Friday, 02 August 2013 10:52 |
कमल नयन चौबे ओड़िशा खनन निगम ने पर्यावरण मंत्रालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। इस पर अठारह अप्रैल को अपना फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने आदेश दिया कि आदिवासी पल्ली सभाएं (ग्राम सभाएं) इस बात का फैसला करें कि क्या खनन के लिए प्रस्तावित क्षेत्र किसी भी तरह से उनके देवता नियम राजा को प्रभावित करेगा। फैसले के मुताबिक अगर पल्ली सभाएं यह मानती हैं कि खनन से ऐसा हो सकता है, तो फिर यहां के लोगों के अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए। अदालत का आदेश कुल मिला कर वनाधिकार कानून का पालन सुनिश्चित करने का है। गौरतलब है कि जहां खनन होने वाला है, उसके नजदीकी क्षेत्र में तकरीबन सौ छोटे गांव हैं। लेकिन ओड़िशा सरकार ने कालाहांडी और रायगढ़ा जिलों की सिर्फ बारह पल्ली सभाओं की बैठक बुलाने का फैसला किया। यह अदालत के फैसले की मनमानी व्याख्या है, जो कि सरकार की मंशा पर संदेह खड़े करती है। कई पल्ली सभाओं की बैठक हो चुकी है। इन सभी ने खनन के प्रस्ताव को पूरी तरह नकार दिया है। अगर सभी बारह पल्ली सभाएं खनन को नामंजूर कर देती हैं तो यह भारत ही नहीं, विश्व में संसाधनों के बेतहाशा दोहन के खिलाफ साधनहीन समुदायों की ऐतिहासिक जीत होगी। असल में, नियमगिरि में आदिवासियों का अंतहीन संघर्ष हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी गहरे सवाल खड़े करता है। इस संदर्भ में कुछ बातें खासतौर पर गौर करने की हैं। पेसा और वन अधिकार कानून, दोनों में ही ग्राम सभाओं को यह अधिकार दिया गया है कि खनन आदि के प्रस्ताव उनकी रजामंदी से ही लागू किए जा सकेंगे। इसके बावजूद ओड़िशा और केंद्र सरकार, दोनों ने जान-बूझ कर इस प्रावधान की अनदेखी की। दूसरे, यह सैद्धांतिक सवाल भी जुड़ गया है कि अगर कार्यपालिका जान-बूझ कर विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों का उल्लंघन करे, तो उसकी जवाबदेही तय करने का क्या रास्ता हो सकता है? तीसरे, नियमगिरि का संघर्ष यह भी दिखाता है कि हमारी व्यवस्था जमीनी स्तर के संघर्ष के प्रति कितनी दमनकारी हो चुकी है। समाजवादी जनपरिषद जैसे इस क्षेत्र में सक्रिय संगठनों ने लंबे समय से सिर्फ कानूनी प्रक्रिया के पारदर्शी पालन के लिए संघर्ष किया। लेकिन इन्हें लगातार दमन का सामना करना पड़ा और इसके नेताओं पर माओवादी होने के आरोप लगाए गए।चौथा, नियमगिरि कॉरपोरेट पूंजीवाद के दबाव के आगे व्यवस्था के घुटने टेकने का प्रमाण भी है। इसी कारण, बिल्कुल वैध आधार पर इस क्षेत्र में खनन पर रोक होने के बावजूद ओड़िशा सरकार ने इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। फिर, न्यायालय के फैसले की मनमानी व्याख्या करते हुए उसने इस क्षेत्र में सिर्फ पल्ली सभाओं की बैठक बुलाने का फैसला किया। इस बैठक के पहले वेदांता के एजेंटों को पुलिस ने स्थानीय लोगों को प्रभावित करने से नहीं रोका। लेकिन जनसंगठनों के लोगों ने आदिवासियों को प्रस्तावित बैठकों के महत्त्व के बारे में बताने की कोशिश की, तो उन्हें जबरन रोका गया। इस सबके बावजूद लोग बड़ी संख्या में पल्ली सभाओं में आए और उन्होंने खनन योजना को नकार दिया। प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को ही विकास मानने वाले लोगों के लिए यह बुरी खबर है। लेकिन यह उन लोगों के लिए खुशखबरी है, जो विकास के नाम पर जारी जल, जंगल, जमीन की लूट के खिलाफ चल रहे जन-संघर्ष को आशा की निगाह से देखते हैं। नियमगिरि का घटनाक्रम पेसा और वन अधिकार कानून जैसे प्रगतिशील कानूनों में निहित संभावनाओं को भी दर्शाता है। लेकिन नियमगिरि का सबसे आकर्षक पहलू यह है कि यह आदिवासियों के लंबे और अथक संघर्ष का प्रतीक है। पिछले कई वर्षों से स्थानीय संगठनों की मदद से संघर्ष करते हुए यहां के आदिवासियों ने वेदांता परियोजना का लगातार विरोध किया है, जिसके कारण सरकारी तंत्र के पूरे समर्थन के बावजूद यह परियोजना लागू नहीं हो पाई है। नियमगिरि का संघर्ष पूरे देश और दुनिया के दूसरे भागों में भी, अपने हक की खातिर लड़ते समुदायों के लिए एक अनुपम मिसाल है।
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BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7
Published on 10 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH.
http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM
http://youtu.be/oLL-n6MrcoM
Friday, August 2, 2013
नियमगिरि के हकदार
नियमगिरि के हकदार
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