घर वापसी: हिंदू धर्म के नरक में आपका स्वागत है!
Posted by Reyaz-ul-haque on 1/09/2015 07:50:00 PM
सत्ता के नशे में चूर, छुपे हुए हजार सिरों वाला संघ परिवार धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ बहुसंख्यक आबादी में नफरत फैला रहा है जिसमें वह गोएबलीय निरंतरता के साथ झूठ और जहरीली साजिशों का सहारा ले रहा है. अति-राष्ट्रवादी लफ्फाजी करते हुए यह इस राष्ट्र के, जो अभी भी परिपूर्ण नहीं है, नाजुक तानेबाने के लिए खतरा बन गया है और देश को एक अपरिहार्य गृह युद्ध की तरफ धकेल रहा है. इसका राजनीतिक संगठन भाजपा, कांग्रेस शासन के बेपरवाह भ्रष्ट, वंशवादी और उद्दंड प्रदर्शन के खिलाफ जनता के आक्रोश को भुनाते हुए केंद्र में सत्ता में आया. इसके लिए उसने विकास के सब्जबाग दिखाए. इसमें उसे कॉरपोरेटों के खजाने से भी भारी मदद मिली. तब से यह दल राज्य दर राज्य चुनाव जीत रहा है. इन जीतों के शुभंकर प्रतीक नरेंद्र मोदी देश के संसाधनों को तेजी से वैश्विक पूंजी के हाथों बेचने की कवायद में लगे हुए हैं, जिसको भारत माता की काल्पनिक महिमा को फिर से स्थापित करने की बेजोड़ करतबों की ओट में छुपाया जा रहा है. यकीनन वे पूंजीवादी दिग्गजों, शेयर दलालों, शातिर धंधेबाजों, सटोरियों और बेशक ऊपर की ओर बढ़ रहे गतिशील मध्य वर्ग के लिए अच्छे दिन लेकर आए हैं, जबकि जमीनी हकीकत में रत्ती भर सुधार नहीं आया है जिसका स्वाभाविक नतीजा यह है कि आम जनता के लिए अपने अस्तित्व को लेकर चिंताएं बढ़ गई हैं.
दूसरी तरफ संघ परिवार की वानर सेना ने इसके जनाधार को मजबूत करने के लिए सांप्रदायिकीकरण करने की अपनी परियोजना को खुला छोड़ दिया है. यह परियोजना उन अनेक नामवाले और अनाम संगठनों तक ही सीमित नहीं है, जिसे संघ परिवार कहा जाता है, बल्कि राज्य में जिम्मेदार पदों पर बैठे व्यक्ति भी इसमें शामिल हैं, जैसे मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी और सुषमा स्वराज. इसके सांसदों के बारे में तो कहना ही क्या, जिन्होंने अपनी बेमिसाल अतार्किकता और बेवकूफी से अपनी पहचान बनाई है. स्कूलों पर संस्कृत थोपने जैसे ईरानी के हिंदुत्ववादी प्रस्ताव आदि लगातार विवादों में बने हुए हैं और भगवद गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने का, स्वराज द्वारा दिया गया सुझाव भी एक अनिष्टकारी झलकी है. बेशक पुराने भगवा एजेंडों – जम्मू कश्मीर के विशेष दर्जे (अनुच्छेद 370) को खत्म करने, समान नागरिक संहिता लाने और चुनावों में मतदान को अनिवार्य बनाने वगैरह – को आगे के लिए बचा कर रखा गया है. संघ परिवार के मुखिया मोहन भागवत ने पहले ही भारत को एक हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया है और उनका इरादा सभी मुसलमानों और ईसाइयों को 2021 तक हिंदू बनाना है. उन्होंने बंदरों की अपनी सेना को इस कार्यभार को पूरा करने की जिम्मेदारी सौंपी है, जिसे उन्होंने घर वापसी का नाम दिया है.
दूसरी तरफ संघ परिवार की वानर सेना ने इसके जनाधार को मजबूत करने के लिए सांप्रदायिकीकरण करने की अपनी परियोजना को खुला छोड़ दिया है. यह परियोजना उन अनेक नामवाले और अनाम संगठनों तक ही सीमित नहीं है, जिसे संघ परिवार कहा जाता है, बल्कि राज्य में जिम्मेदार पदों पर बैठे व्यक्ति भी इसमें शामिल हैं, जैसे मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी और सुषमा स्वराज. इसके सांसदों के बारे में तो कहना ही क्या, जिन्होंने अपनी बेमिसाल अतार्किकता और बेवकूफी से अपनी पहचान बनाई है. स्कूलों पर संस्कृत थोपने जैसे ईरानी के हिंदुत्ववादी प्रस्ताव आदि लगातार विवादों में बने हुए हैं और भगवद गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने का, स्वराज द्वारा दिया गया सुझाव भी एक अनिष्टकारी झलकी है. बेशक पुराने भगवा एजेंडों – जम्मू कश्मीर के विशेष दर्जे (अनुच्छेद 370) को खत्म करने, समान नागरिक संहिता लाने और चुनावों में मतदान को अनिवार्य बनाने वगैरह – को आगे के लिए बचा कर रखा गया है. संघ परिवार के मुखिया मोहन भागवत ने पहले ही भारत को एक हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया है और उनका इरादा सभी मुसलमानों और ईसाइयों को 2021 तक हिंदू बनाना है. उन्होंने बंदरों की अपनी सेना को इस कार्यभार को पूरा करने की जिम्मेदारी सौंपी है, जिसे उन्होंने घर वापसी का नाम दिया है.
खरा और साफ झूठ
संघ परिवार झूठ पर ही फलता-फूलता है. यह अपनी बेवकूफी भरी हरकतों को जायज ठहराने के लिए झूठा इतिहास गढ़ता है. भागवत ने यह कह कर धर्म परिवर्तन के कार्यक्रम को जायज ठहराया है कि चोरों द्वारा छीन लिए गए लोगों को वापस लाया जा रहा है. यह घटिया उपमा मुसलमानों और ईसाइयों को चोर बताती है, जिन्होंने धोखे से हिंदुओं का धर्मपरिवर्तन करा दिया था. वे जिन मुसलमानों से इतना नफरत करते हैं, उनके बारे में फैलाई गई झूठी बातों को खुद स्वामी विवेकानंद जैसी शख्सियत ने खारिज किया था, जो हिंदुओं को इतने पसंद हैं. विवेकानंद ने लिखा था, 'भारत के गरीबों में इतने सारे मुसलमान क्यों हैंॽ यह कहना बकवास है कि तलवार के बल पर उनका धर्म परिवर्तन किया गया. यह जमींदारों और पुरोहितों से आजादी पाने के लिए था...' (कलेक्टेड वर्क्स, वॉल्युम 8, पृ. 330). अगर मुसलमान शासकों ने तलवार के बल पर लोगों का धर्म परिवर्तन कराया होता तो क्या उन्होंने मोहन भागवत के पूर्वजों को छोड़ दिया होताॽ मुस्लिम शासन के आठ सौ साल पूरे भारत को एक मुसलमान देश बनाने के लिए काफी थे. आज जो भागवत और तोगड़िया जैसे लोग सांप्रदायिक जहर फैलाने के लिए मौजूद हैं, यही बात अपने आप में इसका सबूत है कि मुसलमान शासक धर्म परिवर्तन नहीं करा रहे थे. उनकी तलवार शासकों की तलवार थी, ठीक हिंदू राजाओं की तरह, जिसका मकसद लोगों को अपने अधीन लाना और धन बटोरना था. इतिहास में इसकी काफी घटनाएं मिलती हैं कि कैसे मुसलमान राजा, दूसरे हिंदू राजाओं की मदद से, एक दूसरे के खिलाफ लड़े थे - इसकी उल्टी बात भी सही है – और यह भी कि कैसे दोनों ने मिल कर हिंदू मंदिरों को लूटा जो आज के बैंकों की तरह धन के भंडार हुआ करते थे.
मुख्यत: निचली जातियों के लोग मुसलमान बने और असल में यही बात मोहन भागवत की ब्राह्मणवादी नफरत की जड़ में है. जो मुसलमान बने उन्होंने अपनी मर्जी से इस्लाम कबूल किया था, जिसमें मौजूद बराबरी के विचार को उन्होंने सूफियों के जरिए देखा और महसूस किया था. इस्लाम धर्म के ये रहस्यवादी संत ऐसी जुबान में प्यार और करुणा के संदेश देते थे, जो उनके दिल को छूती थी. हिंदू मंदिरों में उनके घुसने पर पाबंदी थी लेकिन जब भी वे किसी सूफी दरगाहों में जाते उनका स्वागत होता. इस्लाम के बाद, वे ईसाई भी बने, इसलिए नहीं कि उन्हें ईसाई शासकों या मिशनरियों ने मजबूर किया या रिश्वत दी, बल्कि ऐसा उन्होंने अपनी मर्जी से किया. उनके मुसलमान या ईसाई बनने की मुख्य वजह हिंदू धर्म की अलग-थलग करने वाली पाबंदियां और उत्पीड़नकारी जाति व्यवस्था थी. यह बात न सिर्फ धर्म परिवर्तनों की वजह थी, बल्कि गुलामी के इतिहास (विदेशियों के शासन के अर्थ में) और इस उपमहाद्वीप के पिछड़ेपन की वजह भी थी, जिसे संघ परिवार झूठमूठ भारत की महिमा कहा करता है. क्योंकि भारत का ज्यादातर ज्ञात इतिहास बाहरी लोगों के शासन का इतिहास रहा है. अगर वे भारत पर गर्व करना चाहते हैं तो भागवतों और तोगड़ियाओं को, खोखली कर देने वाली इस (जाति) व्यवस्था के बारे में आत्ममंथन करने की जरूरत है. लेकिन इसके बजाए वे ब्राह्मणवाद की पुरानी महिमा को फिर से रचना चाहते हैं और भारत के लिए इस आधुनिक समय में भी शर्मिंदगी की वजह बनना चाहते हैं.
मुख्यत: निचली जातियों के लोग मुसलमान बने और असल में यही बात मोहन भागवत की ब्राह्मणवादी नफरत की जड़ में है. जो मुसलमान बने उन्होंने अपनी मर्जी से इस्लाम कबूल किया था, जिसमें मौजूद बराबरी के विचार को उन्होंने सूफियों के जरिए देखा और महसूस किया था. इस्लाम धर्म के ये रहस्यवादी संत ऐसी जुबान में प्यार और करुणा के संदेश देते थे, जो उनके दिल को छूती थी. हिंदू मंदिरों में उनके घुसने पर पाबंदी थी लेकिन जब भी वे किसी सूफी दरगाहों में जाते उनका स्वागत होता. इस्लाम के बाद, वे ईसाई भी बने, इसलिए नहीं कि उन्हें ईसाई शासकों या मिशनरियों ने मजबूर किया या रिश्वत दी, बल्कि ऐसा उन्होंने अपनी मर्जी से किया. उनके मुसलमान या ईसाई बनने की मुख्य वजह हिंदू धर्म की अलग-थलग करने वाली पाबंदियां और उत्पीड़नकारी जाति व्यवस्था थी. यह बात न सिर्फ धर्म परिवर्तनों की वजह थी, बल्कि गुलामी के इतिहास (विदेशियों के शासन के अर्थ में) और इस उपमहाद्वीप के पिछड़ेपन की वजह भी थी, जिसे संघ परिवार झूठमूठ भारत की महिमा कहा करता है. क्योंकि भारत का ज्यादातर ज्ञात इतिहास बाहरी लोगों के शासन का इतिहास रहा है. अगर वे भारत पर गर्व करना चाहते हैं तो भागवतों और तोगड़ियाओं को, खोखली कर देने वाली इस (जाति) व्यवस्था के बारे में आत्ममंथन करने की जरूरत है. लेकिन इसके बजाए वे ब्राह्मणवाद की पुरानी महिमा को फिर से रचना चाहते हैं और भारत के लिए इस आधुनिक समय में भी शर्मिंदगी की वजह बनना चाहते हैं.
बुरे संकेत
भाजपा की चुनावी जीतों से पूरा संघ परिवार राजनीतिक सत्ता के संरक्षण में तांडव और तमाशा करने के लिए पूरे जोशो-खरोश में है. संकट में चल रही राज व्यवस्था में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति कारगर रहती है, जैसा इसने मोदी को गुजरात जनसंहारों के बाद तीन बार मुख्यमंत्री बनवाया और भाजपा के पिछले लोक सभा चुनावों में 80 में से 74 सीटें दिलवाईं. लेकिन यह सोचना बचकानापन और बेवकूफी होगी कि लोग स्थायी रूप से, इस तरह पहचान पर आधारित मुद्दों के बहकावे में आ जाएंगे. जैसी कि कहावत है, कुछ लोग कुछ समय के लिए बेवकूफ बन सकते हैं लेकिन सभी लोग सारे वक्त बेवकूफ नहीं बन सकते. सबसे ज्यादा वोट पाने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित करने वाली चुनावी व्यवस्था में चुनावी कामयाबी की अनेक वजहें हो सकती हैं. यहां तक कि इस साल भाजपा को कामयाबी इसकी विकास की लफ्फाजी की वजह से ज्यादा और इसकी सांप्रदायिक करतबों से कम मिली थी. अपने शासन को स्थायी बनाने के लिए अपने जनाधार को मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ सांप्रदायिक उन्माद भड़का कर मजबूत करने की इसकी रणनीति से, और यह मान कर चलने से कि दलित और आदिवासी इसके पक्ष में ही हैं, इसके बचकानेपन और घटिया समझदारी की बू आती है, जो इसकी चारित्रिक विशेषता रही है. आधुनिक समय में ऐसा नहीं हो सकता कि राजनीति को धर्म जैसी हवा-हवाई चीजों के आधार पर - जो कि सचमुच में जनता का अफीम है – राजनीति की जाए और उसके बुरे नतीजे नहीं निकलें. इसके नतीजे क्या होते हैं इसकी मिसाल के रूप में हमारे सामने पाकिस्तान मौजूद है. इसलिए, संघ परिवार अपनी बुनियादी सोच पर फिर से गौर करे तो बेहतर है.
बदकिस्मती से, इस आमफहम खयाल के उलट, भारत की राजकाज से भी धर्म पूरी तरह बाहर नहीं हुआ है और हम जिस धार्मिकता के खतरे को (हिंदुत्व इसका सबसे घिनौना रूप है) झेल रहे हैं, वह इसका सीधा नतीजा है. शासक वर्ग की साजिशों ने खुद संविधान में धर्मनिरपेक्षता के उसूल के साथ समझौता किया. उदारवाद की भारी खुराक के साथ और सामाजिक तथा सांप्रदायिक इंसाफ मुहैया कराने के नाम पर संविधान ने जातियों और धर्मों को राजकाज में वैधानिकता प्रदान की. वे लोगों को अपनी मर्जी से चलाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तरकीब के रूप में रखे गए. जैसे कि जब 1970 के दशक में पिछड़ी जातियों के उभार के साथ चुनावी राजनीति में होड़ बढ़ती गई, तो राजनीतिक दलों के बीच उनका इस्तेमाल भी बढ़ता गया. हालांकि तब वे अल्पसंख्यक परस्त रणनीतियों के रूप में ही बने रहे, जिनके प्रभाव भले ही नुकसानदेह हों लेकिन वे घातक नहीं थे. लेकिन उनके उलट भाजपा ने खुलेआम बहुसंख्यकवादी खेल खेला, जिसमें उसने हिंदू बहुसंख्या को छोटे अल्पसंख्यकों के खिलाफ खड़ा किया, जो भारी पैमाने पर घातक हो सकते हैं. हमारे पास 1947 के तबाही लाने वाले नतीजों का अनुभव है, यह देश को एक वास्तविक गृह युद्ध में धकेलने की क्षमता रखता है और युगोस्लाविया की तरह इसके टुकड़े कर सकता है.
बदकिस्मती से, इस आमफहम खयाल के उलट, भारत की राजकाज से भी धर्म पूरी तरह बाहर नहीं हुआ है और हम जिस धार्मिकता के खतरे को (हिंदुत्व इसका सबसे घिनौना रूप है) झेल रहे हैं, वह इसका सीधा नतीजा है. शासक वर्ग की साजिशों ने खुद संविधान में धर्मनिरपेक्षता के उसूल के साथ समझौता किया. उदारवाद की भारी खुराक के साथ और सामाजिक तथा सांप्रदायिक इंसाफ मुहैया कराने के नाम पर संविधान ने जातियों और धर्मों को राजकाज में वैधानिकता प्रदान की. वे लोगों को अपनी मर्जी से चलाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तरकीब के रूप में रखे गए. जैसे कि जब 1970 के दशक में पिछड़ी जातियों के उभार के साथ चुनावी राजनीति में होड़ बढ़ती गई, तो राजनीतिक दलों के बीच उनका इस्तेमाल भी बढ़ता गया. हालांकि तब वे अल्पसंख्यक परस्त रणनीतियों के रूप में ही बने रहे, जिनके प्रभाव भले ही नुकसानदेह हों लेकिन वे घातक नहीं थे. लेकिन उनके उलट भाजपा ने खुलेआम बहुसंख्यकवादी खेल खेला, जिसमें उसने हिंदू बहुसंख्या को छोटे अल्पसंख्यकों के खिलाफ खड़ा किया, जो भारी पैमाने पर घातक हो सकते हैं. हमारे पास 1947 के तबाही लाने वाले नतीजों का अनुभव है, यह देश को एक वास्तविक गृह युद्ध में धकेलने की क्षमता रखता है और युगोस्लाविया की तरह इसके टुकड़े कर सकता है.
घर, या नरक
आगरा में वेद नगर में 8 दिसंबर को 57 परिवारों (करीब 350 लोगों) को आरएसएस से जुड़े धर्म जागरण समन्वय विभाग और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने हिंदू धर्म में परिवर्तित कराया. यह एक बड़ी खबर बन गई, जब यह बात उजागर हुई कि फुटपाथ पर रहनेवाले, कूड़ा बीनने वाले और दूसरे बदहाल तबकों के लोगों से यह वादा किया गया था कि अगर वे धार्मिक आयोजन में भागीदारी करेंगे तो उन्हें राशन कार्ड और बीपीएल कार्ड दिए जाएंगे. यह इससे भी बड़ी खबर तब बनी जब धर्म परिवर्तन करनेवालों में से एक इस्माईल ने पुलिस में शिकायत दर्ज की कि उन्हें ठगा गया था. दिलचस्प बात ये है कि यह पहलकदमी एक दलित नंद किशोर वाल्मीकि ने ली थी, जिन्हें धर्म जागरण के संयोजक के रूप में पेश किया जा रहा है. वे इस भंडाफोड़ के फौरन बाद फरार हो गए लेकिन उन्हें 16 दिसंबर को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. धर्म परिवर्तन कराने के लिए दलित को जानबूझ कर रखा गया था, क्योंकि धर्म परिवर्तन करने वाले संभवत: दलित बनते और सिर्फ वाल्मीकियों के बीच ही स्वीकार्य होते. दिलचस्प बात यह रही है कि आगरा के दलित समुदाय ने इस योजना की हवा निकालते हुए धमकी दी कि अगर नंद किशोर को कुछ हुआ तो वे हड़ताल पर चले जाएंगे और आरोप लगाया कि असली मास्टर माइंड कोई अज्जू चौहान था. हालांकि संघ परिवार के पिट्ठू नंद किशोर ने पूरे जोश में टीवी पर अपनी बात रखी और अपनी करतूत को स्वीकार किया, जिसने कुछ हद तक दलितों की पतित अवस्था को उजागर किया.पतित इसलिए कि आधुनिक दौर में हिंदुत्व ताकतों (अब उन्हें 'हिंदू' की ऊपरी ओट की भी जरूरत नहीं रही, जैसा कि 1995 में सर्वोच्च न्यायालय ने बड़ी चालाकी से हिंदू धर्म को एक जीवन शैली के रूप में परिभाषित किया था) के सामने सबसे बड़ी चुनौती सिर्फ दलितों की ओर से ही आ सकती है, जिनका हिंदू धर्म में कोई हित नहीं है और जो अपनी अपमानजनक अवस्था को आसानी से छोड़ सकते हैं, जैसा उन्होंने अतीत में हिंदू धर्म को छोड़ कर किया था. जातियां अकेली विशेषता हैं जो हिंदू धर्म को परिभाषित करती हैं, बाकी सारी बातें रस्मों और परंपराओं; देवियों और देवताओं, रिवाजों और त्योहारों और साधु-संतों का भेष धरे बाबाओं और बुआओं की बेमेल खिचड़ी है. हालांकि दलित राजनीति का दिवालियापन पतन की इस हद तक पहुंच गया है कि वे खुद को हिंदू फंदे में पाते हैं, उनके सारे राम हनुमान बन गए हैं. आगरा धर्म परिवर्तन के दौर में अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति राष्ट्रीय आयोग के पूर्व अध्यक्ष और भाजपाई बिजय सोनकर शास्त्री के नेतृत्व वाले एक दलित समूह ने वाल्मीकियों, खटिकों और चमारों की 'खोई हुई महिमा' को फिर से बहाल करने का जिम्मा लिया, जिसके तहत उन्हें 'असली' उपनामों वाला जैसे मिश्रा, पाण्डेय, तिवारी, तोमर या राठौड़ माना गया. दलितों के इस नायक का दावा है कि उसने 500 संगोष्ठियों को संबोधित किया है और अभी 2000 और कतार में हैं.
धर्म परिवर्तन करने वाले किस धर्म में जाएंगेॽ इस महत्वपूर्ण सवाल को जिस तरह बड़ी आसानी से संघ परिवार ने परे कर दिया है वह तो समझ में आता है, लेकिन मीडिया और इस मुद्दे के बुद्धिजीवी टिप्पणीकारों द्वारा इस सवाल को परे कर दिया जाना आपराधिक है. गोरखपुर से भाजपा के बड़बोले और विवादास्पद सांसद योगी आदित्यनाथ ने, जिन्होंने भाजपा के हिंदुत्ववादी चेहरा होने की ख्याति हासिल की है, अनजाने में ही इस मुद्दे का राज खोल दिया और यह उजागर किया कि 'घर वापसी करने वालों को उसी जाति का गोत्र दिया जाएगा जिससे उन्होंने धर्म परिवर्तन किया था.' इसका मतलब है कि निचली जाति का होने के कारण, जिन्होंने हिंदू धर्म के जाति के बंधन से मुक्ति पाने के लिए धर्म परिवर्तन किया था, इस्लाम और ईसाई धर्म अपनाने वाले उन ज्यादातर लोगों को फिर से हिंदू धर्म के उसी नरक में कैद कर दिया जाएगा, जिससे उनके पुरखों ने छूट कर निकलने की कोशिश की थी. देखिए, भारत के मुसलमानों और ईसाइयों के लिए कैसी-कैसी संभावनाएं हैं, जब 2021 तक संघ परिवार उनका अपने घर में स्वागत करता है!
हिंदी में समयांतर के जनवरी 2015 अंक और अंग्रेजी में इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली के 03 जनवरी 2015 अंक में प्रकाशित. अनुवाद: रेयाज उल हक
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