BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Sunday, January 11, 2015

Rajiv Lochan Sah मुख्यमंत्री हरीश रावत अब पूरी तरह बेनकाब हो गये हैं।




5 hrs · 

जाते हुए साल में बड़े गुस्से और अफसोस के साथ यह टिप्पणी लिखी, 'नैनीताल समाचार' के ताज़ा अंक के लिये :-
28 दिसम्बर 2014 की कैबिनेट बैठक के बाद मुख्यमंत्री हरीश रावत अब पूरी तरह बेनकाब हो गये हैं। वैसे भी एक साल से अधिक किसी मंत्री या मुख्यमंत्री को अपनी क्षमता दिखाने के लिये नहीं दिये जा सकते। डाॅ. राम मनोहर लोहिया कहते थे कि जिन्दा कौमें पाँच साल तक इन्तजार नहीं करतीं। हरीश रावत को लेकर सब को मुगालता था कि ग्रामीण पृष्ठभूमि, तृणमूल स्तर से राजनीति करने, अपनी पार्टी के भीतर विभिन्न पदों पर रहने और केन्द्र सरकार में एकाधिक मंत्रालयों में काम करने के अनुभव के कारण वे उत्तराखंड के सबसे सफल मुख्यमंत्री साबित होंगे। इससे पहले किसी मुख्यमंत्री में ये सभी योग्यतायें थीं तो वे थे नारायणदत्त तिवारी। मगर शुरू से ही पृथक राज्य के धुर विरोधी रहे तिवारी नये राज्य का निर्माण करने अथवा शासन करने नहीं, रिटायरमेंट के दिन काटने उत्तराखंड में आये थे।
रावत सरकार के पहले चार-पाँच महीनों के कामकाज पर किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया, क्योंकि उन्हें विजय बहुगुणा का छोड़ा हुआ मलबा साफ करना था और उसी बीच लोकसभा व उसके बाद पंचायत चुनावों की आचार संहिता लग गई थी। अपनी सरकार के असंतुष्ट मंत्रियों से भी उन्हें बार-बार दो-चार होना पड़ रहा था। जब तक वे इनसे निपटते, उन्हें गंभीर चोट लग गई। आज भी उनकी गर्दन का पट्टा उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा बना हुआ है।
मगर अब उन्हें लेकर मोहभंग की स्थितियाँ पूरी तरह साफ हो गई हैं। कोई भी व्यक्ति उनसे मिल कर बहुत संतुष्ट हो कर लौटता है, क्योंकि वे उत्तराखंड की सारी समस्याओं को समझते भी हैं और उनके समाधान में रुचि लेते भी दिखाई देते हैं। मगर अन्ततः फैसले वे वही लेते हैं, जो उनकी पार्टी के महिषासुरों, अर्थात् ठेकेदारों, दलालों और माफियाओं के हित के होते हैं। इसका ताजा उदाहरण 28 दिसम्बर की कैबिनेट बैठक में लिये गये सूक्ष्म एवं अति लघु विद्युत परियोजनाओं तथा ईको सेंसिटिव जोन सम्बन्धी निर्णय हैं।
जल परियोजनाओं को लेकर सूक्ष्म स्तर और ग्राम सभाओं तक जाने की बात हर समझदार व्यक्ति करता है (देखें नैनीताल समाचार, 15 से 31 दिसम्बर 2014)। मगर जब इस सिद्धान्त को जमीन पर उतारने की बात आई तो रावत फिर एक बार बड़ी पूँजी वालों और ठेकेदारों के पक्ष में झुके, ग्रामीणों और स्थानीय समुदाय के नहीं। कैबिनेट का यह फैसला लागू हुआ तो ग्रामीण एक बार अपना अंगूठा लगा देने के बाद फिर परियोजनाओं से बाहर हो जायेंगे, शायद अपने गाँवों से भी बाहर हो जायें। पानी से प्राप्त ऊर्जा का सारा मजा कम्पनियों वाले लेंगे। इससे पहाड़ी गाँवों में गरीबी और पलायन का तांडव और तेज होगा। चूँकि उत्तराखंड की बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं पर दुनियाँ भर में विवाद उठे थे, विशेषकर जून 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद। इसीलिये रावत सरकार ने गाँव वालों की आड़ में बड़ी कम्पनियों और ठेकेदारों को उपकृत करने का यह शातिर तरीका निकाला है।
कैबिनेट का दूसरा फैसला ईको सेंसिटिव जोन को वापस लेने के लिये केन्द्र सरकार से आग्रह करने के बारे में है। ईको सेंसिटिव जोन को लेकर विरोध दो तरह से हो रहा है। पहला, अब तक प्रदेश में अभयारण्यों आदि के रूप में जिस तरह स्थानीय समुदाय को वंचित किया गया है, उस अनुभव को देखते हुए वामपंथी सोच के लोग इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि ईको सेंसिटिव जोन से शायद स्थानीय ग्रामीण समुदाय एक बार फिर से विपरीत रूप में प्रभावित होगा। मगर न ईको सेंसिटिव जोन को लेकर पूरी बातचीत हुई है और न स्थितियाँ पूरी तरह साफ हैं। ईको सेंसिटिव जोन के विरोध को लेकर जो दूसरी लाॅबी मुखर है, वह कांग्रेस, भाजपा और उत्तराखंड क्रांति दल आदि के भीतर पैठी ठेकेदार लाॅबी है, जो चाहती है कि निर्माण कार्यों को लेकर चल रही उसकी ठेकेदारी में कोई रोक-टोक न हो। वे धड़ल्ले से तथाकथित विकास कार्य करें, चाहे उसके बाद केदारनाथ जैसे एक नहीं दर्जनों हादसे हो जायें और यह पूरा पर्वतीय प्रदेश मरुभूमि बन जाये। यह ठेकेदार लाॅबी उत्तराखंड की राजनीति मंे इतनी मजबूत है कि इस नवजात प्रदेश को मजाक में 'ठेकेदारखंड' भी कहा जाने लगा है। हरीश रावत सरकार ने इस ठेकेदार लाॅबी के दबाव में ही ईको सेंसिटिव जोन का मामला इतना अधिक चढ़ाया है, स्थानीय और ग्रामीण हितों की पैरोकार वाम ताकतों के पक्ष में नहीं। क्योंकि यदि हरीश रावत ईको सेंसिटिव जोन को नहीं मानते तो उन्हें यह भी तो बतलाना चाहिये कि फिर ठेकेदार लाॅबी को उपकृत करने के अतिरिक्त उत्तराखंड के विकास का कौन सा माॅडल उनके पास है ?

जाते हुए साल में बड़े गुस्से और अफसोस के साथ यह टिप्पणी लिखी, 'नैनीताल समाचार' के ताज़ा अंक के लिये :-    28 दिसम्बर 2014 की कैबिनेट बैठक के बाद मुख्यमंत्री हरीश रावत अब पूरी तरह बेनकाब हो गये हैं। वैसे भी एक साल से अधिक किसी मंत्री या मुख्यमंत्री को अपनी क्षमता दिखाने के लिये नहीं दिये जा सकते। डाॅ. राम मनोहर लोहिया कहते थे कि जिन्दा कौमें पाँच साल तक इन्तजार नहीं करतीं। हरीश रावत को लेकर सब को मुगालता  था कि ग्रामीण पृष्ठभूमि, तृणमूल स्तर से राजनीति करने, अपनी पार्टी के भीतर विभिन्न पदों पर रहने और केन्द्र सरकार में एकाधिक मंत्रालयों में काम करने के अनुभव के कारण वे उत्तराखंड के सबसे सफल मुख्यमंत्री साबित होंगे। इससे पहले किसी मुख्यमंत्री में ये सभी योग्यतायें थीं तो वे थे नारायणदत्त तिवारी। मगर शुरू से ही पृथक राज्य के धुर विरोधी रहे तिवारी नये राज्य का निर्माण करने अथवा शासन करने नहीं, रिटायरमेंट के दिन काटने उत्तराखंड में आये थे।    रावत सरकार के पहले चार-पाँच महीनों के कामकाज पर किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया, क्योंकि उन्हें विजय बहुगुणा का छोड़ा हुआ मलबा साफ करना था और उसी बीच लोकसभा व उसके बाद पंचायत चुनावों की आचार संहिता लग गई थी। अपनी सरकार के असंतुष्ट मंत्रियों से भी उन्हें बार-बार दो-चार होना पड़ रहा था। जब तक वे इनसे निपटते, उन्हें गंभीर चोट लग गई। आज भी उनकी गर्दन का पट्टा उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा बना हुआ है।   मगर अब उन्हें लेकर मोहभंग की स्थितियाँ पूरी तरह साफ हो गई हैं। कोई भी व्यक्ति उनसे मिल कर बहुत संतुष्ट हो कर लौटता है, क्योंकि वे उत्तराखंड की सारी समस्याओं को समझते भी हैं और उनके समाधान में रुचि लेते भी दिखाई देते हैं। मगर अन्ततः फैसले वे वही लेते हैं, जो उनकी पार्टी के महिषासुरों, अर्थात् ठेकेदारों, दलालों और माफियाओं के हित के होते हैं। इसका ताजा उदाहरण 28 दिसम्बर की कैबिनेट बैठक में लिये गये सूक्ष्म एवं अति लघु विद्युत परियोजनाओं तथा ईको सेंसिटिव जोन सम्बन्धी निर्णय हैं।   जल परियोजनाओं को लेकर सूक्ष्म स्तर और ग्राम सभाओं तक जाने की बात हर समझदार व्यक्ति करता है (देखें नैनीताल समाचार, 15 से 31 दिसम्बर 2014)। मगर जब इस सिद्धान्त को जमीन पर उतारने की बात आई तो रावत फिर एक बार बड़ी पूँजी वालों और ठेकेदारों के पक्ष में झुके, ग्रामीणों और स्थानीय समुदाय के नहीं। कैबिनेट का यह फैसला लागू हुआ तो ग्रामीण एक बार अपना अंगूठा लगा देने के बाद फिर परियोजनाओं से बाहर हो जायेंगे, शायद अपने गाँवों से भी बाहर हो जायें। पानी से प्राप्त ऊर्जा का सारा मजा कम्पनियों वाले लेंगे। इससे पहाड़ी गाँवों में गरीबी और पलायन का तांडव और तेज होगा। चूँकि उत्तराखंड की बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं पर दुनियाँ भर में विवाद उठे थे, विशेषकर जून 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद। इसीलिये रावत सरकार ने गाँव वालों की आड़ में बड़ी कम्पनियों और ठेकेदारों को उपकृत करने का यह शातिर तरीका निकाला है।   कैबिनेट का दूसरा फैसला ईको सेंसिटिव जोन को वापस लेने के लिये केन्द्र सरकार से आग्रह करने के बारे में है। ईको सेंसिटिव जोन को लेकर विरोध दो तरह से हो रहा है। पहला, अब तक प्रदेश में अभयारण्यों आदि के रूप में जिस तरह स्थानीय समुदाय को वंचित किया गया है, उस अनुभव को देखते हुए वामपंथी सोच के लोग इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि ईको सेंसिटिव जोन से शायद स्थानीय ग्रामीण समुदाय एक बार फिर से विपरीत रूप में प्रभावित होगा। मगर न ईको सेंसिटिव जोन को लेकर पूरी बातचीत हुई है और न स्थितियाँ पूरी तरह साफ हैं। ईको सेंसिटिव जोन के विरोध को लेकर जो दूसरी लाॅबी मुखर है, वह कांग्रेस, भाजपा और उत्तराखंड क्रांति दल आदि के भीतर पैठी ठेकेदार लाॅबी है, जो चाहती है कि निर्माण कार्यों को लेकर चल रही उसकी ठेकेदारी में कोई रोक-टोक न हो। वे धड़ल्ले से तथाकथित विकास कार्य करें, चाहे उसके बाद केदारनाथ जैसे एक नहीं दर्जनों हादसे हो जायें और यह पूरा पर्वतीय प्रदेश मरुभूमि बन जाये। यह ठेकेदार लाॅबी उत्तराखंड की राजनीति मंे इतनी मजबूत है कि इस नवजात प्रदेश को मजाक में 'ठेकेदारखंड' भी कहा जाने लगा है। हरीश रावत सरकार ने इस ठेकेदार लाॅबी के दबाव में ही ईको सेंसिटिव जोन का मामला इतना अधिक चढ़ाया है, स्थानीय और ग्रामीण हितों की पैरोकार वाम ताकतों के पक्ष में नहीं। क्योंकि यदि हरीश रावत ईको सेंसिटिव जोन को नहीं मानते तो उन्हें यह भी तो बतलाना चाहिये कि फिर ठेकेदार लाॅबी को उपकृत करने के अतिरिक्त उत्तराखंड के विकास का कौन सा माॅडल उनके पास है ?

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