हिंदू हो या मुसलमान, शरणार्थियों की खैर नहीं।
मजहबी दंगाई सियासत के लिए नागरिकता ब्रह्मास्त्र!
विभाजनपीड़ित हिंदुओं को बलि का बकरा बनाकर 2003 का नागरिकता संशोधन विधेयक दरअसल भारत के मुसलमानों की नागरिकता छीनने की सर्वदलीय हिंदुत्व राजनीति है।पहले नागरिकता छीनो,फिर गैरमुसलमानों को नागरिकता दे दो,लेकिन मुसलमानों को नागरिकता कतई मत दो।
सेना को समर्थन का मतलब,अबाध पूंजी के लिए युद्ध गृहयुद्ध के कारोबार और नागरिकों के कत्लेआम को समर्थन!
पलाश विश्वास
विभाजनपीड़ित हिंदुओं को बलि का बकरा बनाकर 2003 का नागरिकता संशोधन विधेयक दरअसल भारत के मुसलमानों की नागरिकता छीनने की सर्वदलीय हिंदुत्व राजनीति है।पहले नागरिकता छीनो,फिर गैरमुसलमानों को नागरिकता दे दो,लेकिन मुसलमानों को नागरिकता कतई मत दो।यह सीधे तौरपर पूर्वी बंगाल के हिंदू विभाजनपीड़ितों को नागरिकता से वंचित रखने का स्थाई जमींदारी बंदोबस्त है।
हम खुद पूर्वी बंगाल के विभाजनपीड़ित शरणार्थी परिवार से हैं,जिनकी नागरिकता,आरकक्षण और मातृभाषा के अधिकार के लिए मेरे पिता आजीवन आखिरी सांस तक लड़ते रहे हैं।हम हर हाल में देश भर में जारी नागरिकता के लिए शरणार्थी आंदोलन के साथ हैं।लेकिन सारी राजनीति शरणार्थियों के खिलाफ है जो शरणार्थियों को शतरंज का मोहरा बनाने के बाद हिंदुत्व की पैदल सेना बनाने पर आमादा है।यह मारे लिए निजी तौर पर बहुत बड़ा संकट है।
हम शरणार्थियों की बिना शर्त नागरिकता देने की मांग करते रहे हैं।जैसे पश्चिम पाकिस्तान के शरणार्थियों को नागरिकता मिली है,वैसे ही।
हम 2003 के नागरिकता संशोधन कानून को सिरे से रद्द करने की मांग इसीलिए करते हैं क्योंकि इसका मकसद मुसलमानों को नागरिकता से वंचित करने और हिंदू बंगाली शरणार्थियों की नागरिकता का मसला हिंदू मुसलमान विवाद से नत्थी करने का उपक्रम है जिसके तहत न मुसलमानों को नागरिकता मिलनी है और न हिंदू विभाजनपीड़ितों को।
दोनों पक्ष इस साजिश को समझ लें तो बेहतर है।हमारे पुरखे इस साजिस को समझ नही पराये तो हम भारत पाकिस्तान विवाद से निकल नहीं पा रहे हैॆं और इस साजिश के तहत देश के चप्पे चप्पे पर पाकिस्तान बना रहा है दंगाई राजनीति।यह अनवरत युद्ध है।अनंत गृहयुद्ध है।बेलगाम आत्मध्वंस है।खून की नदियां हैं।इस हिसा की कोई सीमा नहीं है।सीमाओं के आर पार लहू का सैलाब है।आइलान की लाशें हैं।आगजनी,हिसां,कत्लेआम और बलात्कार कार्निवाल नतीजे हैं।
2003 के इस काला शैतानी कानून की पेचदगी किसी संशोधन से खत्म नहीं होती है,इसलिए 1955 के नागरिकता कानून को बहाल करके सबसे पहले विभाजन पीड़ितों को नागरिकता देना जरुरी है।1971 के बाद जो लोग आये हैं,उनकी नागरिकता का मसला भी 1955 के कानून के तहत संभव है,उस कानून में संशोधन के जरिये हिंदू मुसलमान विवाद से हिंदू विभाजनपीड़ितों की समस्या सुलझेगी नहीं।
इसके उलट भारत विभाजन का इतिहास हूबहू दोहराया जा रहा है।
बंगाल में दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत हिंजदुस्तान पाकिस्तान बनाने की राजनीति फिर उसी मजहबू सियासत के जरिये नागरिकता के सवाल पर हिंदुओं और मुसलमानों में बंगाल,त्रिपुरा और असम में सीधे टकराव के हालात बना रही है।
इसके विपरीत पश्चिम पाकिस्तान से आये विभाजनपीड़ितों की नागरिकता के बारे में कोई विवाद नहीं रहा है।उन्हें बिना शर्त नागरिकता दी गयी तो पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों की नागरिकता 2003 के कानून के जरिये छिनी क्यों गयी और जब फिर हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने का दावा है तब क्यों मुसलमानों को नागरिकता का सवाल बीच में क्यों खड़ा कर दिया जा रहा है।यह चुनावी समीकरण समझना जरुरी है।
जाहिर है कि बंगाल और असम में धार्मिक ध्रूवीकरण से पूरे देश का केसरियाकरण और हिंदू राष्ट्र का आरएसएस के एजंडा को पूरा करने की यह सर्वदलीय राजनीति है और महिलाओं को संसद और विधानसभा में आरक्षण हर कीमत पर रोकने की तर्ज पर यह पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों की नागरिकता छीन लेने की सर्वदलीय राजनीति है।असम और बंगाल में दंगे हुए तो दूसरे राज्यों से आये इन राज्यों में बसे लोगों को भी इस दंगे की आग से बचाना मुश्किल होगा।जिसका असर देश विदेश में भारी पैमाने पर होना है।राजनीति सिर्फ यूपी जीतने की सोच रही है।बाकी देश दुनिया की उसे कोई परवाह नहीं है और न इंसानियत और न मजहब से उसका कोई नाता है।
आज इंडियन एक्सप्रेस की सबसे बड़ी खबर नागरिकाता संशोधन विधेयक के सिलसिले में हिंदू और मुसलमान शरणार्थियों में कौन असल दुश्मन है,इसपर असम सरकार के एक खास मंत्री हिमंत विश्व शर्मा का यह जिहादी बेमिसाल बयान है।जो भोपाल में फर्जी मुठभेड़ से ज्यादा खतरनाक है।यहां लाशों की गिनती भी असंभव है।
असम में प्रस्तावित नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 का विरोध जारी है। इस विधेयक में बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है। विदेशी नागरिकों को नागरिकता देने के मुद्दे पर पूर्वोत्तर राज्य असम की राजनीति में उबाल आ गया है। केंद्र की भाजपा सरकार ने जुलाई में नागरिकता अधिनियम, 1955 के कुछ प्रावधानों में संशोधन के लिए विधेयक पेश किया था।असम में भी भाजपा की सरकार है।
कृपया गृहयुद्ध के आवाहन की इस युद्ध घोषणा पर गौर करें।भाजपा के नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रैटिक एलाएंस के संयोजक हेमंत विश्व शर्मा ने राज्य के लोगों से कहा है कि अपना दुश्मन चुन लीजिए, या तो 1.5 लाख या 55 लाख लोग।
हेमंत प्रदेश में सरकार में बेहद प्रभावशाली मंत्री भी हैं। अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी रिपोर्ट में शर्मा के इन बयानों को लिखा है। आंकड़ों पर सफाई नहीं दी हालांकि हेमंत ने इन आंकड़ों को धर्म विशेष से नहीं जोड़ा है, लेकिन उन्होंने यहा जवाब उस समय दिया जब वह विपक्ष के असम की नागरिकता विधेयक पर जवाब दे रहे थे।उन्होंने बिल का विरोध करने वालों से पूछा कि किस समुदाय ने असमिया लोगों को अल्पसंख्यक बनाने की धमकी दी है।
नागरिकता (संसोधन) बिल के जरिए पाकिस्तान और बांग्लादेश में जुल्म सह रहे हिंदुओं, बौद्धों, जैन, सिख और पारसियों को नागरिकता देने का प्रस्ताव है। हिंदू और मुसलमान माइग्रेंट में भेद करने की नीति क्या भाजपा की है, इस सवाल शर्मा ने कहा, "हां, हम करते हैं। साफतौर पर हम करते हैं। देश का बंटवारा धर्म के नाम पर हुआ था। इसलिए यह नई चीज नहीं है। जब हम डिब्रूगढ़ या तिनसुखिया जाते हैं तो हमें अच्छा लगता है क्योंकि वहां पर बहुसंख्या में हैं। लेकिन जब आप धुबड़ी या बारपेटा जाते हैं,तब आपको ऐसा नहीं लगता।
Choose your enemy, Hindu or Muslim migrants: Assam BJP minister Himanta Biswa Sarma
Sarma seemed to be referring to Hindu and Muslim migrants as he was replying to queries on the opposition to the Citizenship (Amendment) Bill in Assam.
TATING THAT it is his party's policy to differentiate between Hindu and Muslim migrants, Assam Minister and convenor of the BJP's North East Democratic Alliance (NEDA) Himanta Biswa Sarma on Tuesday asked the people of the state to choose their enemy — "the 1-1.5 lakh people or the 55 lakh people?"
Although there are no official figures of Hindu or Muslim migrants from Bangladesh in Assam, political groups often claim that the state has about 55 lakh Bangladeshi migrants. The reference to "1-1.5 lakh" people, however, does not match any known figure.
"The whole thing is that we have to decide who our enemy is. Who is our enemy, the 1-1.5 lakh people or the 55 lakh people? The Assamese community is at the crossroads. We could not (save) 11 districts. If we continue to remain this way, six more districts will go out (of our hands) in the 2021 Census. In 2031, more (districts) will go out," said Sarma, pressing for the Bill.
While Sarma referred to "11 districts", the 2011 Census identified nine districts as areas with Muslim majority, up from six in 2001.
साभारः इंडियन एक्सप्रेस
इस सरकारी अल्फाई बयान से असम के अलावा बाकी भारत पर भी अल्फाई राजकाज का असर समझा जा सकता है।सीधे तौर पर मुसलमानों को निशाना बांधकर चांदमारी का मामला कश्मीर घाटी में जो चल रहा है,जैसे यूपी और बाकी भारत में फर्जी मुठभेडो़ं का खेल है,आदिवासियों के खिलाफ सैन्य अभियान है और उसे बहुसंख्य जनता का अंध समर्थन है,ऐसे मुश्किल हालात में करीब दस करोड़ विभाजनपीड़ितों की नागरिकता छीनने की बेशर्म जिहाद का असल मकसद मुसलमानों की चांदमारी है और उन विभाजनपीड़ितों के नागरिक और मानवाधिकार का निषेध है,यह समझना पीड़ितों और शरणार्थियों दोनों के लिए समझना मुश्किल है।
फिलहाल यूपी का कुरुक्षेत्र लड़ने के लिए संघ परिवार का यह जिहाद अनिवार्य है,यह बात तो समझ में आती है।लेकिन वामदलों,तृणमूल कांग्रेस और कांग्राेस की धर्मनिरपेक्षता का अस मकसद क्या है,यह समझ से परे है।
बहरहाल विभाजन के बाद अब भी दुनिया की सबसे बड़ी मुसलमान आबादी भारत में है।कश्मीर में मुसलमानों का बहुमत है और असम,यूपी,बिहार,महाराष्ट्र,बंगाल जैसे अनेक राज्यों में मुसलमानों के समर्थन के बिना कोई सरकार नहीं बन सकती।
ऐसे हालात में मजहबी सियासत की इस खतरनाक चाल से देश के भीतर असंख्य पाकिस्तान बनाने का यह उपक्रम है।जिसका नजारा असम और बंगाल में साफ साफ दीख रहा है।
भारत में हजरत बल संकट,गुजरात नरसंहार और बाबरी विध्वंस का खामियाजा बांग्लादेश और दुनियाभर के हिंदुओं को भुगतना पड़ा है।
बांग्लादेश में अब भी दो करोड़ हिंदू हैं,जिनपर लगातार हमले होते जा रहे हैं।हाल में ये हमले बहुत तेज हो गये है।अबी एक फेसबुक पोस्ट को लेकर बांग्लादेश में हिंदुओं पर जगह जगह हमले हो रहे हैं।
असम और बंगाल में धार्मिक ध्रूवीकरण की राजनीति का क्या असर होना है,यह समझने वाली बात है जबकि असम में राजकाज अल्फाई है।
दूसरी ओर,बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार विभाजनपीडितों को नागरिकता देने के खिलाफ हैं।मुसलमान वोट बैंक वामदलों से छीनकर वे मुख्यमंत्री बनी हैं।बागाल में दुर्गोत्सव से पहले लगभग हर जिले में हालात दंगाई थे।
अब भी बंगाल के हर जिले में हिंदू मुसलमान टकराव की राजनीति चल रही है और वामदलों को हाशिये पर रखकर भाजपा और तृणमूल कांग्रेस खुलकर वोटबैंक की यह राजनीति कर रही हैं।वामदलों की राजनीति मुसलमान वोट बैंक छीने की राजनीति है और विभाजन पीड़ित हिंदू शरणार्थियों के लिए मरीचझांपी नरसंहार है।
2003 के नागरिकता संशोधन कानून का बंगाल के किसी राजनेता ने विरोध नहीं किया था।उस वक्त वामदलों का शासन था।संसदीय समिति के अध्यक्ष कांग्रेस के प्रणव मुखर्जी थे।पूर्वी बंगाल के विभाजनपीड़ितों की तब किसी ने परवाह नहीं की।अब मुसलमानों को नागरिकता देने की मांग करते हुए तृणमूल कांग्रेस,कांग्रेस और वामदल नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध कर रही हैं।जाहिर है कि केंद्र और असम सरकार के ताजा बयान का लक्ष्य सिर्फ असम नहीं है।वे बंगाल में और बाकी देश में भी हिंदू विभाजनपीड़ितों के एकमात्र तरणहार खुद को साबित करने लगे हैं।
मुसलमान वोटबैंक हर कीमत पर दखल में रखने की होड़ में शामिल कांग्रेस,तृणमूल कांग्रेस और वामदलों की राजनीति के मुकाबले संघ परिवार का यह तुरुप का पत्ता है ,जिसके तहत सीधे मुसलमानों को दुश्मन करार दिया जा रहा है।जबकि बंगाल का कोई रोजनीतिक दल विभाजनपीड़ित हिंदू शरणार्थियों के पक्ष में नहीं है।हिंदुओं का पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में ध्रूवीकरण का यह संघ परिवार का अभूतपूर्व मौका है।जिसे बाकी दल जानबूझकर अंजाम तक पहुंचा रहे हैं।
बांग्लादेश में बंगाल और असम और बाकी भारत में मुसलमानविरोधी इस मजहबी सियासत का वहां के दो करोड़ हिंदुओं पर क्या असर होगा या लगातार हमलों की वजह से वे बांग्लादेस में रह सकेंगे या नहीं,इसे लेकर किसी राजनीतिक पक्ष को कोई सरदर्द नहीं है और उनकी मजहबी सियासत का अंतिम लक्ष्य सत्ता है।
बहरहाल,बंगाल में नौ करोड की आबादी में अगर सात करोड़ बंगाली हैं तो चार करोड़ लोग पूर्वी बंगाल से आये शरणार्थी हैं।बंगाल सरकार में उनका कोई मंत्री नहीं है।वाम जमाने में जो भूमि सुधार मंत्रालय रहा है,ममता बनर्जी भूमि आंदोलन की नेता बतौर सत्ता में दोबारा आने के बाद उसे खत्म कर रही हैं।अब भूमि सुधार निषेध है।
1971 में इंदिरा मुजीब समझौते के तहत बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों का पंजीकरण बंद होने के साथ साथ इंदिरा गांधी ने केंद्र सरकार का पुनर्वास मंत्रालय बंद कर दिया है लेकिन तब से लेकर अब तक सीमापार से आनेवाले शरणार्थियों की तुलना में भारत में जल जंगल जमीन से बेदखल विस्थापितों की संख्या कई गुणा ज्यादा है,जिनके पुनर्वास का कोई बंदोबस्त नहीं है।
बंगाल में लेकिन पुनर्वास मंत्रालय अभीतक है,जिसे अब ममता बनर्जी खत्म कर रही हैं।चुस्त प्रशासनके नाम पर ममता बनर्जी अनुसूचितों के मंत्रालय पर ताला लगाने की तैयारी कर रही हैं।ये सारे कदम शरणार्थियों और अनुसूचितों के खिलाफ हैं।
ऐसे में शरणार्थियों के केसरियाकरण का असर कितना व्यापक होगा,इसका अदाजा लगा लीजिये।मजहबी सियासत के लिए नागरिकता कानून ब्रह्मास्त्र बन गया है जिसके बलि 2003 से अबतक हिंदू शरणार्थी होते रहे हैं और अब सुरासुर संग्राम है और असुरों का सफाया तय है तो समझ लीजिये कि हिंदू हो या मुसलमान,शरणार्थियों की खैर नहीं।क्योकि सत्तापक्ष दोनों के खिलाफ दोनों में दंगे कराने की तैयारी में है।
इसके तहत संघ परिवार विभाजनपीड़ितों का एकमुश्त हिंदुत्वकरण कर रही है तो असम और बंगाल समेत पूरे पूर्वोत्तर और पूर्वी भारत में गुजरात और खस्मीर जैसे हालात पैदा करके सत्ता पर अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश कर रही है। नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 के जरिये विभाजनपीड़ितों की 2003 के कानून के तहत छिनी नागरिकता वापस करने का जो उपक्रम है,उसमें भारत में बाहर से आने वाले गैरमुसलिम शरणार्थियों को नागरिकता देने के प्रावधान है जो संवैधानिक ढांचे के मुताबिक समानता के मौलिक अधिकार के खिलाफ है तो अंतरराष्ट्रीय कानून के खिलाफ भी है।
संघ परिवार ने इस रणनीति के तहत इस विधेयक के खिलाफ वामदलों,तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस समेत धर्मनिरपेक्ष दलों को लामबंद कर दिया है तो संघ परिवार के दावे के मुताबिक राज्यसभा में बहुमत न होने की वजह से इस विधेयक के पारित होने की संभावना बहुत कम है।दूसरी तरफ लोकसभा में बहुमत और राज्यसभा में जोड़ तोड़ के तहत यहकानून पास हो गया तो इसकी तकनीकी खामियों की वजह से इसे लागू करना बहुत मुश्किल है।
राष्ट्र का सैन्यीकरण देश को विदेशी पूंजी के हवाले करने के लिए अनिवार्य है।ताकि अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली,जल जगंल जमीन आजीविका रोजगार नागरिक मानवाधिकार और पर्यावरण से बेदखली के खिलाफ कोई प्रतिरोध न हो।
इसीलिए माहौल यह बनाया गया है कि सिर्फ सैनिकों को हम शहीद मानने लगे हैं और नागरिकों की शहादत हमारे लिए बेमतलब है।सेना को हम तीज त्योहारों के सात जोड़कर धर्मोन्मादी युद्धोन्माद का कार्निवाल मना रहे हैं।
औद्योगीकरण और शहरीकरण के मार्फत अंधाधुंध अबाध विदेशी पूंजी की घुसपैठ से किसानों की थोक आत्महत्या के बाद खुदरा बाजार बेदखल है और विदेशी पूंजी के मुकाबले उद्योग और कारोबार जगत में देशी कंपनियां हिंदुस्तानी बाजार से बेदखल हो रही है।टाटा संस के विवाद में डोकोमो का किस्सा भी नैनो से नत्थी है।जिससे टाटा समूह का बेड़ा गर्क हुआ है।इनी गिनी दो चार कंपनियों को छोड़ दें,तो बाकी भारतीय कंपरनियों की टाटा जैसी दुर्गति तय है।
जाहिर है कि शहादत का सिलसिला सीमाओं पर ही नहीं,खेतों खलिहानों पर ही नहीं,उद्योग और कारोबार के हर सेक्टर में शुरु हो गया है।
इसके बावजूद राजनीतिक नेतृत्व जो अंध राष्ट्रवाद का आवाहन करके निरंकुश पितृसत्ता के फासिज्म के तहत मजहबी सियासत के तहत सेना का राजनीतिकरण पर आमादा है और सेना के साथ खड़े होने की भावुक अपीलें जारी कर रहा है,उसका सीधा मतलब है कि सेना को नहीं,बल्कि हम उनके युद्ध और गृहयुद्ध के कारोबार का समर्थन करें।यह कुल मिलाकर अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के प्रबल दावेदार डोनाल्ड ट्रंप की ही राजनीति का ग्लोबीकरण है,जो इजराइल का मुसलमानों के खिलाफ जिहाद है।हम अमेरिका और इजराइल के पार्टनर हैं तो हमारी राजनीति भी अमेरिका और इजराइल की राजनीति है।राजनय का अंजाम भी वही है।जो युद्ध सीरिया के बहाने तीसरा विश्वयुद्ध में तब्दील होने जा रहा है,हम भारत को उसी युद्ध में जानबूझकर शामिल कर रहे हैं तो तीसरे विश्वयुद्ध के महाविनाश के हिस्सेदार बी होंगे हम।मुसलमानों के खिलाफ खुला जिहाद भारत में अरब वसंत का अबाध प्रवाह बन चुका है।
याद करें कि हम पहले ही लिख चुके हैं कि हम यह भी नहीं देख रहे हैं कि अमेरिका परमाणु युद्ध की तैयारी में है और भारत उनके लिए सिर्फ बाजार है।इस बाजार पर कब्जे के लिए वह कुछ भी करेगा।
जाहिर है कि हम यह देख नहीं रहे हैं कि दो दलीय संसदीय तंत्र में जनता के लिए अपना प्रतिनिधि चुनने का कोई विकल्प है ही नहीं।राष्ट्रीय नेतृत्व जो हम चुनते हैं वह देश की एकता ,अखंडता और संप्रभुता की निर्विकल्प समाधि है।अमेरिकी चुनाव में यह बहुत कायदे से साबित हो रहा है।तथाकथित राष्ट्रीय नेतृत्व न राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है और न जनता का, वह कुलमुिलाकर गुजरात नरसंहार या सिखों के नरसंहार या बाबरी विध्वंस के तहत धार्मिक ध्रूवीकरण का अनचाहा चुनाव नतीजा है।भारत में ऐसा बार बरा होता रहा है और अमेरिका में अबकी दफा यह खुल्ला खेल फर्ऱूखाबादी है।
अरबपति डोनाल्ड ट्रंप को रूस का समर्थन है और इजराइल का भी समर्थन है।मुसलमानों के खिलाफ जिहाद का ऐलान करने वाले इस धनकुबेर को अमेरिकी मतदाता सिरे से नफरत करते हैं।लेकिन अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बाराक ओबामा की विदेश मंत्री बतौर आइसिस को जन्म देनेवाली हिलेरी के ईमेल से पर्दाफाश हो गया है कि वे अमेरिका के खिलाफ युद्ध कर रही आतंकवादी संस्थाओं को लगातार पैसा और हथियार देती रही हैं।
पिछले 23 अक्तूबर तक बारह प्वाइंट से आगे चल रही हिलेरी अब ट्रंप से एक प्वाइंट पीछे हैं।यानी अमेरिकी जनता हिलेरी को भी राष्ट्रपति पद पर देखना नहीं चाहती।इस बीच कुछ राज्यों में चुनाव पहले से शुरु हो जाने से करीब दो करोड़ वोट पड़ चुके हैं और वहां दोबारा मतदान नहीं हो सकता।
समझा जा सकता है कि इन वोटों से हिलेरी को बढ़त मिली हुई है।अब नतीजा चाहे जो हो,अमेरिकी जनता हिलेरी या ट्रंप में से किसी एक को चुनने के लिए मजबूर है जबकि दोनों अमेरिकी हितों के खिलाफ हैं।
जाहिर है कि दो दलीय संसदीय प्रणाली लोकतंत्र के लिए ब्लैकहोल की तरह है।हमारे यहां उस तरह दो दलीय लोकतंत्र नहीं है।चुनाव में असंख्य पार्टियां केंद्र और राज्यों में सत्ता संघर्ष में शामिल हैं।लेकिन सही मायने में सत्ता के ध्रूवीकरण को देखें तो हमारे यहां भी दो दलीय संसदीय प्रणाली है।
भारतीय लोकतंत्र में कांग्रेस और भाजपा एक दूसरे के विकल्प हैं।बाकी दल उनके पक्ष विपक्ष में उनके साथ या विरोध में हैं।तीसरा कोई पक्ष भारत में भी नहीं है।वामपक्ष या बहुजन पक्ष या समाजवादी खेमा भाजपा और कांग्रेस के साथ सत्ता में केंद्र या राज्य में साझेदारी तो कर सकता है,लेकिन राजकाज और राष्ट्रीय नेतृत्व फिर कांग्रेस या भाजपा का है,जिनका कोई विकल्प नहीं है।
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में हम अपना आइना देख सकते हैं कि कैसे राष्ट्रविरोधी ताकतों के हाथों लोकतंत्र का दिवाला निकलता है।
हमने पहले ही लिखा है कि मुश्किल यह है कि हमारी राजनीति जितनी अंध है, उससे कुछ कम हमारी राजनय नहीं है।हम दुनिया को अमेरिकी नजर से देख रहे हैं और हमारी कोई दृष्टि है ही नहीं।हमें अमेरिकी कारपोरेट हितों की ज्यादा चिंता है,भारत या भारतीय जनता के हितों की हमें कोई परवाह नहीं है।
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