एनडीटीवी पर रोक का विरोध क्यों जरुरी है?
हम किसी चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने के पक्ष में नहीं है।लेकिन हम फासिज्म के राजकाज के खिलाफ हैं।हम नस्ली नरसंहार संस्कृति के इस मुक्तबाजार के खिलाफ हैं।जनता के खिलाफ सत्ता की राजनीति में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है और न ही अखबारों और टीवी चैनलों के हितों और उनके कारोबार से हमें कोई लेना देना नहीं है।वे अच्छे बुरे जैसे भी हों,उनकी आजादी इस देश में लोकतंत्र को बनाये रखने के लिए अनिवार्य है।देश बेचो गिरोह की हर हरकत के पर्दाफाश की आजादी अनिवार्य है।
हम पांचजन्य या समाना पर भी रोक के पक्ष में नहीं हैं और न हम सत्ता पक्ष के तमाम अखबारों या टीवी चैनलों को बंद कराने की मुहिम छेड़ रहे हैं।सत्ता पक्ष के लोगों को अपना पक्ष रखने का जितना अधिकार है,विपक्ष को और आम नागरिकों को भी अपना पक्ष रखनेका उतना ही हक है।
पलाश विश्वास
केबल टीवी नेटवर्क (नियमन) कानून के तहत प्राप्त शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने कहा है कि "भारत भर में किसी भी मंच के ज़रिये NDTV इंडिया के एक दिन के प्रसारण या पुन: प्रसारण पर रोक लगाने के आदेश दिए गए हैं... यह आदेश 9 नवंबर, 2016 को रात 12 बजकर 1 मिनट से 10 नवंबर, 2016 को रात 12 बजकर 1 मिनट तक प्रभावी रहेगा..."
राष्ट्रीय सुरक्षा का यह अभूतपूर्व युद्धाभ्यास है।तो सवाल यह है कि एनडीटीवी पर रोक का विरोध क्यों जरुरी है? इसी बीच एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने सूचना और प्रसारण की अंतर-मंत्रालयीन समिति के अभूतपूर्व फैसले की कठोर निंदा की है और मांग की है कि एनडीटीवी हिंदी का एक दिन का प्रसारण रोकने के आदेश पर तत्काल रोक लगाई जाए। न्यूज चैनलों की संस्था बीईए ने भी इस फैसले को वापस लेने की मांग करते हुए कहा कि यह बोलने की आजादी के खिलाफ है।हम कहां खड़े हैं?
भारत में फासीवाद की मौजूदा स्थिति पर सिद्धांत वादी लोग बाकायदा अपना विमर्श जारी रख सकते हैं तो जो लोग मानते हैं कि अभी आपातकाल नहीं है,उनकी भी बलिहारी।जैसे फोर जी मोबाइल नेटवर्क में चौबीसों घंटे बने रहने के बावजूद विज्ञान और तकनीक की सारी सुविधाओं से लैस मुक्त सेक्स के मुक्तबाजार में दुनियाभर की हर जरुरी गैरजरुरी सूचनाओं से लैस होकर हर किस्म का मजा लेने के बावजूद लोग आदिम सभ्यता के अपढ़ कबीलाई लोगों की तरह अंध भक्ति,अंध विश्वास और बर्बर उपासना पद्धतियों और आस्थाओं के तिलिस्म में कैद मनुष्यता को जाति धर्म की लाखों लाख दड़बों में बांटकर स्वजनों के खून से नहाकर ही राष्ट्रवादी बनते हैं।फिर उस राष्ट्रवाद का खूनी दरिया व्हाट्सअप पर प्रसारित करते हैं।लेकिन आधुनिकताम ज्ञान की सीमा विज्ञान और तकनीक का दायरा भी नहीं है,एंट्रोयड ऐप्प हैं।अपनी ही इद्रियों को साधन की दक्षता जो हमारे पुरखों में थी,जाहिर है,हम जैसे जडो़ से कटे लोगों की वह दक्षता भी नहीं है।
होती तो क्या वजह है कि आधुनिक ज्ञान विज्ञान के बावजूद उदारता, भाईचारा, विमर्श का लोकतंत्र और वैज्ञानिक दृष्टि,वैज्ञानिक पद्धति,इतिहासबोध,सौदर्यबोध जैसी कोई बात अत्याधुनिक प्राविधि के बावजूद नहीं होती।धर्मांधता के सिवाय वजूद नहीं।
धर्म को जो मिथकों में कैद करके नरसंहारी उत्सव में बहुसंख्य आम जनता को वंचित करने के शास्त्रीय मनुस्मृति अनुशासन के समर्थक ऐसे कबीलाई सांप्रादायिक लोगों के लिए आध्यात्म में मनुष्यता के उत्कर्ष के बजाय धर्म के नाम रंगभेद,मानविक मूल्यों की रक्षा के लिए अनिवार्य बुनियादी मानवाधिकार और नागरिक अधिकार के जाति धर्म पहचान के रंगभेद के आधार पर दमन का जो धर्मांध पक्ष है,युद्धोन्मादी बहुमत है राष्ट्र का,वहां फासीवाद लोगों की समझ में बहुत आसानी से ऩहीं आ सकता भले ही उनमें हमारे आदरणीय कामरेड महासचिव भी शामिल हो,जिनका जनप्रतिबद्ध संप्रदाय भी पार्टीबद्ध ऊंची जातियों का वर्चस्व है।
जाहिर है कि यह मामला सिर्फ किसी एनडीटीवी पर रोक का नहीं है।
दरअसल यह मामला उस विचारधारा के विष बीज का रक्त बीज बनकर समाज के लिए रग रग में कैंसर बन जाने का नाइलाज मर्ज है,जो हिटलर की आत्मा के भारतीय संस्कृति में प्रतिस्थापित हो जाने के बाद से एक अनंत सिलसिला है,जिसका नतीजा अनंत घृणा और हिंसा की आत्मघाती विचारधारा के तहत भारत विभाजन की घटना है और मनुस्मृति समर्थकों के सत्ता वर्चस्व का स्थाई बंदोबस्त और देश को बेचते रहने की उनकी अबाध स्वतंत्रता है।
इसी फासीवादी राजकाज के तहत आदिवासी भूगोल में असुर राक्षस दैत्य दानव वध का अटूट सिलसिला सलवा जुड़ुम है और इसी सिलसिले में भोपाल गैस त्रासदी, सिखों का नरसंहार,बाबरी विध्वंस का राममंदिर आंदोलन मार्फत सत्ता अपहरण है,गुजरात में धर्मोन्मादी दंगा है।कलबुर्गी,पनेसर ,दाभोलकर,रोहित वेमुला की हत्या है।नेताजी और अंबेडकर का बहिस्कार है।अखंड अलंघ्य सर्वशक्तिमान सर्वत्र सर्वव्यापी पितृसत्ता है।स्त्री के विरुद्ध देश के इंच इंच पर बलात्कार कार्निवाल है।अस्पृस्यता का आचरण है।जल जंगल जमीन आजीविका से बेदखली है और इस फासिज्म के राजकाज के खिलाफ हमारा अखंड मौन है।मनुस्मृति दहन भी रस्म अदायगी है।सत्ता पाखंड है।
पठानकोट में राष्ट्रीय सुरक्षा दांव पर लगाने के लिए अगर प्रतिबंध का कारण है तो बाकी माध्यमों पर वह प्रतिबंध क्यों नहीं है जिन सबने वही खबर उसीतरह छापा प्रसारित किया? इतना गंभीर यह मामला है तो टोकन प्रतिबंध ही क्यों है,राष्ट्रद्रोह की सजा इतनी कम क्यों है? गौरतलब है कि सरकार ने साफ साफ़ कहा कि वह फ़ौज की आलोचना बर्दाश्त नहीं करेगी। अब यदि एनडीटीवी ने जो कुछ दिखाया है तो दूसरे चैनलों ने भी ऐसा ही कुछ दिखाया है, लेकिन बाकी पर कोई एक्शन लिया गया या नहीं, इसकी अभी तक कोई जानकारी नहीं है तो अकेले एक टीवी चैनल को सजा का मतलब गधे को भी समझ में आनी चाहिए।
यह फिर किस किस्म का लोकतंत्र है जहां दावा लोकशाही का है लेकिन किसी फौजी हुकूमत की तरह पुलिस और फौज कुछ भी करें,उसकी आलोचना करना राष्ट्रद्रोह है।जहां देश की सुरक्षा के नाम पर आजादी के बाद से लेकर अबतक हर रक्षा सौदे में दलाली के खाये रुपयों से ही सत्ता पर दखल का एकाधिकार बहाल रखने की मारामारी है और अब तो डीफेंस में भी एफडीआई है।
राष्ट्र की सुरक्षा विदेशी कंपनियों,विदेशी एजंसियों के हवालेकर देने वाले राष्ट्रभक्तों के राज में निजी और विदेशी हितों के लिए जनता के उत्पीड़न दमन मानागरिक और मानवाधिकार हनन के लिए सेना और पुलिस के इस्तेमाल की आलोचना करना राष्ट्रद्रोह है तो समज लीजिये कि भारत को इसतरह पाकिस्तान बनाने वाले कौन लोग हैं।
जगजाहिर हकीकत यह है कि यह प्रतिबंध भोपाल मुठभेड़ का सच एनडीटीवी के वीडियो फुटेज की सजा है,जो पठानकोट का समाचार साझा करनेवाले बाकी मीडिया का सच नहीं है।फर्जी मुठभेड़ की कोरी बकवास की धज्जियां उड़ाने का यह बदला है।
क्योंकि अकेले एनडडीटीवी हिंदी ने बहुजन बहुसंख्य आम जनता की भाषा और बोली में फासिज्म के राजकाज की मुठभेड़ विधा को बेपर्दा कर दिया,जिसपर पर्दा डालने के लिए संघी समाजवादियों ने लखनऊ में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को बेरहमी से पीटा।रवीश कुमार के कार्यक्रम से पहले से ही नाराजगी थी।
सिर्फ वजह यही नहीं है।गुस्सा बस्तर के सच उजागर करने,नियमागिरि की भाषा बोलने वाले मीडिया पर भी है।असहिष्णुता के सवाल उठाने वाले मीडिया को यूपी चुनाव से पहले सबक सिखाने का यह राजकाज है।
इस फासिज्म के राजकाज के खिलाफ बुलंद होती हर आवाज,हर चीख को खामोश करने की यह आसान दहशतगर्दी है कि बाजार में कोई एक बड़ी दुकानको लूट लो तो हफ्तावसूली फिर दस्तूर है। समूचा सत्ता का राजनीतिक वर्ग माफिया है।
बहरहाल हमने आपातकाल के दौरान अखबारों का सेंसर देखा है तो बिहार में डा. जगन्नाथ मिश्र के जमाने में भी वही करतब का सामना किया है।हम प्रेसीडेंट निक्सन के जमाने का वाटरगेट कांड भी जानते हैं और मैडम हिलेरी की कथा जो अमेरिकी प्रेस से आ रही है,उस पर भी नजर रखे हुए हैं।
हम खाड़ी युद्ध के दौरान सरकारी पक्ष का मीडिया हो जाने के कारण मध्यपूर्व ही नहीं ,दुनियाभर में मची तबाही से भी वाकिफ हैं और अच्छी तरह समझते हैं कि सिर्फ सरकारी पक्ष का भोंपू मीडिया बन जाये तो यह इंसानियत के लिए कितना बड़ा खतरा है।जिसका खामियाजा हर देश भुगत रहा है जबकि इंसानियत शरणार्थी सैलाब है।
इंदिरा गांधी के आपातकाल के पीछे बैरिस्टर सिद्धार्थशंकर राय थे और इस आपातकाल के पीछे सिर्फ नागपुर मुख्यालय ही नहीं,तेलअबीब का वह तंत्र मंत्र यंत्र भी है जो अमेरिका पर काबिज है और हम उसी अमेरिका के उपनिवेश हैं।तो बार बार विभाजन के इस सिलसिले को रोकने के लिए सत्ता जमींदारी के स्थाई बंदोबस्त के खिलाफ आजादी पसंद तरक्कीपसंद हर किसी का उठ खड़ा होना लाजिमी है,जिनमें तनिको इंसानियत बाकी है।
हम विरोध में हैं क्योंकिहम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं।इसलिए हम एनडीवी के कायल न होते हुए भी उसके प्रसारण पर रोक का विरोध करते हैं।
हम विरोध में हैं क्योंकि लोकतंत्र के लिए स्वतंत्र प्रेस बेहद जरुरी है।हम इंदिरा गांधी के आपातकाल और जगन्नाथ मिश्र के प्रेस विधेयक का हश्र जानते हैं और हम यह भी जानते हैं कि प्रेस की आजादी खत्म करके हुक्मरान अपनी कब्र खुद खोद रहे हैं।
अंग्रेजी हुकूमत के दौरान भी भारत में प्रेस आजाद रहा है तो आजाद भारत में प्रेस परबेड़िया डालने वाले ही अपनी अपनी खैर मनायें और सुधर जाये ,यही लोकतंत्र के हित में और उनके राजनीतिक भविष्य के भी हित में यही है।
सूचनाएं आजाद न हो,विचारों को कैद कर लिया जाये और सवालों पर पाबंदी हो,यह आपातकाल नहीं है तो क्या है,इसे समझने लायक हमारी विद्वता नहीं है।
बहुसंख्य जनता को जिस निर्मम दमन उत्पीड़न और नस्ली भेदभाव की कत्लेआम संस्कृति से नागरिक और मानवाधिकार से वंचित करने के लिए मिथकीय अंध राष्ट्रवाद के युद्धोन्माद के तहत राष्ट्र को सैन्य राष्ट्र बनाकर चुनिंदा समुदायों और चुनिंदा भूगोल का सफाया सुनियोजित तरीके से होता है,उसे हम फासीवाद के सिवा क्या कह सकते हैं,कमसकम हमारी अल्पबुद्धि के बाहर है।
सिर्फ सरकारी और सत्तापक्ष की सूचनाएं प्रकाशित हों,प्रसारित हों और बाकी जरुरी तमाम सूचनाएं,जनसुनवाई और आम जनता की रोजमर्रे की तकलीफें,पीड़ितों वंचितों की चीखें निषिद्ध हों,कुलीन शुद्ध और भद्र माध्यमों और विधाओं के लिए सबकुछ खुला हो और जनपदों के गरीब देहाती अछूतों बहुजनों की अशुद्ध अभद्र लोक पर प्रतिबंध हो,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चुनिदां पक्ष की हो,जिसमें न बहुलता हो और न सहिष्णुता हो,ऐसे लोकतंत्र के लिए हमारे पुरखों ने पीढ़ी दर पीढी अनंत शहादतें दीं,इसका हमें यकीन नहीं है।
हमारे पास सूचनाएं विविध माध्यमों से आती हैं।हम टीवी के समाचारों और कार्यक्रमों के मुक्तबाजार में सूचना व्यभिचार और अखबारों के सिरे से केशरियाकरण के खिलाफ हैं,लेकिन हम उन्हें पसंद नहीं करते या नहीं देखते या नहीं पढ़ते या वे हमारी विचारधारा या हमारे पक्ष और हमारे हितों के खिलाफ हैं या वे कारपोरेट हैं या उनका मालिक या संपादक अमुक अमुक हैं,तो क्या हम अपने नापसंद के सारे अखबारों और टीवी चैनलों के बंद करने की किसी कोशिश का समर्थन करेंगे?
यकीनन हम ऐसा नहीं कर सकते।इसलिए एनडीटीवी से सहमत हों या न हों,हम एनडीवी के पक्ष में नहीं,लोक गणराज्य भारत में नागरिकों की स्वतंत्रता और संप्रभुता के हक में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में हैं।यह लड़ाई किसी रवीश कुमार या बरखा दत्त के पक्ष में नहीं है बल्कि हम अपने ही मौलिक अधिकारों के पक्ष में है।
एनडीटीवी प्रकरण पर अपने अपने राज्यों में नागरिकों और मानवाधिकारों का दमन करके नस्ली भेदभाव और दंगाई सियासत के तहत लोगों को बांटने की राजनीति करने वाले मौकापरस्त सत्ता सौदागरों के गठबंधन के साथ कमसकम हम नहीं हैं।वे भी कल्कि महाराज के अलग अलग रंग और मुख हैं।
हम किसी चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने के पक्ष में नहीं है।लेकिन हम फासिज्म के राजकाज के खिलाफ हैं।हम नस्ली नरसंहार संस्कृति के इस मुक्तबाजार के खिलाफ हैं।जनता के खिलाफ सत्ता की राजनीति में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है और न ही अखबारों और टीवी चैनलों के हितों और उनके कारोबार से हमें कोई लेना देना नहीं है।वे अच्छे बुरे जैसे भी हों,उनकी आजादी इस देश में लोकतंत्र को बनाये रखने के लिए अनिवार्य है।देश बेचो गिरोह की हर हरकत के पर्दाफाश की आजादी अनिवार्य है।
हम रवीश कुमार के कायल हों या न हों,हम बरखा दत्त या प्रणय राय के कारपोरेट संबंधों के खिलाफ हों या न हों,एनडीटीवी पर यह प्रतिबंध भारत में लोकतंत्र पर कुठाराघात है और हम हर कीमत पर इसके खिलाफ हैं।
हम पांचजन्य या समाना पर भी रोक के पक्ष में नहीं हैं और न हम सत्ता पक्ष के तमाम अखबारों या टीवी चैनलों को बंद कराने की मुहिम छेड़ रहे हैं।सत्ता पक्ष के लोगों को अपना पक्ष रखने का जितना अधिकार है,विपक्ष को और आम नागरिकों को भी अपना पक्ष रखनेका उतना ही हक है।
हम टीवी पर करीब दस साल से खबरें देखते नहीं हैं।हम अखबार जरुर पढ़ते हैं।बचपन से यह आदत है।लेकिन हम टीवी के साथ पैदा नहीं हुए हैं।नैनीताल से एमए पास करने के बाद हमें दूरदर्शन का मिला।इसलिए कुछ चुनिंदा फिल्में घर बैठे देख लेने के अलावा इसका कोई उपयोग नहीं है।पाकिस्तानी या बांग्लादेशी ड्रामा इसलिए देखता था कि हम इन देशों में कबी गये नहीं हैं।फिर वे भारत के अंग रहे हैं और हमारे पुरखों की जिंदगी के हिस्से भी रहे हैं।उनमें और हममें कितना फर्क है,यह समझने की यह कवायद रही है।फिलहाल हम जिंदगी पर तुर्की के सीरियल देखते हैं सिर्फ इसलिए कि तुर्की से हमारा इतिहास जुडा़ है और उस देश को समझने का यह मौका है।
बहुत पहले दूरदर्शन पर आजतक देखा करते थे।प्रणय राय और विनोद दुआ हमारे हीरो रहे हैं उनदिनों के।बीच के वर्षों में टीवी रंगीन हो जाने पर खबरें भी हम देख लिया करते थे।अब पिछले दशक में भाषाई चैनलों में ज्योतिष,भूतबाधा और शापिंग के बीच खबरेंखोजना मुश्किल है और लगातार ब्राउज करने के बाद चौबीसों घंटे कुछ खास किस्म की कबरों की पुनरावृत्ति के अलावा हम वहां कुछ देखते नहीं हैं।अंग्रेजी चौनलों में लाउडस्पीकरों और पैनलों के शोर शराबे में जाने की इच्छा नहीं होती।आर्थिक चैनल इसलिए देखते नहीं है कि वहां सारे आंकड़े और विश्लेषण भयंकर गड़बड़ है।
हमारे यहां वर्षों से हिंदी एनडीवी कैबिल पर नहीं है और हमने डिश अभी लगाया नहीं है।अंग्रेजी एनडीटीवी हमने राडिया टेप्स के बरखा बहार के बाद देखना छोड़ दिया है।फिरभी यूट्यूब के जरिये जितना संभव है,रवीश कुमारे के कार्यक्रम देख लेता हूं।रवीश कुमार की अपनी जो सीमा है,वह हम करीब 36 साल तक कारपोरेट मीडिया का हिस्सा बने रहने के कारण बखूब जानते हैं।धनबाद में पत्रकारिता के चार साल में ही 1980 से लेकर 1984 के दौरान हम समझ गये थे कि यह बनिया की दुकान है और बनिये से डरकर आपका वजूद बचेगा नहीं।बनिया के अखबार को अपना अखबार न मानते हुए दैनिक जागरण और दैनिक अमरउजाला में हम लगातार जनता का पक्ष लेते रहे हैं और मालिकों से जब तब टकराते रहे हैं।
इसके बाद हमने पच्चीस साल इंडियन एक्सप्रेस समूह में बिता दिये,जहां पत्रकारों को बाकी समूह से ज्यादा आजादी है और हमें कभी अपने कहे या लिखे के लिए किसीने टोका नहीं।यहां मौनेजमेंट विशुध कारपोरेट है।किसी के होने न होने का कोई मतलब नहीं है।एक सिस्टम है,जिसमें रहकर आपकी औकात कल पुर्जे की तरह है।सिस्टम आपका जैसे चाहे इस्तेमाल कर सकती है,लेकिन उस सिस्टम का इस्तेमाल करना एकदम असंभव है चाहे आप प्रभाष जोशी,ओम थानवी, अरुण शौरी,कुलदीप नैयर,शेखर गुप्ता,एस निहाल सिंह,वर्गीज,राजकमल झा जैसे कितने ही नायाब पत्रकार और लेखक हों,इस हिसाब से हमारा भाव तो कौड़ियों के मोल का नहीं है।
इस सिस्टम में चुने हुए मुद्दे पर चुने हुए मौके पर चुने हुए पक्ष में कुछ भी कहना या बोलना होता है।स्वतंत्र पत्रकारों के लिए भी यही स्थिति है।जिनका पैनल इसी हिसाब से तय होता है।सिस्टम से बाहर किसी को पैनल में जगह नहीं मिलती चाहे आप कितने बड़े तोप हों।एक से बढ़कर एक पत्रकार लेखक फ्रिज में होते हैं,जिनका इस्तमेमाल मौके के मुताबिक ही होता है।मीडिया कारपोरेट है तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की कौन मालिक है और किस कंपनी के शेयर कितने हैं।
हम रवीश के कायल इसलिए हैं कि इस सिस्टम में जब भी उन्हें मौका मिलता है,वे अपने निशाने से चुकते नहीं हैं।जाहिर है कि हम उनसे उम्मीद नहीं कर सकते कि वे हर मुद्दे पर उसी तेवर में बोले,जैसी उनकी प्रतिभा और दक्षता है।अपनी सीमा वे बखूब समझते हैं और उसी सीमा के बीतर रहकर जिन मुद्दों पर उन्हें मौका मिलता है,वे सतह के नीचे तक पहुंच जाते हैं।एनडीटीवी पर रोक की असल वजह यही रवीश कुमार हैं तो इस रवीश कुमार के साथ खड़ा होना जरुर है क्योंकि वह हमारी लोक जमीन का है।
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