मीडिया : पत्रकारों को हत्यारा किसने बनाया?
मीडिया : पत्रकारों को हत्यारा किसने बनाया?
Author: समयांतर डैस्क Edition : December 2012
विजय चावला
कानपुर में एक वरिष्ठ वकील, रामेन्द्र, की हत्या में अन्य के अलावा तीन पत्रकारों की गिरफ्तारी ने बाहर के समाचार पत्रों से जुडे तमाम लोगों के समक्ष कई सवाल खड़े किए हैं, जिसमें पत्रकारों की नैतिकता, इस पेशे का भविष्य, मीडिया की विश्वसनीयता इत्यादि सभी शामिल हैं।
लेकिन कानपुर में इस पर कोई अधिक आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि यह एक ऐसी घटना थी जिसके लिए लंबे समय से परिस्तिथियां तैयार हो रही थी। लंबे समय से पत्रकारों की एक श्रेणी इस प्रकार के कार्यों में लिप्त थी और उसका प्रयास था कि वह कुछ अपने वेतन के अलावा अधिक पैसा अर्जित कर सके। उनकी गतिविधियां छुपी हुई भी नहीं थी। इनमें मकानों का सौदा करवाने, जमीनों पर कब्जा करने से लेकर, विभिन्न पार्टियों में समझौता करवाने इत्यादि तक सभी शामिल थी। इस प्रकार के कार्यों में जिन में बिना किसी के जाने सौदे हो जाते हैं और पैसा कमाने का मौका मिल जाता है यह तो कुछ ही पत्रकार कर पाते हैं, परंतु छोटे स्तर पर इस प्रकार के कार्यों में बड़ी संख्या में पत्रकार लिप्त है।
इसका सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण त्योहार के समय देखा जा सकता है। त्यौहार के समय विभिन्न चैनलों के प्रतिनिधि, अखबारों के फोटोग्राफर और अन्य छोटे पत्रकार, सभी झुंड बनाकर एक साथ राजनेताओं के घरों में बारी बारी से जाते हैं और ये राजनेता पहले से ही उनके लिए 500 अथवा 1000 रुपए के नोट तैयार रखते हैं। यदि उस दिन दस राजनेताओं के पास भी चले गए तो प्रत्येक पत्रकार को उस दिन पांच हजार तक पैसा कमाने का अवसर मिल जाता है।
आज कल तो नहीं, लेकिन आज से बीस साल पहले जब किसी बड़ी कंपनी के सार्वजनिक निर्गम के लिए प्रेस सम्मलेन होता था तो उसमें जाने की पत्रकारों में होड़ लगी रहती थी। एक पत्रकार ने एक कंपनी सम्मेलन के बाद एक लेखक से यह कहा कि बहुत अच्छा हो गया, जो भेंट मुझे मिली है उससे मैं अगली राखी निपटा लूंगा और अपनी बहन को रिलायंस द्वारा दी गई साड़ी दे दूंगा। इससे मानो की उसके सिर का बहुत बढ़ा बोझ उतर गया हो।
जिला संवाददाता, संवाद सूत्रों इत्यादि का तो और भी बुरा हाल है और अपने कम वेतन के कारण उन्हें हमेशा कुछ ऐसे तौर तरीके अपनाने पड़ते हैं जिससे वे अपनी आमदनी में इजाफा कर सके।
इस श्रेणी के पत्रकारों में से अधिकांश को अपने पत्रकारिता के पेशे से पांच हजार से अधिक प्रत्येक माह में नहीं मिलता है उनसे यह आशा की जाती है कि वे इसी में अपना काम भी करे। इसलिए अधिकांश का यह प्रयास होता है कि वे इसके अलावा भी कोई व्यवसाय /नौकरी कर सके और कुछ अन्य जो यही उचित समझते हैं, पत्रकारिता की आड़ में ही कुछ किया जाए। इनमें से अधिकांश वे हैं जो अपनी साधारण आर्थिक दशा को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं और वे इस पूंजीवादी समाज द्वारा प्रस्तुत तमाम लुभावनी वस्तुओं का उपभोग करना चाहते हैं वे भी इस समाज में कुछ हैसियत वाले माने जाए, ऐसा वे चाहते हैं; वे कीड़े मकौडों का जीवन नहीं जीना चाहते हैं। वे गुमनाम नहीं रहना चाहते हैं।
ऐसे ही थे छायाकार / पत्रकार जो वकीलों हत्या कांड में पकड़े गए। उनके साथ कांग्रेस पार्टी की महिला नेत्री जो राजनीति के अलावा आरोप के अनुसार चकलेवाली भी हैं को भी गिरफ्तार किया गया है। दिवंगत वकील भी अपना शौक पूरा करने उनके यहां आते थे और ये पत्रकार भी उनके तरह तरह के काम किया करते थे। वे सब एकत्रित इसलिए हुए थे कि वकील के पास जो मकान की पॉवर ऑफ एटोर्नी थी उसे वह रद्द करदे। मारने का कोई इरादा नहीं था। लेकिन वह मर गया और नौसिखिए लाश को भी सही तरीके से ठिकाने नहीं लगा सके और आसानी से पकड़ लिए गए।
पत्रकारों की इस श्रेणी की वर्तमान दशा का जिम्मेवार मुख्य रूप से अखबारों के स्वामी हैं। कानपुर जैसे शहर में अखबार के मालिकों ने अखबार चलाने के लिए कई प्रकार के आविष्कार किए हैं; मसलन, जिला संवाददाता को वेतन देने के स्थान पर उसे प्रेस का कार्ड दे दिया जाता है और उससे यह आशा की जाती है कि वह ना केवल विज्ञापन लाएगा बल्कि अपने वेतन का जुगाड़ भी वह अपने तरीके से करे। अब यह जुगाड़ वह किसी सेठ या राजनेता के द्वारा ही कर सकता है तो ऐसी दशा में कौन सी खबर छपेगी और कौन सी नहीं, यह निर्णय भी राजनेता या व्यवसायी ही करते हैं, इसकी फीस अदा करके। जो इस पत्रकार का वेतन होता है।
वर्ष 1991 के पहले जब वेज बोर्ड के वेतन लागू होते थे तब कानपुर के ज्यादतर पत्रकारों से एक प्रकार के वेतन पर हस्ताक्षर कराए जाते थे और वेतन उससे कहीं कम दिया जाता था। भविष्य निधि नाम की आवश्यक सुविधा 90 प्रतिशत पर लागू नहीं होती थी।
जिन श्रेणियों की बात हम कर रहे हैं वह अखबारों की सबसे निचली श्रेणी है जिसे पैसा कमाने के लिए खुलकर सामने आना पड़ता है और सामान्य आचार व्यवहार के मान दंडों का उल्लंघन करता पड़ता है।
इन्हीं अखबारों में व्यवस्थापक और स्थानीय संपादक अपने-अपने तरीके से पैसा कमाते रहते हैं। इसमें समाचारों को छापकर और नहीं छापकर। अखबार की रद्दी बेचकर, इत्यादि। इन श्रेणी की गतिविधियां किसी अखबार के कर्मी से छुपी नहीं है और सबसे निचली श्रेणी इसे बड़े गौर से देखती है और इससे सबक लेती है। वह कुछ कर नहीं सकती और ऊपरी श्रेणी के आतंक के तले दबी रहती है।
स्तर का फरक हो सकता है और है, लेकिन जो कानपुर के लिए सही है वह पूरे देश के लिए भी सही है। हाल ही में राडिया टेप्स ने मीडिया की कई स्थापित मूर्तियों की असलियत सबके सामने ला दी है। जी टेलीफिल्म्स और नवीन जिंदल के मामले में भी बड़े लोगों की कारगुजारियों को सामने ला दिया है।
विस्तार में जाने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि मीडिया अब किसी भी अन्य व्यवसाय की ही तरह है। आइए इस रूपांतरण की तह में जाने का प्रयास करते हैं।
वर्ष 1991 के बाद से मीडिया में कई परिवर्तन देखे जा सकते हैं। सबसे पहले तो एक समाचार पत्र में विज्ञापन व्यवस्थापक, संपादक से अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया। कौन सी खबर जाएगी या रोकी जाएगी, कितना स्थान किस खबर को मिलेगा, इसका निर्णय भी बहुधा विज्ञापन ही कर देता है।
दूसरे, समाचार पत्र का संपादकीय गैर महत्त्वपूर्ण बना दिया गया था, अर्थात यह संदेश दिया जा रहा था अपना विशिष्ट दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण नहीं है; उसकी अब जरूरत नहीं है और जैसे यह कहने का प्रयास किया जा रहा हो कि जो विश्व व्यापार संगठन बनने के बाद और वैश्वीकरण जैसी नीतियों के लागू होने के बाद पूंजीपति वर्गों को अलग से अपनी किसी बात को प्रतिपादित करने की जरूरत नहीं रह गई है। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबार ने तो संपादकीय लिखना तक बंद कर दिया था और उसके स्थान पर एक विषय पर दो परस्पर विरोधी विचारकों को देना शुरू कर दिया था। अन्य मीडिया भी इससे कमोबेश प्रभावित हुआ था।
तीसरा, अंजाम यह हुआ कि अखबारों में खोजी पत्रकारिता का स्थान धीरे धीरे खत्म होने लगा। लीक से हट कर खबरे लाना और अन्य से पहले एक बड़ी खबर को देने वाली होड़ समाप्त सी हो गई थी। इसकी कोई जरूरत नहीं रह गई थी। इस बात को निरंतर बताया जाता था, और इस लेखक का यह स्वयं का अनुभव है कि उसे लगातार यह बताया गया कि अब समय बदल चुका है इस प्रकार की खबरें नहीं छापी जाएंगी।
यह कोरपोरेट सेक्टर के संबंध में था। कानपुर जैसी जगह पर स्थानीय पत्रकारों को यह कह दिया गया है उन्हें दिन में चार खबरें लानी हैं, और यह प्रेस नोट पत्रकारिता पर ही आधारित होती हैं।
अब नारा है जो बिकता है उसी को छापा जाएगा। तो अब बिकने वाली चीजें ही छप रही हैं।
यद्यपि जन आंदोलनों और अन्य कारणों से पूंजीपति वर्गों की जरूरत के अनुसार उपरोक्त चारों नीतियों में समय समय पर परिवर्तन हुए हैं, लेकिन बुनियाद में यही चारों सिद्धांत आज भी लागू हैं।
इनका असर पत्रकारों पर क्या हुआ?
अब पत्रकार की योग्यता की अखबारों को जरूरत नहीं रह गई है। केवल कुछ ही ऐसे लोग चाहिए जो पत्रकार जैसे हों और वही लोग समूचे अखबार में जो रचनात्मक कार्य होगा उसे कर लेंगे। बाकी सभी को बाबुओं वाले काम करने हैं।
ऐसी दशा में उसका वेतन इत्यादि भी सीमित कर दिया गया है।
इस ओर सबसे महत्त्वपूर्ण कदम पत्रकारों की स्वायत्तता समाप्त करने की लिए उठाया गया है, वह है कि पत्रकारों ने जो अधिकार दसियों वर्षों के संघर्ष के बाद जीते थे, उन्हें बहुत तेजी से समाप्त कर दिया गया। सबसे पहला प्रहार उनकी नौकरी पर किया गया, वे पत्रकार जिनकी नौकरी स्थायी थी उनकी नौकरियां समाप्त कर दी गईं, और उन्हें तीन तीन साल के ठेके पर रखा गया। यह इतने बड़े स्तर पर किया गया और हर अखबार ने ठेकेदारी करण के बुनियादी सिद्धांत को लागू करने के अपने अपने सूत्र निकाले, लेकिन सबका लक्ष्य एक ही था कि पत्रकारों की पक्की नौकरियों को समाप्त करना। केवल नौकरियां ही नहीं समाप्त की गई बल्कि इनकी स्वायत्तता को भी समाप्त कर दिया गया, उस क्षमता को भी समाप्त कर दिया गया जिसमें वह संपादक से भी संघर्ष करता था जब उसकी कोई रिपोर्ट छापी नहीं जाती थी।
अब वह केवल भाड़े का मजदूर हो गया था और उसकी नौकरी किसी भी समय पर समाप्त की जा सकती थी।
उसको वेज बोर्ड के वेतन से भी हटा दिया गया और उसे कंपनी स्केल पर रख लिया गया।
इस प्रकार के प्रयास अखबारों के पूंजीवादी मालिक हमेशा से करते चले आ रहे थे लेकिन हर बार उनके प्रयासों को पत्रकार संघर्ष करके वापिस लौटा देते थे। लेकिन इस बार इसके ठीक विपरीत हुआ। एक के बाद एक सभी स्थानों के पत्रकारों ने आत्म समर्पण कर दिया और प्रबंधन के निर्देशों का अक्षरश: पालन किया। बिना संघर्ष के पत्रकार ने अपनी आत्म हत्या के आदेश पर हस्ताक्षर कर दिए।
उदारीकरण, वैश्वीकरण, निजीकरण का इस प्रकार का प्रचार था कि देशों और तमाम बुद्धिजीवियों के पांव उखड़ गए और वह वैचारिक रूप से इसके समक्ष आत्म समर्पण कर चुके थे। इसलिए जब उसके परिणाम के रूप में उनके स्वयं के ऊपर बात आई, तो वे संघर्ष नहीं कर सके। वैचारिक आधार पर वे इतने दुबले हो चुके थे।
इससे पत्रकार का मनोबल टूट गया है। वह अपने आत्मसम्मान को खो चुका है। ऐसी स्थिति में ये विचार कि पत्रकारिता भी बाकी नियुक्तियों की तरह ही है और उनमें और इनमें कोई फर्क नहीं हैं और जीवन का मुख्य ध्येय पैसा कमाना ही है, पत्रकारिता की विशिष्टता का कोई मायने नहीं है, सामाजिक दायित्व जैसे शब्द बेमाने हैं, को कमोबेश स्वीकार कर लिया गया है।
इन विचारों के घर करने के बाद से कानपुर और समूचे देश में पत्रकारों द्वारा गैर पत्रकारी तरीके से धन कमाने के प्रयास तेज हो गए हैं। बात केवल मौका मिलने का है। ऐसा नहीं है कि यह कार्य पहले नहीं होते थे, लेकिन उस समय इनकी संख्या बहुत ही कम थी और यदि कोई संलिप्त पाया जाता था तो पत्रकार जगत में तो वह बहिष्कृत ही हो जाता था।
लेकिन आज ऐसा करने पर कोई खास दाग नहीं लगता है और ऐसे व्यक्ति भी आराम से फिर सामन्य कार्य करने लगते हैं। कानपुर और अन्य स्थानों के पत्रकार/छायाकार तो बहुत ही निरीह प्राणी है और दया के पात्र हैं। लेकिन यह कहने का यह मतलब नहीं है इनके कृत्यों को न्यायोचित ठहराया जा रहा है। बिलकुल नहीं। इसके विपरीत यदि इन पहलू को नजरंदाज कर दिया गया तो सुधार के कार्यक्रम को शुरू भी नहीं किया जा सकेगा।
आज माहौल पहले से कुछ बेहतर हो चुका है, वर्ष 1990 का दशक और इस सदी के पहले वर्षों वाला माहौल अब बदल चुका है। वैश्वीकरण, निजीकरण उदारीकरण की असलियत अब लोग देख चुके हैं और उसे भुगत रहे हैं। लोग इससे निकलने के लिए छटपटा रहे हैं। पत्रकारों की आत्म समर्पण करने वाली पीढ़ी का स्थान बहुत तेजी से नई पीढ़ी लेती जा रही है। कानपुर के वरिष्ठ पत्रकार महेश शर्मा के अनुसार नए पत्रकार प्रशिक्षित भी अधिक हैं और वे इस सब चक्करों में नहीं है और गंभीर भी है।
इसके अलावा पत्रकारों की रक्षा में पूंजीवादी प्रतिस्पर्धा ने अपनी भूमिका निभाई है और प्रत्येक अखबार को अब सही वेतन देने पर मजबूर होना पड़ रहा है अन्यथा आसानी से पत्रकारों को दूसरे अखबार में नौकरी मिल जाती है।
नई पीड़ी, वर्तमान व्यवस्था से जनता का लगातार बढता असंतोष, पूंजीवादी प्रतिस्पर्धा, पत्रकारों के समक्ष नाना प्रकार के अवसर, मीडिया का विस्तार और विविधीकरण, से एक बार फिर ऐसी परिस्तिथियां बन रही हैं जिसमें पत्रकार के समक्ष अपने को संगठित करने का और स्वामी वर्ग को कानून सम्मत आचरण के लिए बाध्य कर सकने का मौका हैं। पत्रकारों के संगठनों को एक बार फिर बनाने का समय आ गया है ताकि इतने सक्षम हो सके कि वह मूल्य आधारित पत्रकारिता करें और समाज परिवर्तन के जारी आंदोलन में अपनी भूमिका निभा सके।
यही एक मात्र तरीका है जिससे पत्रकारों को अपराधिक /गैर पत्रकारी माध्यमों से पैसा अर्जित करने से रोका जा सकता है।
स्वर्गीय कृष्ण मेनन के शब्दों में भारत के अखबार के मालिक अपने अखबारों को ऐसे चलाते हैं जैसे वे जूट के कारखानों का संचालन करते हैं और यह आचरण उनका पत्रकारों के मामलों में सही है।
http://www.samayantar.com/why-journalists-are-involved-in-criminal-activities/
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