हो रही है लेकिन यही फिल्मे जब अस्कार जैसे प्रतिष्ठित आवार्ड के लिए जाती है तो औंधेमुह गिर पड़ती है। इसके विपरीत स्लमडाग जैसी फिल्मे जो की सामजिक मुद्दों पर बनती है वो आस्कर जैसे आवार्ड को ला पाने में सफल होती है. कहने का तात्पर्य यह की विदेशो में भी अब ऐसी ही फिल्मो को पसंद किया जा रहा है जो किसी सामाजिक सरोकारों से जुडी हो.आज ये वक़्त की जरुरत है की फिल्मे सेक्स, थ्रिल, धोखे के काकटेल से बाहर निकले और और ऐसे मुद्दों पर बने जो समाजिक मुद्दों से जुडी हो। हो सकता है की ऐसी फिल्मे बाक्स ओफ्फिस पर हिट न हो पर लगातार अगर सामाजिक मुद्दों पर फिल्मे बनना शुरू होंगी तो कुछ दिन बाद ऐसी फिल्मे बॉक्स आफिस पर हिट होना शुरू हो जायेंगी क्योकि सिनेमा समाज को जो देता समाज उसी को लेता है और इसका सीधा से उद्धरण ८० की दशक की फिल्मे है जो उस दौर में काफी पसंद की गयी। वैसे भी जब इंसान किसी विषय से सालो दूर होता है तो निश्चित तौर पर उस विषय से उसकी दूरी बन जाती है पर अगर उसी विषय पर उसको वापस लाया जाये तो देर जरुर होती है पर अंततः रूचि जाग्रति होती है। इसलिए भारतीय सिनेमा के गौरवमयी इतिहास को बचाये रखने के लिए यह आवश्यक है की फिल्मे सामाजिक सरोकार से जुडी हो न की सेक्स, थ्रिल, धोखेजैसे मुद्दे से जिसका समाज पर नकारात्मक प्रभाव ही पड़ता है।

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