यह जंग है, इस जंग में ताक़त लगाइए
(जनसत्ता में 16 जनवरी 2015 को प्रकाशित
हाल की दो बड़ी घटनाएँ खासी बहस में रही हैं। आमिर खान की फिल्म पी के पर हर किसी को कुछ कहना है। हिंदी के एक वरिष्ठ कवि से लेकर सत्तासीन दल के साथ जुड़े संघ परिवार के उग्रवादी संगठनों के सदस्यों तक हर किसी ने कुछ कहना है। दूसरी घटना मुंबई में भारतीय विज्ञान महासभा के सम्मेलन में किसी कैप्टेन बोदास का अतीत में भारत में विमानों के उड़ने को लेकर परचा पढ़ा जाना थी। ये दो घटनाएँ अलग लगती हैं, पर दोनों के साथ वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य का संबंध है और गहराई से सोचने पर दोनों इकट्ठी चरचा की माँग रखती हैं।
पी के को लेकर बजरंग दल आदि कुछ संगठनों के शोर मचाने के बावजूद आम लोगों ने इसे खूब देखा। इसके राजनैतिक महत्व को समझते हुए बिहार और यू पी की सरकारों ने इस करमुक्त घोषित कर दिया। फिल्म के प्रति लोगों की भावनाएँ क्या हैं, यह बॉक्स आफिस में हिट होना ही दिखला देता है। आज के जमाने में जब लाखों लोग मुफ्त में चुराई हुई फिल्म देखते हैं, एक फिल्म का करोड़ों कमा लेना यह दिखलाता है कि लोगों को फिल्म की कहानी पसंद आई है। इससे यह जाहिर होता है कि लोग कर्मकांडों का जीवन जीते हैं, पर कोई ज़रूरी नहीं कि रस्मों में उन्हें कोई गहरा विश्वास हो। रामायण,महाभारत और उपनिषदों की कहानियों में या बाइबिल, हदीस के किस्सों में क्या सच है और क्या नहीं, इससे भी लोगों को कोई खास मतलब नहीं है। लोगों को ईश्वर से, वह कैसा भी हो, मतलब है, और उन्हें यह भी मालूम है कि ईश्वर की नज़र में हर कोई समान है। कथाएँ हैं और जीवंत हैं क्योंकि ईश्वर है।
कैप्टन बोदास कौन हैं और अतीत में भारत में हवा में उड़ने वाले यंत्र थे या नहीं, इससे ज्यादातर आम लोगों को कुछ लेना देना नहीं है। ईश्वर की कल्पना के साथ विमान की कल्पना जुड़ी है, इसलिए बोदास की बात के सही ग़लत होने से लोगों को वैसे ही कोई फर्क नहीं पड़ता। ईश्वर की धारणा वैज्ञानिक है या नहीं, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है। मामला पेंचीदा इसलिए हुआ कि बोदास ने आस्था के साथ जुड़ी इस बात को कि अतीत में विमान थे, एक परचे के रूप में विज्ञान महासभा के सम्मेलन में पढ़ा। यह एक अद्भुत विड़ंबना है। पिछली सदी में और खास तौर पर हाल के दशकों में यह धारणा मजबूत होती गई है किसी भी बात के सही होने के लिए उसका वैज्ञानिक आधार होना ज़रूरी है। आस्था के प्रसंग में इसमें एक विरोधाभास है, पर आम लोग इस विरोधाभास को सहज ढंग से जीते हैं।
आज़ादी के बाद देश में बड़े पैमाने पर आधुनिक तालीम फैलने लगी तो पुरानी व्यस्थाओं के साथ टक्कर लेते नए खयाल भी फैले। एक ओर तो समूची दुनिया में विज्ञान और आस्था के बीच लकीर साफ होती जा रही थी, वहीं हमारे यहाँ आस्था के नाम पर बाज़ार और राजनीति का खेल बढ़ता जा रहा था। ऐसे में देश के संविधान में वैज्ञानिक चेतना के प्रसार का जिक्र होना और तरक्कीपसंद सोच के साथ उसे जोड़ना उन निहित-स्वार्थों के खिलाफ जाता है, जो आस्था के बाज़ार और राजनीति का फायदा उठाते हैं। ऐसी स्थिति में उभरती जटिल सामाजिक परिस्थितियों को समझाने के लिए अस्सी-नब्बे के दशकों में कुछेक उत्तरआधुनिक चिंतकों ने आस्था के सवाल को अकादमिक रूप से उठाया। बहस यह थी कि आधुनिक दृष्टि से आस्था के सवाल को समझा नहीं जा सकता। यह भी कि तर्कशील नज़रिया आस्था को समझने में पूरी तरह नाकाबिल है। भारत की जनता तो आस्था में जीती है, इसलिए हमें तर्क से अलग हटकर अपने समाज को समझने की ज़रूरत है। वह नई समझ कैसी होगी यह तो साफ नहीं हो रहा था, पर विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना की सीमाओं को बखानते हुए इन चिंतकों ने तर्कशीलता की जम कर पिटाई की। दूसरी ओर ऐसी कोशिशें भी चल रही थीं कि आस्था पर आधारित रस्मों का वैज्ञानिक आधार है। आम लोग इस विरोधाभास को कैसे लेते हैं, पीके फिल्म यह बात साफ दिखलाती है। लोगों में यह समझ भरपूर है कि आस्था का बाज़ार उनको लूटता जा रहा है। जो लोग आस्था के नाम पर राजनीति करते हैं, उनसे मुठभेड़ करने में कोई हर्ज़ नहीं होना चाहिए।
आखिर विज्ञान क्या है? संक्षेप में कहा जाए तो यह हमें ऐसी मान्यताओं तक ले जाता है, जिन्हें तर्क और प्रयोगों के आधार पर सत्यापित किया जा सके। इस तरह विज्ञान ज्ञान पाने के दूसरे सभी तरीकों से अलग और अनोखा तरीका है। आखिर इसमें ऐसी क्या विशेषताएँ हैं कि इसे अनोखा माना जाए? विज्ञान के हर पक्ष का कोई सरलीकृत विवरण नहीं दिया जा सकता। हम जानते हैं कि विज्ञान की नींव प्रत्यक्ष प्रमाणों पर आधारित है। प्रयोग दुहराने पर बार-बार एक जैसे अवलोकनों को प्रत्यक्ष देख पाने की,मापने में राशियों पर नियंत्रण - यानी कौन सी राशि नियत हो और कौन सी घट-बढ़ रही हो, इसको नियंत्रण करने की, और सैद्धांतिक प्रस्तावनाओं को ग़लत साबित कर पाने की स्थितियों की कल्पना की माँग विज्ञान में ज़रूरी होती है। कुल मिला कर विज्ञान ज्ञान और सत्य के निकट तक पहुँचने का तक पहुँचने का सर्वांगीण तरीका है,जिसके लिए शुरूआती चरणों में सरल तरीके अपनाए जाते हैं, पर सरलीकरण की साफ समझ होना ज़रूरी है। अवलोकन और मापन में अनिश्चितताओं को अधिकतम निश्चितता के साथ दर्ज़ करने की जैसी माँग विज्ञान में है, ऐसी और कहीं नहीं है।
अक्सर विज्ञान और तक्नोलोजी का विकास समांतर में हुआ है, हालाँकि यह कतई ज़रूरी नहीं कि ऐसा समांतर विकास हो और न ही हमेशा ऐसा होता है। उन्नीसवीं सदी तक यूरोप और भारत में तक्नोलोजी में विकास का ऐसा बड़ा अंतर हो चुका था कि नई तक्नोलोजी के साथ आ रहे विज्ञान की उपमहाद्वीप में कोई जड़ें पहले से मौजूद नहीं थीं। यूरोप में उच्च शिक्षा संस्थाओं में बड़ी प्रयोगशालाएँ आम हो गई थीं। उपमहाद्वीप में ऐसा कुछ भी नहीं था। आधुनिक विज्ञान में सिद्धातों और प्रयोगों को साथ-साथ देखा जाना जाता है, यह यूरोप में हो चुका था। भारत में ये दो अलग बातें थीं। हाथों से काम करना निचली जातियों के लिए था। यहाँ तक कि चिकित्सा-शास्त्रों में ऊँचाइयों तक पहुँचने के बावजूद उस पर आध्यात्मिकता का लबादा ओढ़ा गया और शरीर, खास तौर पर मृतकों पर काम करने वाले शोधकों को अस्पृश्य माना गया। इसलिए आज के विज्ञान के नज़रिए से जो तरक्की हमारे यहाँ हुई थी, वह खंडित, और अक्सर वाचिक परंपरा में सीमित रही। अगर बाहरी प्रभाव न होता तो उपनिवेश काल में भारत में विज्ञान का जैसा विकास हुआ, उससे बेहतर कुछ होने की संभावना नहीं थी। मीमांसा के आधुनिक तरीकों के साथ समझौता करते और उसे अपनाते हुए जो विकास पिछली दो सदियों में हुआ, वह सीखने का ऐसा ढाँचा था, जिसमें अधिकतर लोगों को मौका नहीं दिया गया। अतीत में समाज में जो मान्यताएँ प्रचलित थीं, उन पर अधकचरी समझ ज्यादातर लोगों में बनी रही। पर वह वैज्ञानिक समझ नहीं कहला सकती।
बोदास ने जो बातें अपने परचे में कहीं, उनका खंडन चालीस साल पहले किया जा चुका था। वह कोई हवाई खंडन नहीं था, बाकायदा गहन अध्ययन के बाद एरोस्पेस(उड्डयन) इंजीनियरिंग के वैज्ञानिक प्रो. मुकुंद और उनके चार सहयोगियों ने प्रतिष्ठित पत्रिका में परचा लिख कर यह साबित किया था कि जिन सूत्रों का हवाला बोदास ने दिया है, वह कपोल कल्पना हैं। तो बोदास ने कैसे यह परचा पढ़ा? क्या विज्ञान महासभा किसी को भी कुछ पढ़ने की अनुमति दे सकती है? यह सामाजिक हिंसा के समांतर चलती बौद्धिक गुंडागर्दी है। बौद्धिक दुनिया में धौंस जमाए बिना बाज़ार और राजनीति कमज़ोर पड़ जाती है। इसलिए समाज को अंधकूप में डालकर फायदा उठाने वाले बौद्धिक गुंडागर्दी करते हैं। चिंता की बात यह है कि आम बुद्धिजीवी इतना असहाय हो गया है कि या तो वह इस गुंडागर्दी को चुपचाप सह रहा है या इसका साथ देते हुए अपना फायदा निकालने के फेर में पड़ा है। ऐसा बुद्धिजीवी जितना भी विज्ञान पढ़ा हो,महज समझौतापरस्त ही नहीं, रुढ़िवादी ही कहलाएगा। बदकिस्मती से हमारे देश के अधिकतर वैज्ञानिक इसी श्रेणी में आते हैं। समाज के बारे में औसत वैज्ञानिक की जागरुकता कितनी है, वह इसी बात से जाहिर हो जाती है कि अधिकतर तो अपनी भाषाओं में विज्ञान पर बात ही नहीं कर सकते। वैसे इसका कारण यह भी है कि तमाम परचेबाजी के बावजूद उनमें विज्ञान की समझ कमज़ोर है।
स्टीवेन पिंकर ने कहा है कि पिछली सदियों के मुकाबले में समाज में हिंसा आम तौर पर कम हुई है। जिस तरह हर रोज हिंसा की खबरें आती हैं, ऐसा लगता है कि पिंकर की यह धारणा सहीं नहीं होगी। पर सचमुच अगर इंसान ने कोई तरक्की की है तो वह हिंसा को नकारने की प्रवृत्ति का बढ़ना ही है। इंसान की जैविक बनावट ऐसी है कि हिंसा और प्रेम दोनों भावनाएँ उसमें प्रबल हो सकती हैं। असहायता और असुरक्षा से हिंसा पनपती है। राजनैतिक ताकतें इस बात का फायदा उठाती हैं - कभी यह आज़ादी या बराबरी के लिए संघर्ष में तो कभी सांप्रदायिक हिंसा में दिखता है। हमारे यहाँ पिछली सदी में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और हिंसा का माहौल घटता-बढ़ता रहा है। अस्सी के दशक से लगातार सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काकर, लोगों में असुरक्षा का अहसास पैदा कर, एक हिंसक गुंडा समाज बनाने की कोशिशें चलती रही हैं। आज उत्तर भारत में यह गुंडागर्दी की प्रवृत्ति व्यापक है। जिन चिंतकों ने आस्था का सवाल उठाते हुए इस बढ़ते ध्रुवीकरण को समझने-समझाने की कोशिश की थी, पीके फिल्म और इसके प्रति आम लोगों का खिंचाव उन्हें खारिज करते हैं। यह अकारण नहीं है कि इससे सांप्रदायिक ताकतों और आस्था का बाज़ार चलाने वालों को काफी परेशानी हुई है और उन्होंने इस फिल्म को बैन करने की माँग उठाई है।
तर्कशील होना किसी की आस्था का अपमान नहीं है। जब तक कोई किसी को अपनी हरकतों से चोट नहीं पहुँचा रहा हो, वह अपनी मर्ज़ी से तर्कशील या आस्थावान हो सकता है। यह बात उनको मालूम है, जिन्होंने आस्था का सवाल उठाकर आधुनिकता के उस केंद्र को भी खारिज कर दिया था, जिसने हमें न केवल कुदरत के बारे में बेहतर समझ दी है, बल्कि इंसान की सही ग़लत कारवाइयों पर सवाल खड़ा करने की ताकत भी दी है।
आस्था के सवाल का हौव्वा खड़ा करने वाले सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ मुखर रहे, आज भी हैं, पर वे समय-समय पर डाँवाडोल सी बातें करते रहते हैं। विज्ञान और वैज्ञानिक सोच पर ऊल-जलूल हमला करने वाले खुद किसी निरपेक्ष धरातल से नहीं आते, वे सभी भयंकर गैरबराबरी पर आधारित हमारे समाज के सुविधा-संपन्न वर्गों से आते हैं। इसलिए आस्था के सवाल के उनके शोर को निःशंक होकर नहीं लिया जा सकता। पीके हमें यही बात बतलाती है। चालीस साल पहले प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों द्वारा खारिज किए जा चुके बकवास पर विज्ञान महासभा में बोदास का परचा पढ़ सकना हमें बतलाता है कि आम लोगों को बेवकूफ बनाकर हिंसक गुंडा समाज बनाने की प्रक्रियाएँ उरूज पर हैं। ऐसे में प्रसिद्ध लोकप्रिय संगीत मंडली 'इंडियन ओशन' के गीत की यह पंक्ति ही दुहरा सकते हैं कि 'बस कीजिए आस्मान में नारे उछालना, यह जंग है इस जंग में ताक़त लगाइए।'
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