महज़ जुमलेबाजी है मनुस्मृति में विहित मूल्यों को वस्तुगत सच्चाई मानना
इधर कुछ दिनों से एक शोर बढ़ा है। पूरा बहुजन और पिछड़ा आन्दोलन आंबेडकर और लोहिया के नाम पर न केवल सीमित संख्या में अपने-अपने सजातीय बंधुओं को जातीय संरचना में कुछ पायदान ऊपर चढ़ा देने और कुछ को नीचे धकेल देने के लिए लड़ रहा है बल्कि अपनी अंतर्वस्तु में यह जातीय संरचना को अक्षुण्ण बनाये रखना चाहता है।
जातीय प्रणाली हमेशा से गतिशील रही है जैसे सामजिक स्तरीकरण की अन्य प्रणालियाँ होती हैं और यह गतिशीलता केवल सामूहिक या पूरे के पूरे जातीय समुदाय के उन्नयन या पतन तक सीमित नहीं रही। संस्कृतिकरण इस गतिशीलता का महज एक पहलू है। क्षत्रिय वर्ण में हमेशा नये-नये शासक शामिल होते रहे हैं। इसी तरह जनजातियों के ब्राह्मण धर्म में समाहित होने की प्रक्रिया में जनजातीय पुजारी ब्राह्मण (उपजातियों में विभक्त) बनते रहे हैं। रोजगार, नौकरी की तलाश में पलायन-देशांतरण पूर्व में हमेशा जाति के बदल जाने या उच्च हो जाने के अवसर प्रदान करता रहा है।
जातीय प्रणाली बाकी स्तरीकरणों की तुलना में बस उतना ही भिन्न है जितना यूरोपियन वर्गीय समाज की तुलना में तथाकथित अमरीकी जन समाज। उत्पादन के साधनों की मिलकियत के आधार पर वर्गीकरण से समाज में बहुत कम वर्गों की पहचान होती है जिनका ध्रुवीकरण कभी भी सम्भव है जब कि मास सोसायटी में आय या काम के आधार पर कितनी भी संख्या में स्तरों की पहचान की जा सकती है। और उनमें एक स्तर से दूसरे में जा सकने की सम्भाव्यता को खुले या गतिशील समाज के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। जातीय समुदायों की बहुलता इस मायने में अमरीकी मास सोसायटी की तरह किसी बड़े ध्रुवीकरण को रोकने का ही काम करती है। जाति को बहुत नायाब समझना औपनिवेशिक मालिकों द्वारा दी गयी विशेषता से उपजी समझ है जिसमें उन्होंने हमें बताया था कि हम संपेरों-मदारियों का देश हैं। गुलामी की समझ जाते-जाते जायेगी और काफी वक्त लेगी जब उस समझ से कुछ लोग या समुदाय फायदा उठा सकने की स्थिति में हों।
भारत का समाज कभी भी मनु स्मृति के अनुसार नही चला.. ये महज एक नोर्मेटिव टेक्स्ट था। इसके रचने वाले ब्राह्मणों के सपनों का, आदर्शों का समाज, स्मृतियाँ अनेकों हैं और उनमें पर्याप्त मतभेद हैं। पर समाज हमेशा गतिशील रहा है। जातियों की परिस्थिति भी हमेशा बदलती रही है। इसे रूढ़ मानना या मनुस्मृति में विहित मूल्यों को वस्तुगत सच्चाई मानना महज़ जुमलेबाजी है।
कल माया या मुलायम के जातीय बंधू-बांधव क्षत्रिय या ब्राहमण का दर्ज़ा हासिल भी कर लेंगे तो भी इससे न तो गैरबराबरी खत्म होगी न जाति प्रणाली। हाँ जातियों के पारस्परिक स्थान बदल सकते हैं। फिलहाल तो यह भी होता हुआ नहीं दीखता। जो दिख रहा है वह यह है कि इनकी जातियों में जिस छोटे से समूह/ परिवार इत्यादि ने खुद को ताकतवर बना लिया है या थोड़ा अभिजात्य हो गया है वही अपने सजातीयों के कंधों पर चढ़कर सत्ता सुख प्राप्त करता रहेगा …
वर्ण की सच्चाई भी महज उतनी ही है जितनी मनुस्मृति के आदर्श समाज की। वर्ण एक आदर्श प्रारूप था जब कि जाति एक सच्चाई जो हमेशा परिवर्तनशील होती है। भारतीय समाज में न तो जाति कभी अपरिवर्तनशील और रूढ़ रही है और न ही यह समाज मनु या बृहस्पति या नारद या पाराशर या याज्ञवल्क्य के हिसाब से चला है।
वामपंथी क्रान्ति करने में क्यों नाकाम रहे उस पर अलग से बहस की गुंजाइश है। भारत में भी और पूरी दुनिया में भी। पर आश्चर्य इस बात पर है कि जिन लोगों ने अपनी भूमिका सोच समझकर परिवर्तन विरोधी या (थोड़ा-बहुत फायदा हासिल करते हुये) यथास्थिति वाद की चुनी है वे वामपंथियों से उम्मीद रखते हैं कि वे कई पायदान छलाँग लगाकर पार कर लें और उनके लिये (अपने लिये नहीं) क्रान्ति कर डालें।
क्षत्रियत्व के बरक्स तो तथाकथित बहुजन खुद ही स्वीकार करते है कि इसमें निरंतर आमेलन की प्रक्रिया चलती रही है। बहुजन स्वामियों को सम्भवतः ब्राहमण जाति में गतिशीलता नहीं दिख रही होगी पर उनकी सैकड़ों उपजातियों की व्याख्या आप बिना गतिशीलता के नही कर पायेंगे। ब्राह्मणों ने मिथकीय गोत्र भले ही सार्वत्रिक कर लिये हों पर उपजातियों में क्षेत्रीयता-स्थानिकता, जनजातीय समुदायों के ब्राह्मण समाज में एशिमिलेशन के दौरान पुजारी वर्ग के ब्राह्मण बनने की प्रक्रिया का ही साक्ष्य है।
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