BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Thursday, August 1, 2013

रावणा तोंडी रामायण

रावणा तोंडी रामायण

Thursday, 01 August 2013 10:36

अनुपम मिश्र  
जनसत्ता 1 अगस्त, 2013: ये दो बिलकुल अलग-अलग बातें हैं- प्रकृति का कैलेंडर और हमारे घर-दफ्तरों की दीवारों पर टंगे कैलेंडर, कालनिर्णय या पंचांग।

हमारे संवत्सर के पन्ने एक वर्ष में बारह बार पलट जाते हैं। पर प्रकृति का कैलेंडर कुछ हजार नहीं, लाख-करोड़ वर्ष में एकाध पन्ना पलटता है। इसलिए हिमालय, उत्तराखंड, गंगा, नर्मदा आदि की बातें करते समय हमें प्रकृति के भूगोल का यह कैलेंडर कभी भी भूलना नहीं चाहिए। पर करोड़ों बरस के इस कैलेंडर को याद रखने का यह मतलब नहीं कि हम अपना आज का कर्तव्य भूल बैठें। वह तो सामने रहना ही चाहिए। और उस हिसाब से काम भी होना चाहिए। पर माथा साफ नहीं होगा तो काम भी होने नहीं वाला।
गंगा मैली हुई है। उसे साफ करना है। सफाई की अनेक योजनाएं पहले भी बनी हैं। कुछ अरब रुपए इन सब योजनाओं में बह चुके हैं। बिना कोई अच्छा परिणाम दिए। इसलिए केवल भावनाओं में बह कर हम फिर ऐसा कोई काम न करें कि इस बार भी अरबों रुपयों की योजनाएं बनें और गंगा जस की तस गंदी ही रह जाए।
बेटे-बेटियां जिद््दी हो सकते हैं। कुपुत्र-कुपुत्री भी हो सकते हैं। पर अपने यहां प्राय: यही माना जाता है कि माता कुमाता नहीं होती। तो जरा सोचें कि जिस गंगा मां के बेटे-बेटी उसे स्वच्छ बनाने के प्रयत्न में कोई तीस-चालीस बरस से लगे रहे हैं, वह भला साफ क्यों नहीं होती? क्या इतनी जिद््दी है हमारी यह मां?
सरकार ने तो पिछले दिनों गंगा को 'राष्ट्रीय' नदी का दर्जा भी दे डाला है। साधु-संत समाज, हर राजनीतिक दल, सामाजिक संस्थाएं, वैज्ञानिक समुदाय, गंगा प्राधिकरण, और तो और विश्व बैंक जैसा बड़ा महाजन, सब गंगा को तन-मन-धन से साफ करना चाहते हैं। और यह मां ऐसी है कि साफ नहीं होती। शायद हमें थोड़ा रुक कर कुछ धीरज के साथ इस गुत्थी को समझना चाहिए।
अच्छा हो या बुरा हो, हर युग में एक विचार ऊपर उठ आता है। उसका झंडा सब जगह लहरा जाता है। उसका रंग इतना जादुई, इतना चोखा होता है कि वह हर रंग के दूसरे नए, पुराने झंडों पर चढ़ जाता है। तिरंगा, लाल, दुरंगा और भगवा सब तरह के झंडे उसको नमस्कार करते हैं, उसी का गान गाते हैं। उस युग के, उस दौर के करीब-करीब सभी मुखर लोग, मौन लोग भी उसे एक मजबूत विचार की तरह अपना लेते हैं।
कुछ समझ कर तो कुछ बिना समझे भी। तो इस युग को पिछले कोई साठ-सत्तर बरस को, विकास का युग माना जाता है। जिसे देखो उसे अपना यह देश पिछड़ा लगने लगा है। वह पूरी निष्ठा के साथ इसका विकास कर दिखाना चाहता है। विकास पुरुष जैसे विश्लेषण कोई एक दल नहीं, सभी दलों, सभी समुदायों में बड़े अच्छे लगते हैं।
वापस गंगा पर लौटें। पौराणिक कथाएं और भौगोलिक तथ्य, दोनों कुल मिलाकर यही बात बताते हैं कि गंगा अपौरुषेय है। इसे किसी एक पुरुष ने नहीं बनाया। अनेक संयोग बने और गंगा का अवतरण हुआ। जन्म नहीं। भूगोल, भूगर्भ शास्त्र बताता है कि इसका जन्म हिमालय के जन्म से जुड़ा है। कोई दो करोड़, तीस लाख बरस पुरानी हलचल से। इसके साथ एक बार फिर अपनी दीवारों पर टंगे कैलेंडर देख लें। उनमें अभी बड़ी मुश्किल से 2013 बरस ही बीते हैं।
लेकिन हिमालय प्रसंग में इस विशाल समय अवधि का विस्तार अभी हम भूल जाएं। इतना ही देखें कि प्रकृति ने गंगा को सदानीरा बनाए रखने के लिए इसे अपनी कृपा के केवल एक प्रकार- वर्षा- भर से नहीं जोड़ा। वर्षा तो चार मास ही होती है। बाकी आठ मास इसमें पानी लगातार कैसे बहे, कैसे रहे, इसके लिए प्रकृति ने अपनी उदारता का एक और रूप गंगा को दिया है। 
नदी का संयोग हिमनद से करवाया। जल को हिम से मिलाया। तरल को ठोस से मिलाया। प्रकृति ने गंगोत्री और गौमुख हिमालय में इतनी अधिक ऊंचाई पर, इतने ऊंचे शिखरों पर रखे हैं कि वहां कभी हिम पिघल कर समाप्त नहीं होता। जब वर्षा समाप्त हो जाए तो हिम, बर्फ एक बहुत ही विशाल भाग में धीरे-धीरे पिघल-पिघल कर गंगा की धारा को अविरल रखते हैं।
तो हमारे समाज ने गंगा को मां माना और कई पीढ़ियों ने ठेठ संस्कृत से लेकर भोजपुरी तक में ढेर सारे श्लोक, मंत्र, गीत, सरस, सरल साहित्य रचा। समाज ने अपना पूरा धर्म उसकी रक्षा में लगा दिया। इस धर्म ने यह भी ध्यान रखा कि हमारे धर्म, सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है। वह है नदी धर्म। नदी अपने उद्गम से मुहाने तक एक धर्म का, एक रास्ते का, एक घाटी का, एक बहाव का पालन करती है। हम नदी धर्म को अलग से इसलिए नहीं पहचान पाते क्योंकि अब तक हमारी परंपरा तो उसी नदी धर्म से अपना धर्म जोड़े रखती थी।
पर फिर न जाने कब विकास नाम के एक नए धर्म का झंडा सबसे ऊपर लहराने लगा। इस झंडे के नीचे हर नदी पर बड़े-बड़े बांध बनने लगे। एक नदी घाटी का पानी नदी धर्म के सारे अनुशासन तोड़ दूसरी घाटी में ले जाने की बड़ी-बड़ी योजनाओं पर नितांत भिन्न विचारों के राजनीतिक दलों में भी गजब की सर्वानुमति दिखने लगती है। अनेक राज्यों में बहने वाली भागीरथी, गंगा, नर्मदा इस झंडे के नीचे आते ही अचानक मां के बदले किसी न किसी राज्य की जीवन रेखा बन जाती हैं। और फिर उन राज्यों में बन रहे बांधों को लेकर वातावरण में, समाज में तनाव इतना बढ़ जाता है कि कोई संवाद, स्वस्थ बातचीत की गुंजाइश ही नहीं बचती। दो राज्यों में एक ही राजनीतिक दल की सत्ता हो तो भी बांध, पानी का बंटवारा ऐसे झगड़े पैदा करता है कि महाभारत भी छोटा पड़ जाए। सबसे बड़े लोग, सत्ता में आने वाला हर दल, हर नेतृत्व बांधों से बंध गया है।

हरेक को नदी जोड़ना एक जरूरी काम लगने लगता है। बड़े-छोटे सारे दल, बड़ी-छोटी अदालतें, अखबार, टीवी भी बस इसी तरह की योजनाओं को सब समस्याओं का हल मान लेते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि जरूरत पड़ने पर प्रकृति ही नदियां जोड़ती है। इसके लिए वह कुछ हजार-लाख बरस तपस्या करती है। तब जाकर गंगा-यमुना इलाहाबाद में मिलती हैं। कृतज्ञ समाज तब उस स्थान को तीर्थ मानता है। इसी तरह मुहाने पर प्रकृति नदी को न जाने कितनी धाराओं में तोड़ भी देती है। बिना तोड़े नदी का संगम, मिलन सागर से हो नहीं सकता। तो नदी जोड़ना, तोड़ना उसका काम है। इसे हम नहीं करें। करेंगे तो आगे-पीछे पछताना भी पड़ेगा। 
आज क्या हो रहा है? नदी में से साफ पानी जगह-जगह बांध, नहर बना कर निकालते जा रहे हैं। सिंचाई, बिजली बनाने और उद्योग चलाने के लिए। विकास के लिए। अब बचा पानी तेजी से बढ़ते बड़े शहरों, राजधानियों के लिए बड़ी-बड़ी पाइप लाइन में डाल कर चुराते भी जा रहे हैं।
यह भी नहीं भूलें कि अभी तीस-चालीस बरस पहले तक इन सभी शहरों में अनगिनत छोटे-बड़े तालाब हुआ करते थे। ये तालाब चौमासे की वर्षा को अपने में संभालते थे और शहरी क्षेत्र की बाढ़ को रोकते थे और वहां का भूजल उठाते थे। यह ऊंचा उठा भूजल फिर आने वाले आठ महीने शहरों की प्यास बुझाता था। अब इन सब जगहों पर जमीन की कीमत आसमान छू रही है। इसलिए बिल्डर-नेता-अधिकारी मिल-जुल कर पूरे देश के सारे तालाब मिटा रहे हैं। महाराष्ट्र में अभी कल तक पचास वर्षों का सबसे बुरा अकाल था और फिर उसी महाराष्ट्र के पुणे, मुंबई में मानसून के एक ही दिन की वर्षा में बाढ़ आ गई है।
इंद्र का एक सुंदर पुराना नाम, एक पर्यायवाची शब्द है पुरंदर, यानी पुरों को, किलों को, शहरों को तोड़ने वाला। यदि हमारे शहर इंद्र से मित्रता कर उसका पानी रोकना नहीं जानते तो फिर वह पानी बाढ़ की तरह हमारे शहरों को नष्ट करेगा ही। यह पानी बह गया तो फिर गर्मी में अकाल भी आएगा ही। यह हालत सिर्फ हमारे यहां नहीं, सभी देशों में हो चली है। थाईलैंड की राजधानी दो वर्ष पहले छह महीने बाढ़ में डूबी रही थी। इस साल दिल्ली के हवाई अड््डे में पहली ही बरसात में 'आगमन' क्षेत्र में बाढ़ का आगमन हो गया था।
वापस गंगा लौटें। कुछ दिनों से उत्तराखंड की बाढ़ की, गंगा की बाढ़ की टीवी पर चल रही खबरों को एक बार फिर याद करें। नदी के धर्म को भूल कर हमने अपने अहं के प्रदर्शन के लिए तरह-तरह के भद्दे मंदिर बनाए, धर्मशालाएं बनार्इं, नदी का धर्म सोचे बिना। हाल की बाढ़ में मूर्तियां ही नहीं, सब कुछ गंगा अपने साथ बहा ले गई।
तो नदी से सारा पानी विकास के नाम पर निकालते रहें, जमीन की कीमत के नाम पर तालाब मिटाते जाएं, और फिर सारे शहरों, खेतों की सारी गंदगी, जहर नदी में मिलाते जाएं। फिर सोचें कि अब कोई नई योजना बना कर हम नदी भी साफ कर लेंगे। नदी ही नहीं बची। गंदा नाला बनी नदी साफ होने से रही। गुजरात के भरुच में जाकर देखिए, रसायन उद्योग ने विकास के नाम पर नर्मदा को किस तरह बर्बाद किया है।
नदियां ऐसे साफ नहीं होंगी। हमें हर बार निराशा ही हाथ लगेगी। तो क्या आशा बची ही नहीं? ऐसा नहीं है। आशा है, पर तब, जब हम फिर से नदी धर्म ठीक से समझें। विकास की हमारी आज जो इच्छा है, उसकी ठीक जांच कर सकें। बिना कटुता के। गंगा को, हिमालय को कोई चुपचाप षड्यंत्र करके नहीं मार रहा। ये तो सब हमारे ही लोग हैं। विकास, जीडीपी, नदी जोड़ो, बड़े बांध सब कुछ हो रहा है। हजारों लोग षड्यंत्र नहीं करते। कोई एक चुपचाप करता है गलत काम। इसे तो विकास, सबसे अच्छा काम मान कर सब लोग कर रहे हैं। पक्ष भी, विपक्ष भी सभी मिल कर इसे कर रहे हैं। यह षड्यंत्र नहीं, सर्वसम्मति है!
विकास के इस झंडे तले पक्ष-विपक्ष का भेद भी समाप्त हो जाता है। हमारी लीला ताई ने हमें मराठी की एक बहुत विचित्र कहावत सुनाई थी: रावणा तोंडी रामायण। रावण खुद बखान कर रहा है रामायण की कथा। हिमालय में, गंगा में, गांवों, शहरों में हम विकास के नाम पर ऐसे काम न करें जिनके कारण ऐसी बर्बादी आती हो। नहीं तो हमें रावण की तरह अपनी खुद की बर्बादी का बखान करना पड़ेगा।

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