Sunday, 28 April 2013 11:18 |
जनसत्ता 28 अप्रैल, 2013: युवा कथाकार राकेश कुमार सिंह का उपन्यास हुल पहाड़िया पहाड़िया विद्रोह पर केंद्रित है। पहाड़िया विद्रोह शोषण के खिलाफ किया गया देश का पहला सशक्त और सशस्त्र संघर्ष है। पहाड़िया एक आदिवासी समुदाय है। यह झारखंड क्षेत्र में सदियों से निवास कर रहे हैं। वहां के संथाल परगना क्षेत्र, जो कभी राजमहल, कभी जंगलतराई और कभी दामिन-ए-कोह के नाम से जाना जाता रहा है, में ये संथालों के बसने से पहले से निवास करते रहे हैं। संथालों को तो असल में इस क्षेत्र में अंग्रेजों ने जंगलों की कटाई कराने और फिर उस पर खेती करा कर लगान वसूली के उद्देश्य से बसाया था। दूसरा अन्य बड़ा उद्देश्य उनकी ताकत से पहाड़िया आदिवासियों के 'उपद्रवों' को काबू करना था। अंग्रेजों की इन साजिशों को समझने में संथालों को थोड़ा वक्त लग गया, लेकिन फिर इनकी परिणति संथाल 'हूल' में हुई। यह उपन्यास इस क्षेत्र में संथालों के ठीक से जमने से पहले की कहानी है। इस पहाड़िया विद्रोह का नेतृत्व तिलका मांझी ने किया था। तिलका के संघर्ष को उपन्यासकार ने बहुत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। पहाड़िया समाज और लड़ाई के सभी प्रसंगों को साधने में वह कामयाब रहा है। इस अर्थ में यह एक सफल उपन्यास है। पर उपन्यासकार की कुछ बातों पर बहस भी हो सकती है। उपन्यासकार ने जबरा पहाड़िया और तिलका मांझी को एक ही व्यक्ति बना दिया है, जबकि इतिहास में ये दो व्यक्ति हैं। उपन्यासकार का तर्क है कि चूंकि पहाड़ियाओं के ग्राम मुखिया को मांझी कहा जाता है और मांझी संथालों का एक गोत्र भी है, इसलिए इस एक शब्द के भ्रम से तिलका मांझी को संथाल मान लिया गया। पर उलझन यह है कि पहाड़िए द्रविड़ प्रजाति के हैं और संथाल प्रोटो-आस्ट्रोलायड। दोनों की बोलियां अलग रही हैं। तब फिर उस दौर में यह मांझी शब्द पहाड़िया बोली में आया कहां से? खुद उपन्यासकार पहाड़िया संघर्ष को 'हुल' लिखता है, जबकि हुल संथाली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है विद्रोह। आखिर संथाल विद्रोह (1855) को हूल ही कहा जाता है। उपन्यासकार यह भी लिखता है कि संथाल पहाड़ियाओं के साथ लड़े। तब क्या किसी जबरा पहाड़िया के साथ या तुरंत बाद कोई तिलका संथाल नहीं लड़ सकता? उपन्यासकार के दो नायकों को एक बताने की यह जिद क्या झारखंड क्षेत्र में चल रही आज की संथाल राजनीति को किसी तरह प्रभावित करने की कोशिश है या महज यह बताना कि पहाड़िया समाज का भी क्रांतिकारी इतिहास रहा है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए लगता है कि कुछ तारीखों और अंग्रेजी नामों को हटा दें तो यह आदिवासियों के आज चल रहे संघर्षों की गाथा है। आज भी हमारी सरकारें आदिवासियों की जमीन छीन कर कुछ कंपनियों को देना चाहती हैं। आॅपरेशन हिलमेन और आॅपरेशन ग्रीन हंट में कोई फर्क नहीं है। आदिवासी क्षेत्रों में काम कर रहे कई अधिकारी आदिवासियों के साथ क्लीवलैंड और ब्राउन जैसा ही व्यवहार कर रहे हैं। हिल रेंजर्स की तर्ज पर आदिवासियों को एसपीओ बना कर, सलवा जुडूम में भर्ती कर आपस में लड़ाया जा रहा है। ऐसा लगता है जैसे तिलका मांझी आज भी कह रहा है, 'हुल तब तक चलेगा सरदार, जब तक जंगल में कंपनी रहेगी...।'
केदार प्रसाद मीणा http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/43375-2013-04-28-05-49-50 |
BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7
Published on 10 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH.
http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM
http://youtu.be/oLL-n6MrcoM
Sunday, April 28, 2013
संघर्ष की गाथा
संघर्ष की गाथा
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