जैसा कि अयोध्या फैजाबाद पर घहराने वाली प्राय: हर विपदा के समय होता है, बीते दशहरे 24 अक्टूबर को फैजाबाद में हुए उपद्रवों के दौरान हिंदी प्रिंट मीडिया के एक बड़े हिस्से की भूमिका उसकी पेशागत नैतिकताओं के विरुद्ध और निहायत गैरजिम्मेदाराना रही। इस हद तक कि किसी को भी बरबस 1990-92 के दिन याद आ जाएं!
लखनऊ से प्रकाशित दैनिक जागरण ने अपने अयोध्या संस्करण के 26 अक्टूबर के अंक में पहले पृष्ठ पर 'फैजाबाद में उपद्रव, दो की मौत, कर्फ्यू' शीर्षक से छपी फैजाबाद कार्यालय की खबर में तथ्यों के विपरीत, सांप्रदायिक व पक्षपाती पत्रकारिता का उदाहरण पेश करते हुए लिखा—'विसर्जन शोभायात्रा के चौक स्थित मां हट्ठी महारानी मंदिर के पास पहुंचते ही समुदाय विशेष के लोगों ने शोभायात्रा में आई लड़कियों व महिलाओं से अभद्रता शुरू कर दी। विरोध करने पर शरारती तत्वों व वहां मौजूद युवकों में मारपीट होने लगी।' इस समाचारपत्र द्वारा अयोध्या की 1990-92 की घटनाओं की विद्वेषपूर्ण रिपोर्टिंग के इतिहास के आईने में यह विश्वास करने के कारण हैं कि ऐसा जानबूझकर किया गया। ताकि एक संप्रदाय के पाठकों के मन में बात घर कर जाए कि दूसरे संप्रदाय के लोगों ने इरादतन योजना बनाकर उनकी लड़कियों व महिलाओं को अपमानित किया। साथ ही, दोनों संप्रदायों में सीधे टकराव का भ्रम फैले और परस्पर असुरक्षा व घृणा और बढ़े। सच्चाई यह है कि छेड़छाड़ की जो इकलौती घटना घटित हुई बताई जाती है, कथित रूप से उसमें लिप्त 'सिरफिरे' की न पहचान हो पायी है, न ही उसका कुछ अता पता है। कहते हैं कि उसे भीड़ ने पीटा भी था। मगर न वह कहीं घायलावस्था में मिला, न अस्पताल में भर्ती हुआ, न कोई उसका नाम बताने वाला है, न किसी ने उसे पुलिस को सौंपा और न ही अगर वह पिटाई से मर गया हो, तो उसकी मृत देह ही बरामद हुई। फिर भी समाचारपत्र को इसके पीछे 'सांप्रदायिक साजिश' दिख गई! दूसरी ओर कुछ लोग कहते हैं कि 'पीडि़त' लड़की के साथ के लोगों ने सिरफिरे को इसका मजा चखाकर छोड़ दिया था और बात आई-गई हो जाती, अगर उसके दूसरे 'शुभचिंतक' आग लगाने पर न उतर आते।
दैनिक जागरण के इरादे का पता इस तथ्य से भी चलता है कि पहले पृष्ठ पर उपद्रव का ऐसा भड़काने वाला कारण बताने के बाद उसके फैजाबाद कार्यालय ने इसी अंक के पृष्ठ 6 पर लिखा कि 24 घंटे बाद भी उपद्रव की वजह नहीं तलाशी जा सकी है। फिर जाने क्या सिद्ध करने के लिए फैजाबाद सिटी पृष्ठ पर 'घटनाक्रम एक नजर में' में छेडख़ानी को अफवाह बता दिया गया! समाचारपत्र ने 'इंतजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं' शीर्षक से छपी मुकेश कुमार / नवनीत की रिपोर्ट में शहर की गंगा-जमुनी संस्कृति के कलंकित होने का रोना भी रोया, लेकिन दोनों संप्रदायों के धर्मगुरुओं द्वारा की गई सौहार्द की एकजुट अपील को जितना महत्त्वहीन किया जा सकता था, उतना करके छापा।
लखनऊ के अमर उजाला को भी दैनिक जागरण से पिछडऩा कुबूल न था। अलबत्ता, उसने अपने फैजाबाद संस्करण के मुखपृष्ठ पर 'फसाद के बाद फैजाबाद में कर्फ्यू' शीर्षक से फैजाबाद/लखनऊ ब्यूरो की जो बड़ी-सी खबर छापी, उसमें इतनी गनीमत थी कि एक ही किशोरी से अभद्रता की बात बतायी गई थी। लेकिन माई सिटी पृष्ठ पर 'चौक में रात भर सुलगीं दुकानें, हावी रहीं अफवाहें' शीर्षक से उग्र भीड़ द्वारा पूजा पंडाल में आगजनी व कई दुकानों में तोडफ़ोड़ की 'खबर' देते हुए उसे याद नहीं रहा कि पंडालों से प्रतिमाएं पहले ही विसर्जन के लिए शोभायात्रा में ले जाई जा चुकी थीं और पंडाल उजडऩे शुरू हो गए थे। इससे इस समाचारपत्र के भी पेशेवर रवैये पर संदेह होता है।
फैजाबाद का दैनिक जनमोर्चा वस्तुनिष्ठ और पक्षपातहीन पत्रकारिता के लिए जाना जाता है और आम तौर पर सनसनी परोसने से परहेज पखता है। लेकिन इस बार उसके आत्मसंयम के बांध में भी दरारें दिखीं। 27 अक्टूबर के अंक में प्रथम पृष्ठ पर 'भदरसा में हालात बिगड़े, तोडफ़ोड़-आगजनी' शीर्षक खबर को उसने खूब सेंसेशनलाइज किया। इस खबर का एक वाक्य था—भदरसा से एक व्यक्ति ने जनमोर्चा को फोन पर रोते हुए कहा कि हमें बचा लीजिए, लोग मेरा घर फूंक रहे हैं, मार डालेंगे! खुद को जनसरोकारों के प्रति समर्पित, संवेदनशील व जिम्मेदार बताने वाले इस समाचारपत्र ने अपने अगले अंकों में इस रोते हुए पीडि़त के बारे में कुछ भी बताने की जहमत नहीं उठाई।
लखनऊ के राष्ट्रीय सहारा ने एक नवंबर को अपने फैजाबाद संस्करण के पहले पृष्ठ पर 'भदरसा में कर्फ्यू में दो घंटे की छूट' की खबर छाप डाली, जबकि जिला प्रशासन का कहना था कि उसने वहां कर्फ्यू लगाया ही नहीं है। सिर्फ बलों की तैनाती की है। ऐसे में खबर इस प्रश्न के जवाब में था कि तब उसने लोगों का घरों से बाहर निकलना व स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करना गैरकानूनी ढंग से रोक रखा है क्या? लेकिन मीडिया के ज्यादातर हिस्सों की इस प्रश्न में दिलचस्पी नहीं थी। इन हिस्सों ने फैजाबाद शहर में चौक के एक धर्मस्थल के दूसरे तल पर स्थित हिंदी-उर्दू के साझा साप्ताहिक आपकी ताकत के कार्यालय में की गई तोडफ़ोड़ को देखकर भी नहीं देखा। उन्होंने इसे मीडिया पर हमले के रूप में तो नहीं ही लिया, घटना के तौर पर भी इसके उल्लेख से परहेज रखा।
'मां के भक्त' पत्रकारों व समाचारपत्रों को न तो पूजापंडालों में भड़काऊ गीत बजाए जाने का नोटिस लेने की फुरसत थी और न देखने की कि कई जगहों पर उन्होंने सड़क का बड़ा हिस्सा कब्जा कर लिया था, जिससे नागरिकों का आवागमन बुरी तरह बाधित हो रहा था। पूजा व विसर्जन जुलूस के दौरान ठेकों से और अवैध रूप से भी शराब की बेरोक-टोक बिक्री और सेवन के प्रति तो वे इतने 'सहनशील' थे कि उन्हें एक पल को भी नहीं लगा कि स्थिति बिगडऩे से बच जाती, अगर 'उमड़े हुए जनसैलाब' में सब-कुछ 'पियक्कड़ों' के भरोसे न होता। इससे पहले 23 जुलाई को पास के मिर्जापुर गांव में सांप्रदायिक तनाव भड़काने और 21 सितंबर को देवकाली मंदिर से तीन मूर्तियों की चोरी के मामलों की आड़ में समूचे शहर के सांप्रदायीकरण की कोशिशों की बाबत भी मीडिया के इस हिस्से का रवैया पूरी तरह असंगत व एकतरफा था। मूर्तिचोरी मामले में गोरखपुर के भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ के आ कूदने को इसने ऐसे लपका जैसे वे कोई देवदूत हों। उनके द्वारा 'हिंदुओं की भावनाओं व आस्थाओं पर प्रहार करने वाले अधर्मियों' को दी गई धमकियों को खासा बढ़ा-चढ़ा कर प्रचारित किया गया। दैनिक जागरण ने 13 अक्टूबर को फैजाबाद सिटी पृष्ठ पर छापा—'योगी आज भरेंगे हुंकार'! हिंदुस्तान ने लगभग यही बात बताने के लिए अपना पहला पृष्ठ इस्तेमाल किया। 'हुंकार' के बाद दैनिक जागरण ने योगी को यह कहते हुए उद्धृत किया कि 'असम में जैसे ही हिंदुओं ने प्रतिकार शुरू किया, सोनिया भागकर वहां पहुंच गईं।' अमर उजाला ने उन्हें अधर्मियों को कोसने के लिए पूरे-पूरे आठ कालम दे दिए, जबकि राष्ट्रीय सहारा के अनुसार योगी ने कहा कि 'हमारे बीच रह कर हमसे पूरी सुविधाएं लेने वाले हमारी ही आस्था पर प्रहार कर रहे हैं, जिन्हें चिह्नित करना होगा।'
गौर करने की बात है कि योगी के कहे को ग्लैमराइज करने वाले इन समाचारपत्रों ने न पेशेवर होने का फर्ज निभाया, न ही उनसे पूछा कि मूर्तिचोरी के खुलासे से पहले ही वे उसे लेकर 'अधर्मियों' पर निशाने क्यों साध रहे हैं? क्या उनके पास ऐसे कोई सबूत हैं, जिनसे पता चलता हो कि चोरी के पीछे उनका हाथ है? अगर नहीं तो घृणा के विष के वमन से हासिल क्या है? और क्यों मुस्लिम संगठन भी आंदोलन कर रहे हैं कि चोरों को शीघ्र पकड़ा जाए? चोरी के खुलासे और 'स्वधर्मी' चोरों की गिरफ्तारी के बाद भी किसी समाचारपत्र ने मामले का संप्रदायीकरण करने वालों को कठघरे में नहीं खड़ा किया।
सांप्रदायिक रंग तो खैर प्रदेश सरकार के उस फैसले को भी दिया जा रहा था जिसमें स्थानीय कचहरी में 2007 में हुए विस्फोटों के अभियुक्तों के खिलाफ मुकदमे वापस लेने की बात थी और वकील जिसको लेकर धरना दे रहे थे। हालांकि उनके पास कानूनी उपचार भी थे। हिंदी प्रिंट मीडिया इस संप्रदायीकरण का भी आलोचक नहीं था। पता नहीं क्यों, संप्रदायीकरण से उसे कभी कोई उलझन नहीं होती और सद्भाव कभी उसकी चिंता में शामिल नहीं होता! शायद इसीलिए सोते पकड़े गए स्थानीय प्रशासन के कुछ हलकों का मानना था कि उन्हें स्थिति को संभालने में आसानी हुई, क्योंकि दशहरे की छुट्टी के कारण उपद्रवों की सुबह लोगों को भड़का सकने वाले समाचार पत्र लोगों तक नहीं पहुंचे। लेकिन मीडिया को प्रशासन से ज्यादा शिकायतें नहीं थीं। उस पुलिस से भी नहीं, जिसने अपने उच्चाधिकारियों के आदेश की अवज्ञा करके उपद्रवियों पर पानी की बौछार तक नहीं की, रबर की गोलियां या लाठियां चलाना तो दूर की बात है।
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