BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Thursday, February 28, 2008

राष्ट्रहित में थीं शिवाजी की नीतियाँ

राष्ट्रहित में थीं शिवाजी की नीतियाँ
शिवाजी जयंती पर विशेष
-विके डांगे
अर्थनीति का सार राजनीति व राज्य का सामर्थ्य कोष के आधार से होता है, यह सर्वज्ञात है। राज्य की आर्थिक स्थिति अच्छी तो राज्य की सेना भी संतुष्ट व सक्षम होती है, परंतु आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करना सामान्य काम नहीं है। भारत में 17वीं शताब्दी में राज्यकोष प्राप्तियाँ कृषि राजस्व, व्यापार-कर, युद्ध में लूट व नगरों की लूट- इन चार मार्गों से मुख्यतः होती थीं।

इसमें कृषि राजस्व प्रायः कभी भी सीधे किसानों से न आकर बड़े जागीरदारों से आता था, जो राजस्व वसूली के लिए, राज्य के प्रति उत्तरदायी थे। भारत में प्रायः सभी राज्यों में यह प्रथा थी। यह प्रथा दीर्घावधि तक कायम रहने का कारण यह था कि राज्य को प्रत्येक कृषक से अलग-अलग राजस्व वसूल न करना पड़ता था व राज्य के पास एकमुश्त रकम आती थी।

जागीरदार (वतनदार) अपने क्षेत्र में कानून व व्यवस्था के लिए भी जिम्मेदार रहता था, परंतु इस व्यवस्था में यह दोष था कि इन 'वतनदारों' का 'राज्य के अंदर राज्य' इस स्वरूप की थी- मूल राज्य सत्ता को न मानना, विद्रोह करना व प्रसंगवश गद्दारी करना, ये दुष्कर्म प्रायः होते थे।

इसके अतिरिक्त एक बड़ा दोष इस व्यवस्था में यह था कि वतनदार अपनी आर्थिक व सैनिक स्थिति द्वारा राज-सत्ता के निर्णयों को प्रभावित करते थे और सबसे बड़ा दोष यह था कि सामान्य कृषक प्रजा का राज्य से सीधा संपर्क नहीं रहता था।

शिवाजी के प्रशासनिक गुरु दादोजी कोंडदेव ने यह ढाँचा बदल दिया- वतनदारियाँ कम की गईं व प्रजा से सीधे कर वसूली की व्यवस्था की गई। इससे प्रजा के कष्टों की सुनवाई सरल होकर राज्य व प्रजा के संबंध स्नेहपूर्ण व दृढ़ हुए। इस ढाँचे को शिवाजी ने और भी दृढ़ बनाया।

योरप में 15वीं-16वीं शताब्दी में यह नई आर्थिक वृत्ति बन रही थी कि राज्य का आर्थिक सामर्थ्य व राजस्व का स्रोत बड़े वतनदार/ जागीदार/ भू-स्वामी आदि न होकर, व्यापारी वर्ग होना चाहिए, क्योंकि इन वतनदारों-जागीरदारों से सत्ताधीश भी कम परेशान न थे।

इस स्थिति का अप्रत्यक्ष प्रभाव भारत में भी हुआ। शिवाजीकालीन 'आज्ञापत्रों' में, 'साहूकार विषयक राजनीति (अर्थनीति)'- एक स्वतंत्र अध्याय है; यहाँ साहूकार शब्द से, केवल ब्याज का व्यवसाय करने वाला, यह तात्पर्य मात्र न होकर, व्यापार करने वाला, यह अर्थ भी है। केवल कृषि राजस्व पर निर्भर न रहकर, व्यापार को प्रोत्साहित करके, व्यापारिक कर के रूप में राजस्व प्राप्ति से कोष भरने की नई व्यवस्था शिवाजी ने स्थापित की।

यह व्यवस्था योरप में 16वीं शताब्दी में प्रारंभ हो चुकी थी। वहाँ अर्थव्यवस्था में कृषि-राजस्व से व्यापार-राजस्व का महत्व बढ़ गया था। साहूकारों व व्यापारियों को प्रोत्साहन व राजाश्रय देकर राज्य के सम्मान व संपत्ति में वृद्धि होगी, यह दूरदर्शिता शिवाजी ने दिखाई। राज्य के हित में आर्थिक रूप से निष्क्रिय वतनदारों से सक्रिय व्यापारियों द्वारा अधिक योगदान हो सकेगा, यह उन्होंने जान लिया था।

आज्ञापत्रों में कहा गया है 'साहूकार यानी राज्य व राज्यश्री की शोभा है। इनसे (साहूकारों से) राज्य आबाद (बस्तीवाला) होता है। जो वस्तुजात हमारे यहाँ नहीं मिलती वह दूर से आती है। कठिन प्रसंगों पर कर्ज (ऋण) प्राप्त होकर संकट निवारण होता है।'

साहूकारों के साथ राज्य कर्मचारियों का व्यवहार अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण हो, यह कहा गया है। साहूकार को दी सुरक्षा से बहुत फायदा है। अतः साहूकार का बहुमान करें व उसे किसी तरह 'जलाल' (जलील) अथवा अपमानित न करें। साहूकारों व व्यापारियों को बुलाकर बाजार/ मंडी ('पेठ') बसाएँ।

शासकीय बाजार में भी बड़े-बड़े साहूकारों को बसाएँ। वार्षिक उत्सव व विवाहादि प्रसंगों पर उनकी योग्यतानुसार उन्हें प्रतिष्ठापूर्वक बुलाएँ व वस्त्र-पात्रादि देकर उन्हें सम्मानित करें। अन्य मुल्कों में जो साहूकार होंगे, उन्हें प्रेमपूर्वक बसाहट हेतु बुलाएँ।

इससे यह स्पष्ट होता है कि शिवाजी कितने दूरदर्शी थे- खासकर अँग्रेजों पर उनकी कड़ी निगाह थी। व्यापारी राजनीति में न पड़ें, यह सिद्धांत अँग्रेजों ने शिवाजी के विषय में भंग किया। जेजिरा (मुंबई से 45 मील दक्षिण में) के सिद्दी, बीजापुर की आदिलशाही व औरंगजेब इन्हें अँग्रेज शिवाजी के विरुद्ध खुली व छुपी मदद देते थे, इसीलिए शिवाजी ने अँग्रेजों की राजापुर छावनी लूटी व उन्हें राज्य से बाहर किया (1664)। अँग्रेजों का प्रादुर्भाव-प्रभाव बढ़ने के सौ वर्ष पूर्व ही उनके इरादों को भाँपना यह शिवाजी की कूटनीतिक सफलता थी।

आधुनिक समय के संदर्भ में भारत में विदेशी व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश संबंधी यह नीति अत्यंत महत्वपूर्ण है। यदि व्यापारिक संबंध बढ़ाना है, तो विदेशी कंपनियाँ तो भारत में आएँगी ही, परंतु उन्हें कितना निकट या दूर रखना, यह निर्णय उनके राजकीय इरादों को भाँपकर ही किया जा सकता है। हमें भारतीय व विदेशी कंपनियों के बीच राष्ट्रहित का विचार करके अंतर करना ही होगा।

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