साठ वर्ष पहले 1952 में दादी के साथ गाँव से निकला था, आज 2012 में अपने दो पोतों के साथ ग्राम देवताओं का आभार व्यक्त करने के लिए सपरिवार गाँव आया हूँ। शाम को वापसी के लिए टैक्सी खड़ी है।
जब तक दादी थी, शीतावकाश में गाँव में ही बीतता था। 1962 में दादी के महाप्रयाण के बाद वह भी संभव नहीं रहा। घर में कोई था नहीं अतः गाँव आने का क्रम टूट गया। 1964 में विवाह हुआ। सारे परिजन घर आये, रत्याली हुई, सारा गाँव प्रीतिभोज में सम्मिलित हुआ। एक दो वर्ष शीतावकाश में गाँव आने का चला, फिर टूट गया। कभी-कभार निकट संबंधियों के विवाह आदि में गाँव आने का अवसर मिले भी तीस साल हो गये।
गाँव वहीं पर है। गाँव के बीचों-बीच पूरे गाँव को अपने दो हाथों में थामता हुआ सा पीपल का विशाल वृक्ष अपनी जगह पर अविचल खड़ा है। ग्रीष्म की तपती दुपहरी में सारे गाँव को अपनी गोद में समेट लेने वाली उसकी शीतल छाया यथावत् है। रास्ते पक्के हो चुके हैं। तब सड़क से दो कि.मी. की चढ़ाई पैदल पार कर गाँव पहुँचते थे, अब सड़क मेरे आँगन में आ गयी है। पानी के लिए एक कि.मी. दूर जाना पड़ता था अब वह भी दरवाजे पर आ गया है। लालटेन की जगह बिजली ने ले ली है। नैनीताल से केबिल के सहारे दूरदर्शन की रंगीनियाँ आठों पहर दस्तक दे रही हैं। घर-घर में टेलीफोन घनघना रहे हैं। अधिकतर घरों के आँगन में मोटर साइकिल विराजमान है। लेकिन गाँव लगभग खाली हो चुका है। लोग अधिक सुविधाओं की तलाश में शहरों की ओर निकल चुके हैं।
पर्वतीय नदियाँ अनवरत प्रवहमान है। इस प्रवाह में अनगढ़ शिलाखंड भाबर में ही ठहर जाते हैं, मसृण रेत आगे निकल जाती है। उसमें भी जो अधिक उपयोगी होती है, वह लोगों के हाथों बहुत दूर तक पहुँच जाती है। यही स्थिति हम पर्वतीय जनों की भी है। गरीबी की सीमा से उठे परिवार अपना सब कुछ बेच कर भाबर में बस रहे हैं। अगली पीढ़ी पढ़ लिख कर भाबर से भी जा रही है। आगे और आगे, दिल्ली, मुंबई, बंगलूरु, सिंगापुर, दुबई, लन्दन, न्यूयार्क ....जहाँ तक मानव सभ्यता ले जाये।
हम सब अन्तहीन यात्रा के साक्षी ही तो हैं।
( मेरी पुस्तक महाद्वीपों के आर-पार से)
जब तक दादी थी, शीतावकाश में गाँव में ही बीतता था। 1962 में दादी के महाप्रयाण के बाद वह भी संभव नहीं रहा। घर में कोई था नहीं अतः गाँव आने का क्रम टूट गया। 1964 में विवाह हुआ। सारे परिजन घर आये, रत्याली हुई, सारा गाँव प्रीतिभोज में सम्मिलित हुआ। एक दो वर्ष शीतावकाश में गाँव आने का चला, फिर टूट गया। कभी-कभार निकट संबंधियों के विवाह आदि में गाँव आने का अवसर मिले भी तीस साल हो गये।
गाँव वहीं पर है। गाँव के बीचों-बीच पूरे गाँव को अपने दो हाथों में थामता हुआ सा पीपल का विशाल वृक्ष अपनी जगह पर अविचल खड़ा है। ग्रीष्म की तपती दुपहरी में सारे गाँव को अपनी गोद में समेट लेने वाली उसकी शीतल छाया यथावत् है। रास्ते पक्के हो चुके हैं। तब सड़क से दो कि.मी. की चढ़ाई पैदल पार कर गाँव पहुँचते थे, अब सड़क मेरे आँगन में आ गयी है। पानी के लिए एक कि.मी. दूर जाना पड़ता था अब वह भी दरवाजे पर आ गया है। लालटेन की जगह बिजली ने ले ली है। नैनीताल से केबिल के सहारे दूरदर्शन की रंगीनियाँ आठों पहर दस्तक दे रही हैं। घर-घर में टेलीफोन घनघना रहे हैं। अधिकतर घरों के आँगन में मोटर साइकिल विराजमान है। लेकिन गाँव लगभग खाली हो चुका है। लोग अधिक सुविधाओं की तलाश में शहरों की ओर निकल चुके हैं।
पर्वतीय नदियाँ अनवरत प्रवहमान है। इस प्रवाह में अनगढ़ शिलाखंड भाबर में ही ठहर जाते हैं, मसृण रेत आगे निकल जाती है। उसमें भी जो अधिक उपयोगी होती है, वह लोगों के हाथों बहुत दूर तक पहुँच जाती है। यही स्थिति हम पर्वतीय जनों की भी है। गरीबी की सीमा से उठे परिवार अपना सब कुछ बेच कर भाबर में बस रहे हैं। अगली पीढ़ी पढ़ लिख कर भाबर से भी जा रही है। आगे और आगे, दिल्ली, मुंबई, बंगलूरु, सिंगापुर, दुबई, लन्दन, न्यूयार्क ....जहाँ तक मानव सभ्यता ले जाये।
हम सब अन्तहीन यात्रा के साक्षी ही तो हैं।
( मेरी पुस्तक महाद्वीपों के आर-पार से)
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