शांति और सद्भाव का योद्धा : असगर अली इंजीनियर
बहुवादी मूल्यों के संरक्षण के लिये असगर अली इंजीनियर का संघर्ष
(14 मई, 2013 को हमने असगर अली इंजीनियर को खो दिया। उनका चला जाना, मानवाधिकारों व धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के संरक्षण के आन्दोलन व साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई के लिये अपूर्णीय क्षति है। मेरे अजीज दोस्त और मेरे सम्मान के पात्र डॉक्टर इंजीनियर को मेरी विनम्र श्रद्धाञ्जलि)
पिछले तीन दशकों ने यह साबित किया है कि देश को विभाजित करने के साम्प्रदायिक ताकतों के प्रयास, समाज में शांति के स्थापना और देश के विकास में बाधक हैं। यद्यपि भारत में साम्प्रदायिक हिंसा की शुरुआत सन् 1961 (जबलपुर) से ही हो गयी थी तथापि सन् 1980 के दशक के बाद से साम्प्रदायिक ताकतों को विभिन्न समुदायों के बीच बैरभाव बढ़ाने में अप्रत्याशित व अभूतपूर्व सफलता मिली है। यह खेदजनक है कि बहुत कम सामाजिक कार्यकर्ताओं और विद्वानों ने इस समस्या को गम्भीरता से लिया। डॉक्टर असगर अली इंजीनियर उनमें से एक थे। उन्होंने उस विचारधारा और उन साजिशों के विरुद्ध जीवनपर्यन्त संघर्ष किया जो कि साम्प्रदायिक हिंसा का कारण बनती हैं। उन्होंने अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के खिलाफ भी अनवरत आवाज़ बुलन्द की।
जबलपुर दंगों के वक्त इंजीनियर, पढ़ाई कर रहे थे। इन दंगों ने उनके दिमाग पर गहरा असर डाला। इस त्रासदी ने उन्हें इस हद तक प्रभावित किया कि उन्होंने अपना पूरा जीवन साम्प्रदायिक हिंसा और साम्प्रदायिक राजनीति के विरुद्ध संघर्ष के लिये होम कर दिया। उनके भाषणों और उनके लेखन में जबलपुर दंगों के राष्ट्र और प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरु पर पड़े प्रभाव की विस्तृत चर्चा रहती थी। साम्प्रदायिक हिंसा, साम्प्रदायिक विचारधारा और समाज के साम्प्रदायिकीकरण पर डॉक्टर इंजीनियर ने भरपूर लिखा है – इतना कि कई मोटे-मोटे ग्रन्थ में भी न समा पाये।
उनके लेखन से यह स्पष्ट है कि उन्होंने साम्प्रदायिक हिंसा कि प्रकृति को समझने के गम्भीर प्रयास किये। उन्होंने साम्प्रदायिक दंगों, उनके बाद के घटनाक्रम और समाज व राजनीति पर उनके प्रभाव के अध्ययन में काफी परिश्रम किया। इस क्षेत्र में काम करने वाले शायद वे एकमात्र जाने-माने अध्येता व कार्यकर्ता थे। उन्होंने भारत में साम्प्रदायिक हिंसा के अध्ययन और विश्लेषण करने में बहुत ऊर्जा और समय खर्च किया। इस अर्थ में भी वे अद्वितीय थे कि उन्होंने ना केवल साम्प्रदायिकता से जुड़े मुद्दों पर सारगर्भित टिप्पणियाँ कीं वरन, ढेर सरे खतरों का सामना करते हुये भी इन मुद्दों पर अपने विचारों को खुलकर सामने रखा। धर्म के नाम पर की जा रही हिंसा और राजनीति का विरोध करने के कारण उन्हें दोनों समुदायों के साम्प्रदायिक तत्वों का कोपभाजन बनना पड़ा।
इस लेख में साम्प्रायिक हिंसा की जाँच-पड़ताल और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बढ़ावा देने वाले आन्दोलनों में उनके योगदान का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है। एक मित्र व सहयोगी के रूप में उनके कार्यकलापों को निकट से देखने-समझने का अवसर मुझे मिला है। उनके व्यापक योगदान को मैंने नजदीक से देखा है। मैं उनसे प्रभावित हूँ और उनका प्रशंसक हूँ। कई मसलों पर मैं उनसे इत्तेफाक नहीं भी रखता हूँ परन्तु यह निर्विवाद है कि मेरे अपने कार्य को दिशा देने में, मुझे उनसे जो प्रेरणा और ज्ञान मिला, वह अमूल्य है।
साम्प्रदायिक हिंसा
जबलपुर में सन १९६१ में हुयी हिंसा ने इंजीनियर को अन्दर तक हिला दिया था। बचपन से ही इस्लामिक आध्यात्म में ओत-प्रोत, इंजीनियर के लिये यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि धर्म के नाम पर हिंसा की जा सकती है। उन्हें तो यह सिखाया गया था कि न तो इस्लाम और ना ही कोई और धर्म, हिंसा की शिक्षा देता है। तो फिर धर्म के नाम पर यह हिंसा कैसी? यही वह समय था जब उन्होंने तय किया कि वे साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रोत्साहन के लिये अपना जीवन समर्पित कर देंगे। इस घटना ने उनके जीवन और कार्य की दिशा तय कर दी। वे केवल दंगों के दौरान हिंसा की आग को बुझाने की कोशिश तक स्वयम् को सीमित नहीं रखते थे। अपने जीवन के शुरूआती वर्षों में, एक सामाजिक कार्यकर्ता की हैसियत से, उन्होंने दंगों की गहराई से जाँच का काम हाथ में लिया। बिहार शरीफ दंगों से लेकर हालिया गुजरात कत्लेआम तक, उन्होंने अत्यन्त परिश्रम से और काफी समय लगा कर, मुख्यतः मैदानी अध्ययनों के ज़रिये, हिंसा की जाँच की। इन घटनाओं पर उनकी रपटें, साम्प्रदायिक हिंसा के मूल चरित्र और उसके पीछे के कारणों को समझने के प्रयास में मील का पत्थर हैं। बिहार शरीफ में, बीड़ी मजदूरों में उसकी गहरी पैठ के कारण, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का बोलबाला था। डॉक्टर इंजीनियर ने इस तथ्य का पर्दाफाश किया कि इलाके में अपनी पकड़ बनाने के लिये, आरएसएस ने, यादवों और मुसलमानों के बीच कब्रिस्तान के विवाद का इस्तेमाल हिंसा भड़काने के लिया किया (1981)।
सन् 1980-81 में, गोधरा में कई दौर में दंगे हुये। डॉक्टर इंजीनियर ने एक दल के सदस्य बतौर इन दंगों की जाँच की। यहाँ विवाद मुख्यतः सिंधियों और घांची मुसलमानों के बीच था। जहाँ अन्य हिन्दू इन सिंधी शरणार्थियों को नीची निगाहों से देखते थे, वहीँ मुसलमानों के खिलाफ हिंसा में हिन्दू संगठन उनका साथ देते थे। घांची मुसलमानों की गरीबी और सिंधियों की सुविधाओं की बढ़ती माँग के कारण विवाद भड़का, जिसने जल्दी ही धार्मिक रंग अख्तियार कर लिया। रपट में कहा गया कि अफवाहों की दंगा भड़काने में महत्वपूर्ण भूमिका थी।
डॉक्टर इंजीनियर ने सन 1982 के अहमदाबाद दंगों का भी अध्ययन किया था। इसके लिये घटनास्थलों पर जाकर जाँच-पड़ताल की गयी थी। अहमदाबाद में कालूपुर और दरयागंज के गरीब मुसलमानों को निशाना बनाया गया था। पतंग उड़ाने को लेकर शुरू हुयी मामूली तकरार जल्दी ही पत्थरबाजी और हिंसा में तब्दील हो गयी। तब विहिप ने इन इलाकों में काम शुरू किया था और हिंसा की पृष्टभूमि तैयार की थी। विहिप ने दलितों के इस्लाम कुबूल करने को मुद्दा बनाया। साम्प्रदायिक ताकतों ने इस मुद्दे पर जम कर दुष्प्रचार किया। बड़ी संख्या में पर्चे बाँटे गये। इन पर्चों में इतिहास को जम कर तोड़ा-मरोड़ा गया था। इनमें मुस्लिम राजाओं का दानवीकरण किया गया था, वन्दे मातरम् गाने पर जोर दिया गया था और गायों को मारने वालों के साथ सख्ती से निपटने की वकालत की गयी थी। कुछ लोगों ने इन पर्चों की ओर गुजरात सरकार का ध्यान आकर्षित किया था परन्तु उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
सन 1981-82 में पुणे और शोलापुर हिंसा की गिरफ्त में आ गये। ये दंगे, अहमदाबाद हिंसा की प्रतिक्रिया में हुये थे और हमेशा की तरह, साम्प्रदायिकता का जहर फैलाने में विहिप की महत्वपूर्ण भूमिका थी। तत्समय, विहिप ने पूरे भारत में जनजागरण अभियान चलाया हुआ था। यह अभियान मुसलमानों के दानवीकारण पर आधारित था, जिसमें मुसलमानों को विदेशी व गौमाँस भक्षक बताया जाता था। ये दंगे सन 1981 में मीनाक्षीपुरम में दलितों के सामूहिक रूप से इस्लाम को अंगीकार करने के बाद हुये थे। दलितों पर हो रहे जुल्मों को साम्प्रदायिक हिंसा का मूल कारण बताते हुये डॉक्टर इंजीनियर लिखते हैं, "मीनाक्षीपुरम में हरिजनों के धर्मपरिवर्तन पर विहिप इसलिये इतना हो-हल्ला मचा रही है ताकि भेदभाव की आग में जल रहे दलितों की चीखों को दबाया जा सके" (कम्यूनल रायट्स इन पोस्ट-इण्डिपेन्डेन्ट इण्डिया पृष्ठ 265)।
विहिप के आक्रामक अभियान ने मुसलमानों को आतंकित कर दिया। विहिप ने एक बड़ा जुलूस निकाला, जिसमें गाँधी और अम्बेडकर के अलावा, गोलवलकर और मनुस्मृति के चित्र भी थे। जुलूस में शामिल लोगों ने वे सभी बोर्ड व होर्डिंग आदि तोड़ डाले जिनमें कोई भी मुस्लिम नाम लिखा था। इनमें मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के नाम वाला एक बोर्ड भी शामिल था। भीड़ मुस्लिम-विरोधी नारे लगा रही थी। जुलूस अपने निर्धारित रास्ते को छोड़ कर मुस्लिम इलाके में घुस गया। मुसलमानों की होटलों और दुकानों पर पत्थरबाज़ी हुयी और उनमें तोड़फोड़ की गयी।
शोलापुर में भी हालात कुछ ऐसे ही थे। वहाँ लोगों को भड़काने के लिये, मुसलमानों की बढ़ती आबादी के मिथक का इस्तेमाल किया गया। यहाँ भी 13 दिसम्बर, 1982 को विहिप द्वारा निकाले गये जुलूस के बाद हिंसा शुरू हुयी। जुलूस ने पंजाब तालीम मस्जिद के पास, भड़काऊ मुस्लिम-विरोधी नारे लगाये। पहले मुसलमानों की दुकानों पर हमले हुये और फिर उन पर।
मेरठ के दंगे भी हमारी राजनीति पर पर एक बदनुमा दाग हैं। अपनी साझा संस्कृति के लिये जाने जाने वाले मेरठ में जम कर हिंसा हुयी। यहाँ हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों का मुख्य लक्ष्य दलितों को अपने साथ मिलाकर, उनका इस्तेमाल मुसलमानों पर हमलों में करना था। यहाँ की हिंसा के पीछे, आर्थिक कारण कम थे राजनैतिक ज्यादा। शुरुआत एक प्याऊ को लेकर विवाद से हुयी, जिसमें एक मुसलमान वकील और एक अन्य ट्रस्ट शामिल था। तनाव बढ़ा और अप्रैल 1982 में भड़काऊ दुष्प्रचार अपने चरम पर पहुँच गया। पुलिस के पूर्वाग्रहपूर्ण व्यवहार और अखबारों में साम्प्रदायिक लेखन ने आग में घी का काम किया।
डॉक्टर इंजीनियर ने बड़ोदा, हैदराबाद और असम के दंगों का भी इसी तरह का विशद अध्ययन किया।
उनका एक मुख्य निष्कर्ष यह है कि अक्सर, साम्प्रदायिक ताकतें, किसी भी छोटी-सी घटना का इस्तेमाल अफवाहें फैलाने के लिये करती हैं; साम्प्रदायिक मानसिकता से ग्रस्त राज्यतन्त्र, विशेषकर पुलिस, एक तरफ़ा भूमिका निभाता है और नतीजे में अल्पसंख्यकों को बेवजह हिंसा का शिकार बनना पड़ता है।
इनके अतिरिक्त, उन्होंने मुम्बई के 1992-93 के दंगों (एकता समिति की रपट, 1993) और गुजरात कत्लेआम (सोइंग हेट एंड रीपिंग वोयलेंस, सीएसएसएस, 2003) का भी अध्ययन किया। अनेक अध्येताओं ने डॉक्टर इंजीनियर द्वारा किये गये अध्ययनों का उपयोग साम्प्रदायिक हिंसा की प्रकृति के विश्लेषण और उसके सम्बन्ध में निष्कर्षों पर पहुँचने के लिये किया। वे हर दंगे का विश्लेषण करते थे और उनके अध्ययनों व रपटों में दंगों में हुयी हिंसा की विस्तृत जानकारी होती थी। उनके अध्ययनों व रपटों से यह साफ़ है कि साम्प्रदायिक दंगों की भयावहता में वृद्धि हो रही है और गुजरात दंगों में यह अपने चरम पर थी। उन्होंने साम्प्रदायिक दंगों के दौरान पुलिस की हिंसा पर काबू पाने में असफलता और दंगाईयों से उसकी मिलीभगत का सटीक विवरण प्रस्तुत किया है। ऐसा लगता है कि पिछले तीन दशकों से साम्प्रदायिकीकरण की प्रक्रिया सतत चलती रही है और अब एक अन्य अल्पसंख्यक समूह – ईसाई – भी साम्प्रदायिक ताकतों के निशाने पर आ चुके हैं।
वे इस तथ्य की ओर भी ध्यान आकर्षित करते हैं कि ये दंगे छिटपुट होने वाली स्वस्फूर्त हिंसा के प्रतीक नहीं हैं। उनके पीछे निश्चित उद्देश्य रहता है और उन्हें योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दिया जाता है। उनके अध्ययन व रपटें बताते हैं कि अल्पसंख्यकों के बारे में आम धारणाएं, हिंसा का आधार बनती हैं। मुसलमानों और ईसाईयों के विरुद्ध फैलाये गये मिथक, साम्प्रदायिक ताकतों का काम आसान कर देते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि साम्प्रदायिक शक्तियाँ हर मौके का इस्तेमाल अपनी ताकत बढाने के लिये करती हैं। वे पहले हिंसा भड़काती हैं, फिर उसे लम्बा खींचती हैं और अन्ततः उसके जरिये अपनी राजनैतिक ताकत को बढ़ाती हैं।
उनकी स्वयम् की रपटों व किताबों के अतिरिक्त, उन्होंने कई पुस्तकों का सम्पादन भी किया है। इनमें शामिल हैं, "स्वतन्त्र भारत में साम्प्रदायिक हिंसा", "स्वतन्त्रता के पश्चात साम्प्रदायिक हिंसा", "साम्प्रदायिकता व साम्प्रदायिक हिंसा" आदि। उन्होंने साम्प्रदायिक दंगों का लेखाजोखा रखने का काम दशकों तक लगातार किया। हर वर्ष "सेक्यूलर पर्सपेक्टिव" के जनवरी के अंक में वे पिछले वर्ष हुये दंगों का विवरण व विश्लेषण प्रस्तुत करते थे।
साम्प्रदायिकता-धर्मनिरपेक्षता
भारत के सामाजिक कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों – दोनों के समक्ष साम्प्रदायिक हिंसा को समझना, उसे परिभाषित करना और दंगों के दौरान व उनके बाद, सार्थक हस्तक्षेप करना, एक बहुत बड़ी चुनौती रही है। भारतीय समाज में साम्प्रदायिकता के परिघटना को हम कैसे देखें-समझें? यह समस्या भारत का पीछा क्यों नहीं छोड़ रही है? जब डॉक्टर इंजीनियर ने भारतीय इतिहास और समकालीन मुद्दों का अध्ययन-विश्लेषण शुरू किया होगा, तब ये सभी प्रश्न उनके दिमाग को मथ रहे होंगे।
भारतीय इतिहास की साम्प्रदायिक व्याख्या, सामाजिक सोच के साम्प्रदायिकीकरण के लिये काफी हद तक जिम्मेदार है। देश के इतिहास को समझने के प्रयास के दौरान डॉक्टर इंजीनियर ने इतिहास की साम्प्रदायिक व्याख्या को सिरे से ख़ारिज कर दिया। वे इतिहास को राजाओं के बीच सत्ता और वैभव पाने की लड़ाई के रूप में देखते थे। आम लोगों की ज़िन्दगी को वे ऐसी अनवरत यात्रा मानते थे, जिसमें आपसी मेलजोल था, कुछ विवाद थे, साझा सोच थी व इन सब से उभरी साझा परम्परायें थीं। उनकी एक प्रमुख पुस्तक "कम्युनलिज्म इन इण्डिया" (विकास, 1995), इस विषय पर उनकी सोच को प्रतिबिंबित करती है। उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों की कार्यशालाओं के ज़रिये अपनी सोच आमजनों तक पहुँचायीं। उन्होंने इस विषय पर अनेक लेख और पुस्तकें भी लिखीं।
उनके लेखन में मध्यकालीन इतिहास को हिन्दू राजाओं और मुस्लिम बादशाहों के बीच संघर्ष के रूप में प्रस्तुत न करते हुये, सत्ता और धन के लिये शासकों के बीच संघर्ष बतौर प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने मूल स्रोतों और राष्ट्रीय इतिहासकारों की पुस्तकों से तथ्यान्वेषण किया है। मन्दिरों के ध्वँस, ज़जिया, मुस्लिम शासकों की नीतियों, इस्लाम के फैलाव आदि के बारे में उनका लेखन और विचार, तत्समय का यथार्थवादी विवरण तो प्रस्तुत करते ही हैं, वे हमारे समाज में इन मुद्दों को लेकर व्याप्त मिथकों और भ्रमों के निवारण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। डॉक्टर इंजीनियर ने भक्ति व सूफी संतों की प्रेम और सद्भाव की परंपरा को प्रभावी ढँग से रेखांकित किया है। हमारे समाज की मिलीजुली
संस्कृति इस तथ्य की द्योतक है कि हमारे देश में हिन्दू व मुसलमान अच्छे दोस्त थे और धर्म कभी उनके बीच कलह या अनबन का कारण नहीं बना। हाँ, सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक कारणों से समाज में विवाद अवश्य हुये और कब-जब ये मुद्दे, धर्म का लबादा ओढ़ कर सामने आते रहे हैं। परन्तु, साम्प्रदायिकता का राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल, अँग्रेजों के भारत में आगमन के बाद शुरू हुआ।
डॉक्टर इंजीनियर, भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में मुस्लिम नेतृत्व और साम्प्रदायिक ताकतों की भूमिका के उलझे हुये मुद्दे पर भी विस्तृत प्रकाश डालते हैं। हिन्दू और मुस्लिम – दोनों समुदायों की साम्प्रदायिक ताकतों ने, स्वतन्त्रता-पूर्व के भारत में साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वे भारत के विभाजन के मुद्दे पर अत्यन्त सारगर्भित व संतुलित विचार प्रस्तुत करते हैं। उनका स्पष्ट मत है कि विभाजन के लिये मुख्यतः अँग्रेज जिम्मेदार थे परन्तु तत्कालीन काँग्रेस नेतृत्व व जिन्ना के जिद्दी स्वाभाव की भी इसमें भूमिका थी। वे मौलाना अबुल कलाम आजाद की इस मान्यता से सहमत है कि अगर क्रिप्स मिशन की सिफारिशों को स्वीकार करने की मौलाना की सलाह को मान लिया गया होता तो विभाजन को टाला जा सकता था।
मुस्लिम अल्पसंख्यकों के सम्बंध में मिथकों के निवारण के लिये उन्होंने''स्वाधीनता संग्राम में मुसलमानों की भूमिका'' पर काफी कुछ लिखा। डॉक्टर इंजीनियर, विभिन्न समुदायों के बीच एकता स्थापित करने और अहिंसा व शांति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के कारण महात्मा गाँधी से अत्यन्त प्रभावित थे। उन्होंने ''गाँधी व साम्प्रदायिक सद्भाव'' पर एक ग्रन्थ लिखा है। उनकी यह मान्यता थी कि सम्प्रदायिकता से जुड़ी समस्याओं को गाँधीवादी रास्ते पर चलकर सुलझाया जा सकता है और यह मान्यता उनके लेखन में स्पष्ट झलकती है। वे लैंगिक न्याय के जबरदस्त पैरोकार थे और उन्होंने यह साबित किया है कि इस्लाम, महिलाओं को बराबरी का दर्जा देता है। उनका यह भी कहना था कि साम्प्रदायिक हिंसा से महिलायें सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। उनके द्वारा लिखित ग्रन्थों की सूची से ही यह साफ हो जाता है कि उनका साम्प्रदायिकता व उससे जुड़े मुद्दों की व्याख्या और अध्ययन में कितना महत्वपूर्ण योगदान है। उनके पाक्षिक प्रकाशन ''सेक्युलर पर्सपेक्टिव'' की खासी प्रसार संख्या है और पूरी दुनिया में कई वेबसाईटों और अखबारों में इसका पुनर्प्रकाशन होता है।
धर्मनिरपेक्ष हस्तक्षेप
यह तय करना मुश्किल है कि इंजीनियर के काम का कौन सा पक्ष, दूसरे पक्षों से अधिक महत्वपूर्ण है। उनके काम के विभिन्न पक्षों में गहरा अन्तर्सम्बंध है।
सामाजिक मसलों में उनके हस्तक्षेप की शुरूआत, साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के चलते हुयी। जबलपुर हिंसा के बाद से उन्होंने साम्प्रदायिक हिंसा की प्रकृति को समझना और उसका अध्ययन करना शुरू किया। बाद में उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिये कई अभियान और जनजाग्रति कार्यक्रम चलाये। उन्होंने साम्प्रदायिक दंगों के दौरान सार्थक हस्तक्षेप करना भी शुरू किया। मुम्बई में सन् 1960 के दषक में, समान विचार वाले अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने ''आवाज-ए-बिरादरान'' नामक संस्था की स्थापना की। यह संस्था साम्प्रदायिकता से जुड़ी समस्याओं को उठाती थी और स्कूलों और कालेजों के जरिए साम्प्रदायिक सद्भाव की जोत जलाती थी। चूंकि इंजीनियर की उर्दू साहित्य में भी गहरी दिलचस्पी थी इसलिये वे कई जानेमाने उर्दू लेखकों के सम्पर्क में आये और उन्होंने भी साम्प्रदायिक सद्भाव के क्षेत्र में डॉक्टर इंजीनियर के काम में हाथ बँटाना शुरू किया। सन् 1970 में भिवण्डी में दंगे भड़कने के बाद वे अपने कई मित्रों, जिनमें जाने-माने फिल्म कलाकार बलराज साहनीऔर विनोद मुबई शामिल थे, के साथ दो हफ्तों तक भिवंडी में रहे। इस दौरान वे गाँवों में जाते, लोगों से उनका दर्द बाँटते और उनकी मदद करते। उनके संगठन ने कई प्रतिष्ठित लेखकों को इस बात के लिये राजी किया कि वे आल इण्डिया रेडियो से शांति की एक संयुक्त अपील जारी करें।
मुम्बई में उन्होंने भारत-पाक मैत्री आन्दोलन में भी हिस्सेदारी की। वे ''साम्प्रदायिकता विरोधी कमेटी'' के सम्पर्क में भी आये जिससे सुभद्रा जोशी और डी.आर. गोयल जैसे निष्ठावान व्यक्तित्व जुड़े हुये थे। इंजीनियर ने उनके काम में भी हाथ बँटाना शुरू किया।
रामजन्मभूमि मुद्दे पर मुस्लिम नेतृत्व की प्रतिक्रिया ने उन्हें बहुत धक्का पहुँचाया। उनकी यह मान्यता थी कि इस मसले में मुस्लिम नेतृत्व को पृष्ठभूमि में रहना चाहिये और समस्या के निवारण का काम धर्मनिरपेक्ष कार्यकर्ताओं और विद्वानों पर छोड़ दिया जाना चाहिये। उन्होंने मुस्लिम नेतृत्व से जोर देकर कहा कि राम जन्मभूमि मुद्दे की बजाय उन्हें मुसलमानों में गरीबी और पिछड़ेपन जैसे मुद्दों पर आन्दोलन करना चाहिये। उन्होंने कहा कि गोपाल सिंह समिति की रपट, जो कि ठण्डे बस्ते में पड़ी है, को लागू किया जाना चाहिये। उन्होंने स्वयम् कई धर्मनिरपेक्ष कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर शांति की अपीलें जारी कीं।
उन्होंने 1987 के मेरठ दंगों के बाद ''एकता समिति'' की स्थापना की पहल भी की। यह समिति जल्दी ही ट्रेड यूनियनों व मुम्बई के प्रगतिशील तबके का संयुक्त मंच बन गयी जहाँ से वे शांति की स्थापना व साम्प्रदायिकता के विरोध में अभियान का संचालन करने लगे।
मुझे सन् मुख्यतः1992-93 के बाद ही उनसे सीधे सम्पर्क में आने का मौका मिला। मुम्बई दंगों के दौरान उन्होंने हिंसाग्रस्त इलाकों में शांति मार्च निकाले। मेरे दिमाग में उनकी छवि एक निष्ठावान, ईमानदार और प्रतिबद्ध अध्येता व कार्यकर्ता की है। मुम्बई हिंसा के दौरान उनका कार्यालय धर्मनिरपेक्ष कार्यकर्ताओं का मिलनस्थल बन गया। वहाँ होने वाली बैठकों में कभी-कभी तो सौ से भी अधिक कार्यकर्ता पहुँच जाते थे। उनके छोटे से ऑफिस का हर कोना भर जाता था। यहाँ तक कि बालकनी तक में पैर रखने की भी जगह नहीं बचती थी। इस भीड़ के बीच, वे फर्श पर बैठ जाते, बैठक का संचालन करते और आगे के काम की योजना बनाते। अधिकाँशतः, शांति मार्चों और पीड़ित समुदाय के बीच काम करने की योजनायें बनायीं जाती थीं। बांद्रा के निकट बहरामपाडानामक इलाके पर विशेष ध्यान दिया गया। वहाँ के अलावा शहर के अन्य हिस्सों में भी शांति मार्च निकाले गये।
इन शांति मार्चों का समाज की सामूहिक सोच पर अच्छा असर पड़ा और दंगे के शिकार लोगों के मन में आशा जागी। सन् 1993 के गणतन्त्र दिवस पर, जब साम्प्रदायिक हिंसा अपने चरम पर थी, उन्होंने मुम्बई के मुख्य इलाकों में शांति मार्च निकाला। इसके अतिरिक्त, उन्होंने मुम्बई दंगों की गहराई से जाँच की और इस जाँच पर आधारित एकता कमेटी की रपट अत्यन्त विश्लेषणात्मक व गहन बन पड़ी है। इस जाँच से उनके सामने यह तथ्य और स्पष्टता के साथ उभरा कि हिंसा को रोकने के लिये जिम्मेदार पुलिस का ही घोर साम्प्रदायिकीकरण हो गया है। इसके बाद उन्होंने पुलिस के शीर्ष अधिकारियों से मिलकर पुलिसकर्मियों के बीच साम्प्रदायिक सद्भाव की स्थापना के लिये कार्यशालायें आयोजित करने का कार्यक्रम तैयार किया। इस तरह की आगणित कार्यशालायें मुम्बई, महाराष्ट्र और देश के अन्य हिस्सों में आयोजित की गयीं। जहाँ भी ये कार्यशालायें आयोजित होतीं, उन्हें मुसलमानों के खिलाफ पूर्वाग्रहों से उपजे उत्तेजक प्रश्नों का सामना करना पड़ता। उनसे मुसलमानों के खानपान के बारे में पूछा जाता, मुस्लिम राजाओं के द्वारा मन्दिरों को नष्ट करने की चर्चा होती व यह कहा जाता कि मुसलमान एक से अधिक बीवियाँ रखते हैं और ढेर सारे बच्चे पैदा करते हैं। इन सभी मुद्दों से सम्बंधित प्रश्नों का वे बिना अपना आपा खोये, अत्यन्त विनम्रता से उत्तर देते थे।
सेऩ्टर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एण्ड सेक्युलरिज्म
इस बीच उन्होंने यह निर्णय किया कि अपने जनजागृति अभियानों और अन्य कार्यक्रमों को ठीक ढँग से चलाने के लिये उन्हें एक औपचारिक संगठन खड़ा करना होगा। इसी दृष्टि से ''सेऩ्टर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एण्ड सेक्युलरिज्म'' की स्थापना की गयी। सी.एस.एस.एस. ने राष्ट्रीय एकीकरण से जुड़े समकालीन मुद्दों पर अनुसंधान का काम भी हाथ में लिया। सीएसएसएस ने समाज के विभिन्न वर्गों में जागृति लाने के कार्यक्रमों के कई अलग-अलग मोड्यूल तैयार किये। सेन्टर द्वारा आयोजित कार्यशालायें आधे दिन से लेकर सात दिन तक की होती हैं। इनमें इतिहास, समकालीन मुद्दों, आतंकवाद, इस्लाम और शांति, स्वाधीनता संग्राम के मूल्य आदि विषयों पर चर्चा होती है। मेरा अँदाजा है कि इन कार्यशालाओं से अब तक हजारों कार्यकर्ता व अन्य लोग लाभ उठा चुके होंगे। सीएसएसएस ने''इंस्टीट्यूट ऑफ पीस स्टडीस एण्ड कंफ्लिक्ट रेजील्यूजेशन'' की स्थापना भी की ताकि कायकर्ताओं को धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में दीक्षित करने का काम बेहतर ढँग से किया जा सके। कार्यकर्ताओं, अध्यापकों और छात्रों के लिये लम्बी अवधि के प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने की योजना भी बनायी गयी।
डॉक्टर इंजीनियर को देश-विदेश से कार्यक्रमों में भाग लेने और व्याख्यान देने के अनगिनत निमन्त्रण प्राप्त होते रहते थे और वे लगभग लगातार यात्रा पर रहते थे। यहाँ यह महत्वपूर्ण कि उन्हें संप्रग सरकार (2004-2009) ने राष्ट्रीय एकता समिति का सदस्य नियुक्त किया। उन्होंने आतंकवाद के खात्मे के नाम पर निर्दोष मुस्लिम युवकों को जबरन परेशान किये जाने का मुद्दा जोरदार ढँग से उठाया। उनके हस्तक्षेप, अन्य महत्वपूर्ण लोगों द्वारा इस मुद्दे को उठाने और इस विषय पर बने न्यायाधिकरण के प्रयासों से सरकार की नीति में कुछ बदलाव आये। इससे देश के किसी भी हिस्से में बम धमाकों के बाद पुलिस द्वारा बड़ी संख्या में मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार करने की प्रवृत्ति में खासी कमी आयी।
उन्होंने पूरे देश के धर्मनिरपेक्ष कार्यकर्ताओं को एक मंच पर लाने का प्रयास भी किया। देश के विभिन्न हिस्सों में काम कर रहे धर्मनिरपेक्ष संगठन पिछले कुछ सालों से ''ऑल इण्डिया सेक्युलर फोरम'' के संयुक्त मंच से जुड़े हैं।
मर्मस्पर्शी क्षण
जब हम किसी अत्यन्त महत्वपूर्ण व उच्च दर्जे के व्यक्ति के सामाजिक योगदान की चर्चा करते हैं तो उनसे सम्बंधित व्यक्तिगत प्रसंगों का स्मरण हो आना स्वाभाविक है। हमारे काम के दौरान मैंने उनके साथ अनेक कार्यक्रमों में भाग लिया है और कई यात्रायें की हैं। इन कार्यक्रमों और यात्राओं के दौरान मुझे उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। उन्होंने विभिन्न मुद्दों पर अपने विचार मुझसे बाँटे।
मैं यहाँ एक प्रसंग की चर्चा करना चाहूँगा जिसने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी। एक दिन सुबह हम लोग मुम्बई विश्वविद्यालय के परिसर में स्थित एक मीटिंग हाल के सामने खड़े थे। सेमिनार शुरू होने में दस-पन्द्रह मिनट का वक्त था। तभी सेमिनार के एक अन्य वक्ता टैक्सी से वहाँ पहुँचे। हमने उनका स्वागत किया। हम लोग बातें ही कर रहे थे कि टैक्सी का ड्रायवर गाड़ी से उतरकर आया और डॉक्टर इंजीनियर को अत्यन्त सम्मानपूर्वक नमस्ते कर बोला ''सर, अपना काम जारी रखिये। आपके काम से देश में अमन की वापसी होगी''। मैं बिना किसी सन्देह के कह सकता हूं कि डॉक्टर इंजीनियर के इस तरह के प्रशंसक पूरी दुनिया में होंगे।
(हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
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