BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Thursday, February 28, 2008

'रोजगार गारंटी' में भ्रष्‍टाचार का ब्रेक

'रोजगार गारंटी' में भ्रष्‍टाचार का ब्रेक

-मिथिलेश कुमार
केन्‍द्र की संप्रग सरकार के महत्‍वाकांक्षी राष्‍ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम का एक अप्रैल 2008 से देश के बाकी सभी जिलों में विस्‍तार किया जाएगा।

दो वर्षों के अल्‍प समय में इस योजना को पूरे देश में लागू किया जाना सरकार का एक महत्‍वपूर्ण उपलब्‍धि होगी। क्‍योंकि योजना बनाए जाने के पहले इसकी काफी आलोचना की गई थी, जिसमें योजना के लिए धन कहाँ से आएगा, यह सबसे बड़ा सवाल था?

सरकार ने योजना के लिए पर्याप्‍त धन उपलब्‍ध कराकर अपनी प्रतिबद्धता दिखा दी है। यह अकेली ऐसी योजना है, जिसने ढाई करोड़ से ज्‍यादा लोगों को रोजगार मुहैया कराया है। भले ही इसकी सीमाएँ हैं। यह मात्र 100 दिन के रोजगार की गारंटी देता है। अभी तक केवल 330 जिलों के लोग ही इसका लाभ उठा पाए हैं, लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद भारी भ्रष्‍टाचार की शिकायतों का दौर नहीं थमा है, जो योजना के शुरुआती समय से ही उठता रहा है।

ग्रामीण क्षेत्र के असंगठित मजदूरों के हित में कदम उठाने के लिए राष्‍ट्रीय सलाहकार परिषद ने दो साल चली व्‍यापक बहस के बाद राष्‍ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी का मसौदा तैयार किया था। इस योजना को 2 फरवरी 2006 को देश के 200 चुनिंदा जिलों में शुरू किया गया था, जिसमें अगले वर्ष और 130 जिलों को शामिल किया गया। अब इन दो सालों में जो नतीजे मिले हैं, उसे देखते हुए ही इसे देश के बाकी सभी जिलों में लागू किए जाने का फैसला किया गया है।

यह अधिनियम 7 सितंबर 2005 को इस उम्‍मीद से अधिसूचित किया गया कि अकुशल शारीरिक श्रम के इच्‍छुक प्रत्‍येक परिवार के वयस्‍क सदस्‍यों को वित्तीय वर्ष में कम से कम सौ दिन का रोजगार मुहैया कराने की गारंटी दी जाएगी।

सरकार ने इस योजना के 2 वर्ष पूरे होने पर इसकी सफलता के जो दावे किए हैं, उसे मानें तो वर्ष 2007-08 के दिसंबर तक 2.57 करोड़ परिवारों को रोजगार दिया गया और इससे रोजगार के 85.51 करोड़ श्रम दिवस सृजित किए गए, जबकि अभी एक तिमाही के आँकड़े आने बाकी है।

इसके पहले 2006-07 में इस योजना में 2.10 करोड़ परिवारों को रोजगार दिया गया था और 90 करोड़ श्रम दिवस सृजित किए गए थे। तब मात्र 200 जिलों के लोगों को इसका लाभ मिला था और इस मद में 8823.35 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे, जबकि वर्तमान वित्त वर्ष में दिसंबर 2007 तक 9105.74 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। योजना के अंतर्गत 13 लाख से अधिक छोटे-बड़े काम कराए गए हैं, जिसमें आधे से अधिक जल संरक्षण से संबंधित कार्य हैं।

काम पाने में महिलाओं की हिस्‍सेदारी भी उल्‍लेखनीय रही है। 2006-07 में इस योजना में महिलाओं की भागीदारी 41 प्रतिशत थी, वह चालू वर्ष में 44 प्रतिशत हो गई है। योजना से लाभान्‍वित होने वालों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की हिस्‍सेदारी भी वर्ष 2006-07 में 61.79 प्रतिशत थी, वह चालू वर्ष में 58.29 प्रतिशत रही है। इसे और भी बढ़ाया जा सकता है और इसमें सिविल सोसायटी संगठनों की भूमिका और उल्‍लेखनीय हो सकती है। ये संगठन राष्‍ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 के अंतर्गत समुदायों को अपने अधिकारों के प्रयोग के प्रति जागरूक बना सकते हैं।

भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय के हाल ही में जारी रिपोर्ट कार्ड के अनुसार, गुजरात, हरियाणा, महाराष्‍ट्र, मेघालय, पंजाब और तमिलनाडु ने तो रोजगार की माँग करने वाले सभी परिवारों को रोजगार उपलब्‍ध कराया है। महाराष्‍ट्र में उपलब्‍ध 44678.41 लाख रुपए की निधि में से 9877.46 लाख रुपए व्‍यय करके काम माँगने वाले सभी लोगों को रोजगार उपलब्‍ध करा दिया है जबकि कुल 8110 कार्यों में से अभी मात्र 1397 कार्य पूरे किए गए हैं, शेष कार्य चल रहे हैं।

इसी तरह पंजाब में योजना के लिए उपलब्‍ध 4339.68 लाख रुपए की निधि में से 1277.74 लाख रुपए व्‍यय कर 701 कार्य पूरे किए गए हैं। जबकि इससे अधिक कार्य चल रहे हैं।

हालाँकि पूर्वोतर राज्‍यों में योजना ने अपेक्षा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं किया है। मणिपुर में रोजगार की माँग करने वालों में अधिकांश को रोजगार तो उपलब्‍ध करा दिया गया है, लेकिन वहाँ चल रहे 1232 कार्यों में से 2 कार्य ही पूरे हो सके हैं। नगालैंड में चल रहे 102 कार्यों में एक भी पूरा नहीं हुआ है और उपलब्‍ध 2309.72 लाख रुपए में से अभी 327.84 लाख रुपए खर्च हुए हैं। जाहिर है वहाँ पूरी राशि व्यय नहीं हो पाएगी। वैसे सरकार को इन राज्‍यों की समीक्षा करनी चाहिए।

योजना के लिए वित्तीय मदद में 90 फीसदी केन्‍द्र सरकार और शेष 10 फीसदी राज्‍य सरकार को वहन करना होता है। इसमें अधिकांश राज्‍य सरकार के खर्च का ब्‍योरा बताता है कि पिछड़े माने जाने वाले राज्‍यों की सरकारों ने भी अपनी हिस्‍सेदारी में कोताही नहीं बरती है।

केरल, आंध्रप्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, प. बंगाल और अन्‍य राज्‍यों में इस योजना के तहत काम करने वालों की मजदूरी के भुगतान में पारदर्शिता के लिए बैंकों और डाकघरों में 64 लाख खाते खोले गए हैं। राज्‍य और केन्‍द्र सरकारों के वरिष्‍ठ अधिकारियों द्वारा तथा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा कार्यों की गहन जाँच की जा रही है। परियोजना के नियोजन, कार्यान्‍वयन और निगरानी में ग्राम पंचायतों, मध्‍य स्‍तरीय पंचायतों ओर जिला पंचायतों को शामिल किया गया है ताकि वे ही योजनाएँ बनाएँ और उनका क्रियान्‍वयन किया करें।

सरकार इसे ग्रामीण श्रमिकों के लिए पूरक मजदूरी आय के रूप में प्रचारित कर रही है। क्‍या वाकई इस पूरक मजदूरी से ग्रामीणों की आय में अंतर आ पाया है? इसका कोई अध्‍ययन सामने लाया जाना चाहिए। इस योजना से जुड़ने के बाद किसी बेरोजगार आदमी के जीवन में किस तरह की आर्थिक उन्‍नति हुई है।

आँकड़ों की हकीकत के बीच आलोचनाएँ : मध्‍यप्रदेश में रोजगार गारंटी को लेकर खुशी का माहौल है। राज्‍य सरकार की जहाँ देशभर में सबसे अधिक रोजगार उपलब्‍ध कराने को लेकर बाँछें खिली हुई हैं, वहीं लोगों के सामने भी इस मिथ्या को बढ़ा-चढ़ाकर परोसा जा रहा है। असल में हकीकत इससे कोसों दूर है।

भारत सरकार द्वारा जारी रिपोर्ट कार्ड में मध्‍यप्रदेश सरकार को अच्‍छा काम करते हुए बताया गया। योजना के लिए कार्य पर व्‍यय करने, पूर्ण करने और श्रम दिवस सृजित करने में मध्‍यप्रदेश अव्‍वल रहा है लेकिन भोजन का अधिकार अभियान की प्रदेश इकाई ने अपने अध्‍ययन रिपोर्ट में कई खामियाँ गिनाईं, जिनके निराकरण की बात इन दो सालों में बार-बार दोहराई गई हैं।

शिकायतें भी वही जो शुरू से की जा रही हैं- जरूरतमंद ग्रामीण मजदूरों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है। बड़े पैमाने पर अनियमितताएँ बरती जा रही हैं। कार्यस्‍थल पर मजदूरों के लिए बुनियादी सुविधाओं का अभाव पाया गया है। समय पर मजदूरी का भुगतान नहीं हो रहा है।

ग्रामीण विकास मंत्रालय के दावों के उलट कई लोगों को माँगने के ‍बाद भी काम नहीं मिला। जॉब कार्ड में गलत इंट्री करने, बिना काम दिए जॉब कार्ड में काम करने का ब्‍योरा दर्ज करना या 2006 में कराए गए कार्यों का भुगतान अब तक न हो पाना, विकास योजनाएँ के लिए ग्राम सभा की बैठक न बुलाए जाने जैसी शिकायतें मिली हैं।

दिल्‍ली स्‍थित पर्यावरण और खाद्य सुरक्षा केन्‍द्र ने भी उड़ीसा के ग्रामीण इलाकों में अध्‍ययन के दौरान इसी तरह की शिकायतें पाकर सरकार के दावों पर सवालिया निशान लगाया था। राजस्‍थान के झालावाड़ में जनसुनवाई कर रहे अरुणा राय और निखिल डे के सामने भी वही शिकायतें आती हैं जो मध्‍यप्रदेश में इस योजना के संयुक्‍त सचिव एके सिंह के सामने टीकमगढ़, पन्‍ना, छतरपुर या सतना से आए लोग करते हैं।

उत्तरप्रदेश के उरई, जालौन, महोबा या बाँदा में भी योजना की खामियों के मुद्दे अलग नहीं हैं। कहीं फर्जी फर्म के नाम पर बिल बनाकर भुगतान उठा लिए जाने का मामला है तो कहीं एक ही दिन में एक ही जगह पर कराए जा रहे काम के लिए लाए गए सामानों की दर अलग-अलग रसीदों में अलग-अलग पाई गई हैं।

भ्रष्‍टाचार की तमाम शिकायतें जो आ रही हैं। इससे कैसे निपटा जाए, इस अहम सवाल का समाधान कर सरकार अपने दावों को गंभीरता से रख सकती है। भ्रष्‍टाचार पर अंकुश के उपाय किए बिना इसकी सफलता पर सवाल उठते ही रहेंगे। वैसे भी योजना की आलोचनाएँ इसे सशक्‍त बनाने में मदद करेंगी, इसमें लगातार सुधार की गुंजाइश बताती रहेगी। लेकिन इन शिकायतों के आधार पर ऐसा तो नहीं माना जा सकता कि योजना अपने उद्देश्‍यों से भटक गई है क्‍योंकि शिकायतें तभी आ रही हैं जब कुछ हुआ है और यह कुछ न होने से बेहतर है।

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