आरक्षण पर संघर्ष के चलते शुंग भारत में तब्दील:बौद्ध भारत
महान मार्क्सवादी विचारक महापंडित राहुल संकृत्यायन ने अपने ग्रन्थ 'कार्ल मार्क्स' के विषय प्रवेश में लिखा है-'मानव समाज की आर्थिक विषमतायें ही वह मर्ज़ है,जिसके कारण मानव-समाज में दूसरी विषमतायें और असह्य वेदनाएं देखी जाती हैं .इन वेदनाओं का अनुभव हर देश-काल में मानवता-प्रेमियों और महान विचारकों ने दुःख के साथ अनुभव किया और उसको हटने का यथासंभव प्रयत्न भी किया.'आर्थिक विषमता को मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या चिन्हित करने के बाद उन्होंने ने डेढ़ दर्ज़न ऐसे मानवों का नामोल्लेख किया है जो 'विगत ढाई हज़ार वर्षो से एक ऐसे समाज का सपना देखते रहे ,जिसमें मानव सामान होंगे,उनमें कोई आर्थिक विषमता नहीं होगी,लूट-खसूट ,शोषण-उत्पीडन से वर्जित मानव-संसार उस वर्ग का उप धारण करेगा ,जिसका लाभ भिन्न-भिन्न धर्म मरने के बाद देते हैं.'अवश्य ही महापंडित ने आर्थिक विषमता के खिलाफ मुक्कमल और वैज्ञानिक सूत्र देने का श्रेय कार्ल मार्क्स को दिया हैं, किन्तु मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या के खिलाफ जुझनेवालों में पहला नाम गौतम बुद्ध का लिया है.यह भारी दुःख का विषय है कि गौतम बुद्ध की छवि एक ऐसे व्यक्ति के रूप चित्रित की गयी है जिसने अहिंसा के धर्मोपदेश के साथ पंचशील का दर्शन दिया है,जबकि सचाई यह है कि वे दुनिया के पहले ऐसे क्रांतिकारी पुरुष थे जिन्होंने भूख अर्थात आर्थिक विषमता को इंसानियत की सबसे बड़ी समस्या चिन्हित करते हुए समतामूलक समाज निर्माण का युगांतरकारी अध्याय रचा .उनके कार्यों का मुल्यायन करते हुए सुप्रसिद्ध इतिहासकार एस के बिस्वास ने लिखा है-
'करुणाघन बुद्ध का अबाध मुक्त ज्ञानानुशीलन मुक्त किया मानव के भाग्य विकास को .मुक्तज्ञान आत्मा का निर्वाणलाभ,युक्त किया ज्ञान के साथ प्रेम.इसलिए अर्यीकृत ब्राह्मणवादी वर्ण-वित्त संरचित जड़ समाज के पास ही,अव्याहत रूप से ध्वनित हुआ जातिहीन मुक्त वित्त;युक्ति-विचाराधारित वस्तुवादी समाज का कर्म चांचल्य भरा गतिमय प्रेम संगीत .किसी जाति विशेष का कल्याण नहीं;विशेष दल व सम्प्रदाय की मुक्ति नहीं;बहुजन के हित के उद्देश्य से ,बहुजन के सुख के लिए रचित हुआ एक महान शक्तिमान समाज.उस समाज की उत्पन्न शक्ति विश्व को आमंत्रित कर लाइ,अपने घर के विशाल आंगन में.भ्रातृत्व,बंधुत्व और प्रेम की मशाल जलाकर ,भारत विश्व के कोने-कोने में पहुंचा ,प्रेम प्रदीप प्रज्ज्वलित करने के लिए.देखते ही देखते भारत समाज परिणत हुआ वृहत्तर भारत में;ध्यान-ज्ञान के साथ कर्म और धर्म का समन्वय भारत को परिणत किया विश्व समाज में;बंधुत्व हुआ विश्व भ्रातृत्व;वाणिज्य परिणत हुआ विश्व व्यापार में;राजनीति हुई विश्व राजनीति और विद्यालय परिणत हुए विश्व विद्यालय में.आश्चर्यचकित होकर सारा विश्व बौद्ध भारत के चरणों में श्रद्धा अर्पित करने के लिए हुआ बाध्य.बुद्ध के साम्य धर्म का रथ चक्र दुरन्त गति से ,समाज के अत्यंत उर्द्ध्व स्तर में उड़ाकर ले गया आपामर,आर्य-पुत्रों की अवहेलना से बोधशून्य –अछूत व निरादृत बहुजन समाज के नर-नारी को.उनका धम्मचक्र समाज में आर्य उत्तरसूरियों के मस्तक को झुकाकर,बहुजन समाज को बराबर लाने का सार्थक प्रयास किया.वह महज समाज परिवर्तन नहीं, एक सामाजिक क्रांति थी.'
जिस वर्ण-व्यवस्था के जरिये आर्यों ने शक्ति के स्रोतों को अपनी भावी पीढ़ी के लिए चिरस्थाई तौर पर आरक्षित करने की परिकल्पना किया था उसका प्रवर्तन गौतम बुद्ध के उदय के एक हज़ार वर्ष पूर्व हुआ था.शुद्धोधन पुत्र सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध के रूप में परिणत प्राचीन विश्व का पहला और सर्वश्रेष्ठ मानवता प्रेमी वर्ण-व्यवस्था द्वारा खड़ी की गई भयावह आर्थिक और सामजिक विषमता देखकर द्रवित हो उठा .उसने पाया बहुसंख्यक लोगों की करुणतर स्थिति तलवार नहीं,धर्मशास्त्त्रों द्वारा थोपी हुई है.धर्मशास्त्रों द्वारा वर्ण-व्यवस्था को ईश्वर सृष्ट प्रचारित किये जाने के कारण शुद्रातिशूद्र बहुजन समाज दैविक-दास में परिणत एवं वीभत्स संतोषबोध का शिकार हो गया है.उसमें निज उन्नति की चाह ही मर चुकी है.धर्म शास्त्रों द्वारा कर्म-संकरता को अधर्म घोषित किये जाने के कारण वह नरक-भय से उन पेशों को अपनाने से डर रहा है,जिसे अपनाकर सुविधाभोगी तबका सुख-समृद्धि का भोग कर रहा है.ऐसे में जरुरत थी एक ऐसे मनोवैज्ञानिक प्रयास की थी जिससे बहुजन ईश्वर-धर्म और आत्मा –परमात्मा के चक्करों से मुक्त हो सके.इसके लिए उन्होंने लोगों को समझाया-'किसी बात पर,चाहे किसी धर्म-ग्रन्थ में लिखा हो या किसी बड़े आदमी ने कही हो,अथवा धर्मगुरु ने कही हो ,बिना सोचे समझे विश्वास मत करो.उसे सुनकर उस पर विचार करके देखो ,यदि वह तुम्हारे कल्याण के लिए हो ,समाज और देश के लिए कल्याणकारी हो ,तभी उसे मानो,अन्यथा त्याग दो और 'अपना दीपक खुद बनो'.धर्म शास्त्रों और ईश्वर से वंचितों को मुक्त करने लिए तमाम धर्मो के प्रवर्तकों में सिर्फ गौतम बुद्ध ही ऐसी साहसिक वाणी इसलिए उच्चारित कर सके क्योकि वे खुद को 'मोक्षदाता' नहीं 'मार्गदाता' मानते थे.प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् डॉ.अंगने लाल के शब्दों में उनका 'अप्प डिपो भव' सन्देश बौद्ध धर्म के आर्थिक दर्शन का आधार स्तम्भ है.
गौतम बुद्ध का उपरोक्त प्रयास महज़ उपदेश देने तक सिमित नहीं रहा.यह उनके लिए एक मिशन था और इसके लिए उन्होंने पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं(भिक्षुओं) की फौज खड़ी की .इस मिशन को अंजाम तक पहुँचाने के लिए ही धरती की छाती पर पहली बार सन्यासिनियों का संघ(भिक्षुणी संघ) वजूद में आया.इन संघों को चलने के लिए विपुल धन की जरुरत थी.अपने सम्मोहनकारी व्यक्तित्व और राज परिवार का सदस्य होने के कारण धन संग्रह हेतु तत्कालीन राजाओं,धन्नासेठों और साहूकारों को सहमत करने में तथागत को कोई दिक्कत ही नहीं हुई .उनके प्रयास से कोटि-कोटि स्वर्ण-मुद्रा,बेहिसाब धन और भू-सम्पदा संघों में जमा हुई.पर,उस सम्पदा पर व्यक्तिगत स्वामित्व निषेध रहा.बुद्ध का मानना था व्यक्तिगत सम्पति ही वंचना ,शोषण का कारण है.इसलिए उन्होंने हजारों बौद्ध संघों के लाखों भिक्षुओं के मध्य व्यक्तिगत संपत्ति की सृष्टि वर्जित कर रखी थी.सुई-धागा ,भिक्षा की कटोरी और दो टुकड़ा चीवर से अधिक सम्पति का स्वामित्व किसी को भिक्षु को सुलभ नहीं था.राजतांत्रिक नहीं गणतांत्रिक पद्धति से परिचालित होते थे संघ.आधुनिक साम्यवाद के उदय के दो हज़ार वर्ष पूर्व विश्व के प्रथम साम्यवादी गौतम बुद्ध के सौजन्य साम्यवाद की स्थापना हुई थी जहा संघ की विपुल सम्पदा पर व्यक्तिगत नहीं,समग्र समाज का अधिकार रहा.
वैदिकोत्तर भारत में आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के लिए बुद्ध द्वारा लिया गया विराट संगठित प्रयास रंग लाया जिसके फलस्वरूप वर्ण-व्यवस्था में शिथिलता आई.वर्ण-व्यवस्था में शिथिलता के परिणामस्वरूप पेशों की विचलनशीलता (प्रोफेशनल मोबिलिटी) में बाढ़ आई.धर्म शास्त्रों से भयमुक्त बहुजन अब उन पेशों को स्वतः-स्फूर्त रूप से अपनाने में आगे आये जो सिर्फ वैदिकों के वंशधरों के लिए आरक्षित थे.फलतः निःशुल्क दास के रूप में परिणत बहुजन नए जोश के साथ उद्योग-व्यापार ,कला-संस्कृति के क्षेत्र में अपना सर्वोत्तम देने और अपनी पतिभा का लोहा मनवाने की दिशा में आगे बढे.अब राष्ट्र को मिला विशाल मानव संसाधन.सकल जनता की प्रचेष्टा और प्रतियोगिता की यौथशक्ति बनी समाज और राष्ट्र के उत्थान का कारक. वैदिकों से अवहेलित दलित-बहुजन समाज बुद्ध प्रदत समत्व के अधिकार से समृद्ध होकर हाथ में उठा लिया हसुआ-हथौड़ी,हल और पोथी,तलवार और तूलिका तथा स्थापित कर डाला विशाल साम्राज्य.इस क्रम में भारत ने उद्योग-व्यापार,ज्ञान –विज्ञान,कला-संस्कृति में अंतरराष्ट्रीय बुलंदियों को छुवा और बौद्ध –भारत बना भारतीय इतिहास का स्वर्ण काल.
किन्तु देश-प्रेमशून्य विदेशागत आर्यों को इस देश के धर्म को विश्व धर्म;व्यवसाय-वाणिज्य को विश्व-व्यापर;राजनीति को विश्व –राजनीति और विद्यालयों को विश्व-विद्यालयों में परिणत होना अच्छा नहीं लगा.क्योंकि यह सामजिक परिवर्तन नहीं ,सामाजिक क्रांति थी जो हिन्दू-आरक्षण (वर्ण-व्यवस्था) के ध्वंस की बुनियाद पर हुई थी.हिन्दू-आरक्षण के ध्वंस का मतलब सम्पदा-संसाधनों को परंपरागत अल्पजन सुविधाभोगियों के हाथ से निकाल कर शुद्रातिशूद्र बहुजनों के हाथ में ले जाना था.ऐसे में हिन्दू-आरक्षण की पुनर्स्थापना की फिराक में बैठे पुष्यमित्र शुंग ने आखरी बौद्ध राजा,महान सम्राट अशोक के वंशधर बृहद्र्थ की हत्या कर आर्यवादी सत्ता की पुनर्प्रतिष्ठा कर डाली.डॉ.आंबेडकर ने पुष्यमित्र शुंग की गद्दीनशीनी को फ़्रांस की क्रान्ति से भी बड़ी घटना माना है.यह गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति के उलट एक प्रतिक्रांति थी.आम इतिहासकार आंबेडकर की भांति भले ही पुष्यमित्र के राज्यारोहण को दूरगामी परिणाम देनेवाला न मानते हों,पर सभी इस बात से सहमत हैं कि उसने वर्ण-व्यवस्था को दृढतर करने में अपनी सत्ता का भरपूर इस्तेमाल किया.वर्ण-व्यवस्था को दृढतर करने का मतलब यही हुआ कि उसने वर्णवादी आरक्षण को मजबूती प्रदान कर संपदा,संसाधनों,उच्चमान के पेशों में बहुजनों की भागीदारी को पुनः न्यून एवं अल्पजन आर्यों का एकाधिकार स्थापित कर डाला .फलतः बौद्ध भारत गौतम बुद्ध पूर्व की स्थिति में जाने के लिए अभिशप्त हुआ.
दिनांक:20 मई,2013
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