ऊंची विकास दर का मिथक
Author: समयांतर डैस्क Edition : February 2013
चंद्रभूषण
किसी युद्ध का बुनियादी विभ्रम जब अपना जलवा खो दे तो उस युद्ध को समाप्त मान लिया जाना चाहिए – आर्थर मिलर (1915-2005), प्रसिद्ध अमेरिकी नाटककार, डेथ ऑफ अ सेल्समैन के लेखक
जयपुर में आयोजित कांग्रेस के चिंतन शिविर में पार्टी का उपाध्यक्ष बनाए जाने के बाद राहुल गांधी ने अपने भाव विह्वल वक्तव्य में कई बार 'आशा' का जिक्र किया। कैसे अपनी दादी की मृत्यु के बाद टीवी पर अपने पिता का भाषण सुनते हुए उन्हें अंधेरे में आशा की किरण दिखाई दी, और कैसे आज भी 'आशा के बिना कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता।' मणिशंकर अय्यर ने बाद में इसे कांग्रेस का 'ओबामा मूमेंट' कहा, बिना यह विचारे कि उनकी बात से किसी को ओबामा की किताब 'ऑडेसिटी ऑफ होप' की याद आ सकती है, जिससे सुराग लेकर दुनिया भर के नेता अपने संभावित वोटरों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं।
वक्तृत्व गुण अपने हिस्से में न आने के बावजूद आशा का ही एक अलग ढंग का चूरन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी पिछले नौ वर्षों से तैयार करने में जुटे हैं। जिस नियो लिबरल इकनॉमिक्स के वे पुजारी हैं, उसी के एक महंत हेनरी वॉलिक का कहना है- 'जब तक ग्रोथ है, तब तक उम्मीद है, और जब तक उम्मीद है, तब तक लोग इनकम के बड़े-बड़े फासले भी बर्दाश्त कर लेते हैं।' वॉलिक अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के गवर्नर रह चुके हैं, और अभी वे शायद इस बात पर रिसर्च कर रहे हों कि जब ग्रोथ बहुत कम हो और इनकम के फासले बर्दाश्त से बाहर हो रहे हों तब लोगों को कोरी उम्मीद के सहारे खुश रहना कैसे सिखाया जाए।
शायद ऐसी ही कोई रिसर्च राहुल गांधी, मनमोहन सिंह और कांग्रेस के बाकी बड़े नेता भी कर रहे होंगे, वरना 'आशा' नाम की यह चिडिय़ा अगले आम चुनाव से महज एक साल के फासले पर ही आकाश में उड़ती क्यों नजर आती?
पिछले दो सालों में न सिर्फ दिल्ली बल्कि देश के और भी शहरों ने बहुत बड़ी उथल-पुथल देखी है। राजनीति से अक्सर दूर ही रहने वाले लोग दो ऐसे मुद्दों के इर्दगिर्द उमड़कर बाहर आए, जिनका आपस में कोई रिश्ता नहीं है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की धुरी रहे लोगों को बलात्कार विरोधी आंदोलन का कुछ भी सिर-पैर समझ में नहीं आया। सिर्फ एक बात दोनों आंदोलनों में साझा है- व्यवस्था के प्रति अविश्वास। कोई नहीं जानता कि यह अविश्वास आगे किस मुद्दे पर और किस रूप में जाहिर होगा। लेकिन आसार आने वाले दिनों में इसके और ज्यादा मजबूत होने के ही हैं।
चाहे 1977 हो या 1989, मुख्यधारा कहे जाने वाले हलकों और इलाकों में व्यवस्था के खिलाफ अब तक जाहिर हुए हर असंतोष की परिणति संसदीय विपक्ष द्वारा भुना लिए जाने में ही हुई है। लेकिन इस बार के दोनों हल्लों में शामिल लोगों ने जानने की कोशिश तक नहीं की कि संसदीय विपक्ष किस चिडिय़ा का नाम है। व्यवस्था परिवर्तन अगर सिद्धांत रूप में भी देश की किसी राजनीतिक ताकत का अजेंडा हो तो सारे आग्रह छोड़कर उसे इस बात पर गौर करना चाहिए।
ज्यादा उथल-पुथल भरा दौर होगा
आने वाला दौर भारत के लिए बहुत ज्यादा उथल-पुथल भरा साबित होने जा रहा है। कारण? भारत सरकार के पास अगले कई सालों तक ऐसे झुनझुने नहीं रहेंगे, जिन्हें बजाकर लोगों को भरमाया जा सके। न ही मध्यवर्ग को रिझाने के लिए ऊंचे जीडीपी जैसी कोई उपलब्धि उसके हिस्से आने वाली है। छह फीसदी के आसपास का वित्त घाटा, इससे थोड़ी कम ही आर्थिक वृद्धि दर और इससे ज्यादा की मुद्रास्फीति अस्सी के दशक की तिरस्कृत शब्दावली 'हिंदू ग्रोथ रेट' की याद दिला रही है। ऊपर से लगातार घटता निर्यात यह बता रहा है कि भारत को विश्व मंदी के असर से बचा ले जाने के दावे निराधार हैं।
अगले एक-दो महीनों में इंटरनेशनल रेटिंग एजेंसियों के बयान आने लगेंगे। वे भारत के सॉवरेन बॉन्ड्स को जंक स्टेटस देने की बात कह रही हैं। यानी दुनिया के बड़े निवेशकों के लिए यह संदेश कि ग्रीस की तरह भारत में भी पूंजी लगाना उनके लिए खतरे से खाली नहीं है। अभी तक न जाने कितनी बार उनकी ऐसी धमकियां नियो लिबरल सुधारों के लिए दबाव बनाने की चाल साबित हुई हैं। लेकिन अभी भारतीय अर्थव्यवस्था के आंकड़े इतने खराब हैं कि उनकी खोखली धमकी को भी हकीकत की तरह लिया जा सकता है।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अध्येता अभी के दौर को एक युग के अंत की तरह चित्रित कर रहे हैं। जनवरी के आखिरी हफ्ते में दावोस में वल्र्ड इकनॉमिक फोरम के लिए जमा हुए सेंट्रल बैंकरों ने एक सुर से कहा कि उन्हें सरकारों के दबाव में अपनी-अपनी अर्थव्यवस्था की क्षमता से कहीं ज्यादा नोट छापने पड़ रहे हैं और इससे न सिर्फ अलग-अलग देशों की बल्कि पूरी दुनिया की आर्थिक स्थिरता के लिए संकट पैदा हो रहा है।
'ईएमआई' का फेर
दावोस में ये लोग किस चीज के बारे में बात कर रहे हैं? यह कोई अमूर्त चीज है, या हमारी निजी जिंदगी के लिए भी इसका कोई मतलब है? अगर हम गौर से देखें तो सस्ते घरेलू कर्ज, उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था (कंजंप्शन बेस्ड इकॉनमीज और तेज ग्रोथ रेट के भूमंडलीय मिथक के बीच एक सीधा संबंध है। अखबारों में भारत की नौ पर्सेंट से ज्यादा की शाश्वत (किंतु असंभवग ग्रोथ रेट, दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ती भारतीय अरबपतियों की संख्या और जीरो पर्सेंट इंटरेस्ट पर आसान किस्तों में मिलने वाली चीजों और सेवाओं के विज्ञापनों को अलग-अलग करके नहीं पढ़ा जा सकता।
पिछले बारह-पंद्रह सालों से 'ईएमआई' भारत के शहरी कस्बाई समाज का बीज शब्द बना हुआ है। मध्यवर्ग में शामिल या इसमें आने को उतावला शायद एक भी परिवार ऐसा न हो, जिसके यहां मकान, कार, फ्रिज, टीवी या किसी और चीज की ईएमआई न बंधी हुई हो। सस्ते कर्जे पर मौज करने वाली यह व्यवस्था भारत के लिए ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए एक नई चीज है। इसकी शुरुआत करीब तीस साल पहले अमेरिका में रोनाल्ड रीगन और ब्रिटेन में मार्गरेट थैचर के राज में लगभग एक साथ हुई थी। इसके बल पर उन्होंने न सिर्फ अपने अंदरूनी संकट से छुटकारा पाया बल्कि इसे समाजवाद के खिलाफ अपनी ऐतिहासिक लड़ाई में एक अचूक वैचारिक हथियार की तरह भी इस्तेमाल किया।
भारत में 1991 के बाद से मुख्यधारा की सारी पार्टियों में इसे लेकर कभी कोई असहमति नहीं नजर आई है, लेकिन यहां इसका जोर आजमाने में सरकारों को काफी वक्त लग गया। अपने यहां इसका जिक्र काफी पहले से चल रहा था, मगर नेहरूवियन अर्थव्यवस्था के बचे-खुचे असर में भारतीय शासक इसे आजमाने में हिचकते थे। आधा तीतर आधा बटेर की तर्ज पर लाए गए सुधारों के शिकार न जाने कितने सरकारी बैंक यहां बकरी और मुर्गी के लिए लोन बांटकर दिवालिएपन के कगार पर खड़े थे। ज्यादातर बैंकों को देश के बड़े पूंजीपतियों ने चूना लगा रखा था और सारे बदलावों के बावजूद आज भी लगा रहे हैं। ऐसे में सस्ते और आसान कर्ज की अर्थव्यवस्था कहीं देश के पूरे बैंकिंग सिस्टम को ही लेकर न डूब जाए, इस डर से उनके प्राण सूखे हुए थे।
लेकिन यह स्थिति नहीं बदलती तो भारत में अमेरिका के कंप्यूटर, जापान और दक्षिण कोरिया की गाडिय़ां, इलेक्ट्रॉनिक सामान और जर्मनी के नफीस इलेक्ट्रिकल गैजेट्स कैसे बिकते? यही नहीं, सिर्फ पर्चियां काटकर जीने वाली अमेरिका की फाइनेंस-बेस्ड इकॉनमी की दाल यहां कैसे गलती, उसके बैंकों और बीमा कंपनियों को यहां कौन पूछता? लिहाजा एनडीए के राज में बड़ी तेजी से व्यवस्थाएं बदली गईं और 2001 में अमेरिका पर हुए आतंकी हमलों के बाद राष्ट्रपति बुश के दबाव पर पूरी दुनिया में बने आक्रामक नियो-लिबरल माहौल में पूरी ताकत से भारत में सस्ते और आसान कर्ज पर टिकी ईएमआई अर्थव्यवस्था की आवक हुई। इसके व्यापक (मैक्रो-इकोनॉमिकग निहितार्थ क्या होंगे, इस बारे में भारत के नीति निर्धारकों में शायद ही कोई गंभीर विचार-विमर्श हुआ हो, लेकिन डबल-डिप रिसेशन के खौफ में जी रही विकसित दुनिया इसे कुछ और ही नजर से देख रही है।
हाई ग्रोथ रेट का विभ्रम
अमेरिका में फाइनेंशियल डेरिवेटिव्स के बड़े जानकारों में गिने जाने वाले और चर्चित किताब एक्सट्रीम मनी के लेखक सत्यजित दास एक जगह लिखते हैं- 'पिछले तीस सालों में इकॉनमिक ग्रोथ का एक बड़ा हिस्सा फिनांशियलाइजेशन पर आधारित है। पहले आर्थिक वृद्धि का आधार जनसंख्या वृद्धि, नए बाजारों नई तकनीकों की खोज और उत्पादकता में वृद्धि को माना जाता था। लेकिन ये सब अब किनारे हो गए हैं और कर्ज पर टिका उपभोग आर्थिक वृद्धि का एकमात्र प्रेरक तत्व बन गया है। लेकिन यह प्रक्रिया अपनी जगह से आगे बढऩे के लिए और-और ज्यादा कर्जों की मांग करती है। चीन में अब से दस साल पहले एक डॉलर की आर्थिक वृद्धि के लिए एक से दो डॉलर के कर्ज की जरूरत पड़ती थी, लेकिन अभी इसके लिए छह से आठ डॉलर का कर्ज उठाना पड़ रहा है। …कर्ज लेने का स्तर अब संसार की सभी अर्थव्यवस्थाओं की क्षमता से बाहर जा रहा है, लिहाजा कर्ज आधारित आर्थिक वृद्धि का दौर अब शायद समाप्त होने के कगार पर है।'
सत्यजित दास से क्षमायाचना करते हुए उनके इसी लेख से ब्रिटिश इतिहासकार नियाल फर्गुसन का एक उद्धरण यहां प्रस्तुत है, क्योंकि यहां जो बात मुझे कहनी है, उसके साथ इसका एक सीधा रिश्ता जुड़ता है- 'आर्थिक अस्थिरता मायने रखती है क्योंकि यह सामाजिक टकराव बढ़ाने वाली साबित होती है। …राजनीतिक वर्चस्व वाले तबके इससे तालमेल बिठाने का सारा बोझ दूसरों के कंधों पर डाल देते हैं। …तेज वृद्धि के दौर अपने पीछे सामाजिक विस्थापन भी लेकर आते हैं क्योंकि सभी को वृद्धि का समान लाभ कभी नहीं मिलता।' योरोप के कम से कम चार देशों- ग्रीस, स्पेन, पुर्तगाल और आयरलैंड में (और एक हद तक इटली में भी) मध्यवर्ग का घर-बार बिकना, जवान बाल-बच्चों का बेरोजगार भटकना शुरू हो चुका है, लिहाजा 'सामाजिक विस्थापन' को कोई दूर की कौड़ी नहीं माना जा सकता।
नीचे से ऊपर तक कर्ज पर टिकी हाई ग्रोथ रेट ही शायद हमारे दौर का बुनियादी विभ्रम (बेसिक इल्यूजन) है। इसका घिसना, छीजना, कुंद होना और बिखर जाना ही शायद पिछले तीस वर्षों से जारी उस युग का अंत है, जिसमें हमने अब तक सांस ली है, और गलती से जिसे शाश्वत मानने लगे हैं। लेख में सबसे ऊपर दिए गए आर्थर मिलर के उद्धरण को कृपया इसी रोशनी में पढ़ा जाए।
व्यवहार के मोर्चे पर तैयारी करे वामपंथ
ऐतिहासिक रूप से वामपंथ अपने सामने दो एजेंडे रखता आया है। यूं कहें कि दो तरह के सोशल प्रोजेक्ट उसके जिम्मे रहे हैं। एक- शोषित, उत्पीडि़त, उपेक्षित तबकों के हर दुख-सुख में उनके साथ खड़े होना, उनकी जुबान, उनका पक्ष बनना। और दो- एक ऐसी दुनिया, ऐसा समाज बनाने का प्रयास करना, जिसमें संगठित शोषण और उत्पीडऩ के लिए कोई जगह न हो। व्यवहार में ये दोनों एजेंडे निरंतर धुंधले होते गए हैं और वामपंथी पार्टियों की पहचान थोड़ा अलग नारों और चेहरे-मोहरे वाली किसी आम राजनीतिक पार्टी जैसी ही बन गई है। लेकिन यह कोई नियति जैसी चीज नहीं है।
समय-समय पर वाम दलों की भूमिका बदलती रही है और इतिहास के किसी तीखे मोड़ पर यथास्थिति का अंग बन गई वाम पार्टियों की जगह लेने के लिए बिल्कुल नई वाम ताकतें भी सामने आती रही हैं। अभी का, या आने वाले कुछ सालों का माहौल इन दोनों ही नजरियों से वामपंथ के लिए जरखेज साबित हो सकता है। ग्रीस में साठ-सत्तर के दशक में हुए दमन के बाद बिल्कुल हाशिये पर डाल दिया गया वामपंथ वहां अचानक अपनी राख से जिंदा हो उठा है। जितने वोट उसे पिछले चुनाव में मिले हैं, उससे तो यही लगता है कि ग्रीस की जनता उसमें अपने लिए आजादी की किरण देखने लगी है। क्या भारतीय वामपंथ निकट भविष्य में अपने सामने वाली ऐसी किसी स्थिति के लिए खुद को तैयार कर रहा है?
उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के प्रारंभ की तरह कम्युनिज्म को मानव मुक्ति के दर्शन की तरह समझने-समझाने का अजेंडा अभी दूर चला गया है और उसे दोबारा पकड़ में लाने के लिए बहुत सारा सैद्धांतिक काम करने की जरूरत है। लेकिन खुले दिमाग से सोचने पर तो कोई पाबंदी नहीं है। अमेरिका समेत पूरी दुनिया में पूंजीवाद के मौजूदा संकट को ध्यान में रखते हुए बहुत सारे विकल्पों पर विचार-विमर्श चल रहा है। भारतीय कम्युनिस्टों को भी अपनी पूरी ऊर्जा के साथ, अपनी जड़ें जमीन में रखते हुए इस विमर्श का हिस्सा बनना चाहिए। हमेशा इससे कुछ नया सीखने को तैयार रहना चाहिए और इसमें अपना योगदान भी करना चाहिए।
लेकिन इससे ज्यादा बड़ी तैयारी व्यवहार के मोर्चे पर की जानी चाहिए, क्योंकि ग्रोथ की मुख्यधारा में शामिल कई तबकों को अभी के माहौल में अपने मंच, अपने संगठन और अपने संघर्ष की जरूरत महसूस हो रही है। वामपंथ को अपना दायरा अपने पारंपरिक प्रभाव वाले वर्गों से आगे ले जाने की भरपूर तैयारी करनी चाहिए, इसके लिए अपने कैडर डिप्यूट करने चाहिए और नए उत्पादक वर्गों में अपने हमदर्दों और पार्टटाइम कार्यकताओं की बड़ी कतार खड़ी करनी चाहिए। हम एक मुहावरे के तौर पर 'क्रांतिकारी उभार' की बात हमेशा करते रहे हैं, लेकिन हमारे बिना भी यह उभार कैसा होता है, इसे देखने का मौका शायद हमें अगले दो-तीन वर्षों में ही मिल जाए।
(चंद्रभूषण कवि और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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