आर्थिक वृद्धि धीमी पड़ने पर चिंता नई दिल्ली-वर्ष 2007-08 की आर्थिक समीक्षा में रुपए की मजबूती और औद्योगिक माँग में आती गिरावट पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया है कि 10 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि के लक्ष्य के लिए नए सुधारों को आगे बढ़ाने की जरुरत है।
संसद के दोंनों सदनों में गुरुवार को रखी गई आर्थिक समीक्षा में वर्ष 2007-08 में 8.7 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि होने का अनुमान लगाया गया है जबकि पिछले वर्ष वृद्धि दर 9.6 प्रतिशत थी। समीक्षा में 8.7 प्रतिशत की वृद्धि दर को अर्थव्यवस्था के रुझान के अनुरुप बताया गया है लेकिन इसमें कहा गया है कि वृद्धि की धीमी गति को देखते हुए ऐसा लगता है कि अर्थव्यवस्था नई तरह की चुनौतियों के लिए पहले से तैयार नहीं थी।
समीक्षा में अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मंदी के दौर, रुपए की मजबूती के प्रभावों, उपभोक्ता सामानों की माँग घटने से औद्योगिक उत्पादन धीमा पड़ने और भौतिक एवं सामाजिक क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं की तंगी पर चिंता व्यक्त करते हुए इस दिशा में कदम आगे बढ़ाने पर जोर दिया गया है।
समीक्षा में कहा गया है कि केन्द्र और राज्यों के स्तर पर व्याप्त चुनौतियों से निपटने की आवश्यकता है। केन्द्र सरकार को उपयुक्त नीतियों और महँगाई पर अंकुश रखने वाली वृद्धि का मार्ग प्रशस्त करते हुए अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करना चाहिए तो राज्यों को अपनी सरकारी और अर्धसरकारी व्यवस्थाओं और सेवाओं में सुधार लाना चाहिए।
इसमें स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि राज्यों को विभिन्न सेवाओं और कार्यों को निजी हाथों में सौंप देना चाहिए। समीक्षा कहती है कि ऐसे कार्य जो निजी संगठन अच्छे ढंग से कर सकते हैं उन्हें राज्यों को छोड़ देना चाहिए। तभी वह अपने नागरिकों को बेहतर सेवाएँ दे सकते हैं।
वित्त मंत्री पी चिदंबरम द्वारा प्रस्तुत आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि आर्थिक वृद्धि को 10 प्रतिशत ले जाने के लिए केन्द्र और योजना आयोग दोनों को ही कुछ क्षेत्रों में नीतियों और संस्थागत सुधारों के लिए आगे आना चाहिए ताकि आने वाले कई दशकों तक उच्च आर्थिक वृद्धि की नींव रखी जा सके।
समीक्षा में सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में सरकारी प्रणाली की खामियों को उजागर किया गया है।
राज्य सरकारों पर निशाना साधते हुए कहा गया है कि आखिरी मुकाम पर जब वे व्यक्तियों और एजेंटों के सम्मुख होती हैं, उनकी कार्यप्रणाली वृद्धि दर को बढ़ाने में सबसे बड़ी बाधा नजर आती है। इसमें राज्यों के स्तर पर योजनाओं के मूल्यांकन और आकलन पर जोर दिया गया है। इसमें कहा गया है कि इन योजनाओं की अच्छी मंशा होने के बावजूद आपूर्ति प्रणालियाँ कमजोर हैं और जरुरतमंदों तक पूरी तरह नहीं पहुँच पाती हैं।
समीक्षा कहती है कि 11 वीं पंचवर्षीय योजना में सामाजिक कार्यों पर व्यय में भारी वृद्धि को देखते हुए केन्द्र सरकार को सभी योजनाओं के मूल्यांकन की अपनी प्रणाली को मजबूत बनाना चाहिए। साथ ही राज्य सरकारों को भी योजनाओं की निगरानी और सुद्ढीकरण में मदद करना चाहिए।
समीक्षा में कहा गया है कि गेहूँ, दालों और खाद्य तेलों की कीमतों में वृद्धि मुख्यतया माँग के मुकाबले घरेलू आपूर्ति में कमी होने के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इनके भावों के बढ़ने के कारण हुई है। महँगाई की दर जो पिछले साल मार्च में 6.6 प्रतिशत की ऊँचाई पर पहुँच गई थी, राजकोषीय, प्रशासनिक और मौद्रिक उपायों के साथ साथ गेहूँ दालों और खाद्य तेलों की अच्छी उपलब्धता से इसे नीचे लाने में खासी मदद मिली है।
समीक्षा में कहा गया है कि उच्च मुद्रास्फीति से गरीब प्रभावित होते हैं। ब्याज दरों पर दबाव से बचत तथा निवेश दोनों पर प्रतिकूल असर पड़ता है और इसे ध्यान में रखकर सरकार मुद्रास्फीति को काबू में रखने को सर्वोच्च प्राथमिकता देती है।
घरेलू बाजार में आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में आए उछाल का जिक्र करते हुए समीक्षा में कहा गया है कि इसका मुख्य कारण पिछले महीनों में बना रहा स्फीतिकारी दबाव और माँग एवं आपूर्ति में असंतुलन था।
समीक्षा में कहा गया है कि 2006-07 में गेहूँ, दालों तथा खाद्य तेलों की घरेलू उपलब्धता में कमी से असंतुलन और बढ़ गया। गेहूँ का उत्पादन 2004-06 के दौरान औसतन छह करोड़ 90 लाख टन रहा। कम उत्पादन से सरकार की खरीद कम हुई जिससे भंडारण में गिरावट आई और इन दोनों के मिल जाने के परिणामस्वरुप स्फीतिकारी दबाव बना। वैश्विक उत्पादन और भंडारण में आई गिरावट के कारण यह स्थिति और खराब हो गई।
गेहूँ की कीमतों के बारे में समीक्षा में कहा गया है कि विश्व बाजार में जनवरी-दिसम्बर 2005 के औसतन 136 डॉलर से बढ़ती हुई दिसम्बर 2007 में 345 डॉलर प्रति टन पर पहुँच गई। दालों का उत्पादन डेढ़ करोड़ टन माँग की तुलना में 2004-06 के दौरान औसतन एक करोड़ 32 लाख टन ही रहा। इसी प्रकार तिलहनों के उत्पादन में भी पिछले वित्त वर्ष के दौरान 38 लाख टन की गिरावट रही।
समीक्षा में कहा गया है कि मौद्रिक नीति के जरिए माँग और आपूर्ति में असंतुलन के कारण कीमतों में आए उछाल से स्फीतिकारी संभावनाओं पर काबू पाए जाने की उम्मीद है। इसके अलावा मौद्रिक नीति से पूंजी प्रवाहों में हो रही निरंतर वृद्धि तथा उसके बाद विनिमय दर, विदेशी मुद्रा भंडार तथा नगदी में हुए परिवर्तनों से उत्पन्न दबाव को भी नियंत्रण करना होगा।
विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में आए उछाल का जिक्र करते हुए समीक्षा में कहा गया है कि इससे उर्वरक, ईंधन, लंबी दूरी में वस्तु की परिवहन लागत, एथनाल, मक्का, गन्ना, रैपसीड और अन्य तेल, कपास, कृत्रिम रबर से प्राकृतिक रबर, कोयला, बिजली और गैस आदि वस्तुएँ प्रभावित होती हैं।
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