गैर-मार्क्सवादियों से संवाद-14
हिंदू साम्राज्यवाद को अटूट रखने की परिकल्पना
एच एल दुसाध
शक्ति के स्रोतों को अपने वंशधरों के लिए आरक्षित करने की शासकों की स्वाभाविक इच्छा के वशीभूत होकर वैदिककालीन शासक गोष्ठी ने वर्ण-व्यवस्था को जन्म दिया.इसके लिए उन्होंने मानवजाति की सबसे बड़ी कमजोरी पारलौकिक सुख(मोक्ष) को हथियार बनाया.मोक्ष के लिए उन्होंने स्व-धर्म पालन को आवश्यक बताया तथा स्व-धर्म पालन के लिए कर्म-शुद्धता को अत्याज्य कर्तव्य घोषित किया.कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता और कर्म-संकरता की निषेधाज्ञा के फलस्वरूप शुद्रातिशूद्र, जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष अर्जित करने के लिए अध्ययन-अध्यापन,पौरोहित्य,राज्य संचालन,सैन्यवृत्ति,भूस्वामित्व,पशुपालन,व्यवसाय–वाणिज्यादि से विरत रहकर शक्तिसंपन्न तीन उच्च वर्णों की निष्काम सेवा में निमग्न होने के लिए बाध्य हुए.किन्तु वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तक सिर्फ कर्म-संकरता(पेशों की विचलनशीलता) को निषेध घोषित आश्वस्त न हो सके.उन्हें भय था कि दैविक-दास में परिणत की गई मूलनिवासी आबादी सिर्फ नरक -भय से चिरकाल के लिए शक्ति के स्रोतों की वंचना को झेल नहीं सकती.वह संगठित होकर उनको चुनौती दे सकती है.ऐसे में उन्होंने अपने भावी पीढ़ी के सुख ऐश्वर्य के लिए भारतीय समाज को विच्छिन्नता और वैमनस्यता की बुनियाद पर विकसित करने की परिकल्पना की.इसके लिए भ्रातृत्व को बढ़ावा देनेवाले हर स्रोत को रुद्ध किया.भिन्न-भिन्न जाति/वर्णों के विवाह के माध्यम से एक दूसरे के निकट आने पर भ्रातृत्व को बढ़ावा मिल सकता था इसलिए जाति-समिश्रण अर्थात वर्ण-संकरता को महापाप घोषित कर अंतरजातीय विवाह को निषेध कर दिया.सजाति की छोटी-छोटी परिधि में वैवाहिक सम्बन्ध कायम होते रहने के फलस्वरूप भारतीय समाज चूहे की एक-एक बिल के समान असंख्य भागों में बंटने के लिए अभिशप्त हुआ.अपनी इस परिकल्पना को बड़ा आयाम देने के लिए उन्होंने न सिर्फ वर्ण –संकरता को महापाप घोषित किया बल्कि उसकी सृष्टि की हर सम्भावना को निर्मूल करने का उपाय भी किया.
वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तकों ने सजाति के मध्य विवाह को अनिवार्य कर समाज को छोटे-छोटे समूहों में बंटे रहने का सुबंदोवस्त किया ही,उनका जन्मजात सर्वस्वहाराओं से रक्त सम्बन्ध स्थापित न हो पाए ,इसके ही लिए उन्होंने सती,विधवा,बालिका-विवाह बहुपत्निवादी जैसी प्रथाओं को जन्म दिया.सुविधाभोगी वर्ग की महिलाएं और उनके अभिभावक इन प्रथाओं के अनुपालन में स्वतःस्फूर्त से योगदान करते रहें,इसके लिए शास्त्रकारों ने हजारों अश्वमेध यज्ञ के बराबर पुण्य लाभ की प्रतिश्रुति दिया.महापंडित राहुल सांकृत्यायन के मुताबिक सती-प्रथा के अंतर्गत भारत के सुदीर्घ इतिहास में सवा करोड़ नारियों कों अग्निदग्ध करके मारा जा चुका है.इसी तरह विधवा-प्रथा के तहत जहाँ अरबों नारियों कों जिंदा लाश में परिणत किया गया वहीँ कोटी-कोटि बच्चियों कों बालिका-विवाह प्रथा के अंतर्गत बाल्यावस्था से सीधे युवावस्था में प्रविष्ट करा दिया गया.पोलिगामी(बहुपत्निवादी)प्रथा के तहत एक व्यक्ति की पचास-पचास पत्नियों को अपनी यौन कामना कों बर्फ बनाने के लिए कितनी संख्यक नारियों कों अपार यंत्रणा से गुजरना पड़ा होगा,इसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है.
हिंदू साम्राज्यवाद को कायम करने के इरादे से जिस वर्ण-व्यवस्था कों जन्म दिया गया उसकी मात्र यही खराबी नहीं रही कि इसके अंतर्गत वर्ण-संकरता कों महापाप घोषित कर कोटि-कोटि नारियों का निर्मम शोषण;सजाति विवाह के द्वारा विशाल समाज कों छोटे -छोटे टुकड़ों में बंटे रहने के लिए अभिशप्त तथा बहुसंख्यक आबादी कों श्रम-यंत्र में परिणत कर विशाल मानव संसाधन के दुरूपयोग का चूड़ान्त दृष्टान्त स्थापित किया गया.इसका एक भयावह परिणाम यह भी हुआ कि राष्ट्र चिरकाल के लिए प्रतियोगिता विहीन हो गया.पेशों की विचालनशीलता की वर्जना के कारण शिक्षा-संस्कृति और व्यवसाय-वाणिज्यादि किसी भी क्षेत्र में पूरे देश की प्रतिभाओं को मिलजुलकर योग्यता प्रदर्शन का अवसर ही नहीं मिल पाया.प्रतियोगिता का विशाल मंच सजने ही नहीं दिया गया और यह सब हुआ एक योजना के तहत.इस योजना के तहत क्षत्रियों के शस्त्रों के साये में पालित शास्त्रों द्वारा मूलनिवासियों कों अस्त्र स्पर्श वर्जित और शिक्षा निषिद्ध कर प्रतियोगिता का मंच संकुचित कर दिया गया.शस्त्रहीन भारत में शस्त्रसज्जित क्षत्रिय जहां जन-अरण्य के सिंह जैसा आचरण करते रहे वहीँ शिक्षा निषिद्ध बहुजन समाज में मात्र धर्मग्रन्थ बांचने व श्लोकों का उच्चारण करने सक्षम लोग पंडित(ज्ञानी) की पदवी से भूषित हो गए.
चूंकि भारत के 'सिंह' और 'पंडित' एक प्रतियोगिता-शून्य समाज से उठकर क्षमता लाभ किये थे इसलिए उच्चतर पर्याय की प्रतियोगिताओं में बराबर फिसड्डी साबित होते रहे.यही कारण है कि जब शस्त्र-निषिद्ध समाज के 'सिंह' शस्त्र सज्जित समाजों के मोहम्मद बिन कासिम,गजनी,बख्तियारुद्दीन खिलजी,लार्ड क्लाइव इत्यादि से भिड़े तो देश को लंबी गुलामी देने से भिन्न और कुछ न कर सके.इसी तरह शिक्षा निषिद्ध समाज में महज कुछ लिपि ज्ञान और मंत्रोचारण में पारंगत पंडित जब अपने 'पांडित्य ' से मानव-सभ्यता के विकास में योगदान के लिए आगे आये तो 33 करोड़ देवी-देवताओं कों आविष्कृत कर उनकी संतुष्टि के लिए तरह-तरह मन्त्र रचने के सिवाय और कुछ न कर सके.कुदरत के खिलाफ जहिनी जंग छेड़कर मानव सभ्यता के विकास में जो योगदान कोपर्निकस,जिआर्दानो ब्रूनो,गैलेलियो,लिओनार्दो विन्सी,न्यूटन इत्यादि जैसे पश्चिम के मुक्त समाज के पंडितों ने दिया,हिंदू-ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे जन्मजात पंडितों के लिए उसकी कल्पना तक करना भी दुष्कर रहा.
प्रतियोगिताशून्यता का अभिशप्त सिर्फ सामरिक और शिक्षा का ही नहीं बल्कि व्यवसाय-वाणिज्य का क्षेत्र भी रहा.वंश परम्परा से सामरिक और शिक्षा की भांति ही इस क्षेत्र में भी निहायत ही क्षुद्र संख्यक लोग ही प्रतिभा प्रदर्शन के अधिकारी रहे.इसलिए इस क्षेत्र में ऐसी श्रेष्ठतम प्रतिभाओं का उदय न हो सका जो इस्ट इंडिया कंपनी की भांति देश - देशांतर में अपनी व्यवसायिक प्रवीणता का दृष्टान्त स्थापित करतीं.इनकी क़ाबलियत का यह आलम रहा कि सदियों से देश का धन पूंजी में तब्दील होने के लिए तरसता रहा.
बहरहाल वर्ण व्यवस्था के अमरत्व के रास्ते हिंदू-साम्राज्यवाद को अटूट रखने की परिकल्पना के तहत वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तकों ने सती-विधवा-बहुपत्निवादी और बालिका विवाह-प्रथा के साथ अछूत और देवदासी जैसी प्रथाओं को जो जन्म दिया उसके फलस्वरूप इतना विराट सामाजिक समस्यायों का उद्भव हुआ कि परवर्ती काल में वर्ण/जाति के उन्मूलन के लिए मैदान में उतरे तमाम महामानवों की उर्जा ही इनके खात्मे में क्षरित हो गई और वर्णव्यवस्था का कुछ बिगड़ा भी नहीं.दरअसल वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तकों ने उसके निर्माण के पीछे अपनी मनीषा का इतना बेहतरीन इस्तेमाल किया था कि इसकी अमानवीयता को गहराई से महसूस करने वाले अपवाद रूप से कुछ लोगों को छोड़कर, अधिकांश लोग ही गच्चा खा गए और इसका मुख्य पक्ष आर्थिक,उनकी नज़रों से अगोचर रह गया.अगर इसके खिलाफ संघर्ष चलने वाले लोग ,इसके निर्माण के पीछे साम्राज्यवादी-मनोविज्ञान की क्रियाशीलता को समझने की बौद्धिक कवायद करते तो उन्हें स्पष्ट रूप से यह प्रधानतः सम्पदा-ससाधनों और सामाजिक मर्यादा की वितरण-व्यवस्था नज़र आती.फिर तो इसे मुख्य रूप से आर्थिक समस्या मानते हुए वे इससे आक्रांत लोगों(दलित,पिछड़े और महिलाओं) को शक्ति के स्रोतों –आर्थिक,राजनीतिक और धार्मिक- में उनका वाजिब शेयर दिलाने पर अपनी गतिविधियां केंद्रित करते .इससे हिंदू साम्राज्यवाद कब का ध्वस्त हो गया होता तथा राष्ट्र बेहिसाब आर्थिक और सामाजिक विषमता,दलित-पिछड़ा व महिला अशक्तीकरण सहित विच्छिन्नता व पारस्परिक घृणा जैसी कई समस्यायों से मुक्त हो गया होता. लेकिन जो अबतक नहीं हुआ क्या उसकी शुरुवात आज से नहीं की जा सकती?
दिनांक:10 मई,2013
मित्रों! मेरा उपरोक्त लेख 12 मई को देशबंधु में प्रकाशित हुआ था किन्तु विगत दो सप्ताह से 'लैपटॉप' ख़राब रहने के कारण इस लेख से जुड़ी शंकाएं आपके समक्ष नहीं रख पाया.अब मार्क्सवादियों को लेकर आपके समक्ष अपनी शंकाएं रखने का सिलसिला एक बार फिर शुरू कर रहा हूँ.वर्तमान लेख से जुडी अपनी निम्न शंकाएं आपके विचारार्थ रख रहा हूँ.
1-जिस तरह विश्व के प्राचीनतम साम्राज्यवादियों ने अपनी भावी पीढ़ी के लिए शक्ति के तमाम स्रोत चिर-स्थाई तौर पर आरक्षित करने के कुत्सित इरादे से मूलनिवासियों को शक्ति के स्रोतों से दूर रखने के लिए 'कर्म-शुद्धता' तथा उन्हें परस्पर कलहरत व विच्छिन्न रखने के लिए 'वर्ण-शुद्धता' का धार्मिक प्रावधान रचा क्या वैसा जघन्य कार्य विश्व इतिहास में अन्य साम्राज्यवादियों ने अंजाम दिया है?
2-कुछ लोग यह प्रमाणित करने की आप्राण चेष्टा करते हैं कि वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तक आर्य विदेशी नहीं थे.किन्तु जिस तरह शुद्रातिशूद्रों को शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह दूर रखने के साथ ही उनको अच्छा नाम रखने ; देवालयों में घुसकर ईश्वरोपासना करने एवं उनकी स्त्रियों को नाभि के ऊपर वस्त्र धारण करने से रोका गया ,उससे तय है कि देश के शासक समुदाय ने बहुसंख्यक लोगों के साथ घोरतर अनात्मीयता का परिचय दिया है.क्या विदेशी मूल के लोगों को छोड़कर ऐसी अनात्मीयता का परिचय किसी स्वदेशी शासक समुदाय ने दिया है?
3-आप यह बतावें आधी आबादी को आर्थिक,राजनीतिक और धार्मिक क्षेत्र में स्वतंत्र हिस्सेदारी से पूरी तरह वंचित करने के साथ ही जिस तरह अपने साम्राज्यवादी हथियार (वर्ण-व्यवस्था)को अक्षत रखने के लिए हिन्दू-साम्राज्यवादियों ने सती-विधवा-बहुपत्निवादी तथा बालिका विवाह प्रथा के जरिये कोटि-कोटि महिलायों को अग्निदग्ध करने तथा उनकी यौन कामना को बर्फ बनाने का अमानवीय कार्य अंजाम दिया है,वैसा क्या निजहित में विश्व के किसी अन्य साम्राज्यवादी गोष्ठी ने भी किया है?
4-बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि आर्य अपने साथ महिलाओं को लेकर नहीं आये थे.अपनी भावी पीढ़ी के हित में वर्ण-व्यवस्था के अर्थशास्त्र को अटूट रखने के लिए उन्होंने जिस तरह विभिन्न-प्रथाओं के माध्यम से महिलायों का इस्तेमाल किया,उससे क्या इस बात पर मोहर नहीं लग जाती कि वे विदेशी थे ,जिस कारण ही उन्होंने देशीय महिलायों का विशुद्ध दासी के रूप में इस्तेमाल किया?
5-समाज विज्ञानी,समाज सुधारक और साहित्यकार इत्यादि जाति/वर्ण –व्यवस्था की खामी प्रधानतः 'अछूत-प्रथा' में देखते रहे हैं.उनके लिए जाति-उन्मूलन का मतलब अछूत-प्रथा का उन्मूलन मात्र रहा है.किन्तु वर्ण-व्यवस्था में पेशों की विचलनशीलता(professional mobility )के निषेध के रास्ते जिस तरह हजारों साल से विशाल मानव-संसाधन की बर्बादी की गई तथा जिस तरह विभिन्न क्षेत्रों में प्रतियोगिताशून्यता को बढ़ावा देकर प्रतिभाओं के उदय का मार्ग रुद्ध किया गया उस पर उन लोगों ने नहीं के बराबर ध्यान दिया.आप बतायें वर्ण-व्यवस्था के विकरालता की उपेक्षा के पीछे महज उनकी अज्ञानता रही है या कोई षड्यंत्र?
6-अगर उपरोक्त लेख में कर्म व वर्ण-शुद्धता तथा सती-विधवा-बहुपत्निवादी –बालिका विवाह तथा अछूत प्रथा के प्रदर्शित किये गए कुपरिणामों में सच्चाई है तो क्या ऐसा नहीं लगता कि साम्राज्यवाद के खिलाफ संग्राम चलानेवालों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती हिन्दू-साम्राज्यवाद ही रही रही है.किन्तु शुद्रातिशूद्रों को छोड़कर दुनिया की अन्य साम्राज्यवाद विरोधी ताकतों ने इसके खिलाफ कोई संग्राम नहीं चलाया.अंग्रेज भारत में जब पेरियार,शाहूजी,आंबेडकर इत्यादि हिन्दू साम्राज्यवाद के खिलफ संघर्ष चला रहे थे तब मार्क्सवादियों को वह लड़ाई व्यर्थ लग रही थी.आज भूमंडलीकरण के दौर में जब शुद्रातिशूद्र अम्बेडकरवाद से लैस होकर इसके खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ रहे हैं,मार्क्सवादी उन्हें अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ अपनी उर्जा लगाने का उपदेश कर रहे हैं.क्या ऐसा नहीं लगता कि वे हिन्दू-साम्राज्यवाद से वंचितों का ध्यान हटाने के लिए ही ऐसा कर रहे हैं?
तो मित्रों आज इतना ही.मिलते हैं कुछ दिन बाद कुछ नै शकों के साथ.
जय भीम-जय भारत
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