BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Thursday, April 4, 2013

कड़े कानून संकीर्ण सोच

कड़े कानून संकीर्ण सोच

Thursday, 04 April 2013 10:05

उदित राज  
जनसत्ता 4 अप्रैल, 2013: सर्वदलीय विचार-विमर्श में यह तय किया गया कि सहमति से शारीरिक संबंध की उम्र अठारह वर्ष ही रहेगी। दूसरे, अगर कोई लड़की या स्त्री शिकायत करे कि उसे कोई बुरी नजर से देख रहा है या घूर रहा है या आंखों से इशारा कर रहा है तो इतना ही पर्याप्त है कि आरोपित को सलाखों के पीछे डाल दिया जाए। सर्वदलीय बैठक ने अलबत्ता इतना बदलाव जरूर किया कि पहली बार यह जमानती अपराध होगा, लेकिन अगर दुबारा हुआ तो गैर-जमानती। शायद ही दुनिया में ऐसा कोई कानून बना होगा, जिसके तहत बिना किसी प्रमाण के आरोप को सच मान लिया जाए। क्या यह मान लिया जाए कि सारी लड़कियां या स्त्रियां सच ही बोलती हैं? इसमें शक नहीं कि ऐसी घटनाएं होती हैं और साबित होने पर जरूर सजा मिलनी चाहिए। लेकिन ऐसा भी कानून नहीं बनना चाहिए जिससे स्त्रियों से पुरुष समाज दूरी बनाने लगे। 
मैं स्वयं आयकर विभाग में उच्च पद पर रह चुका हूं। अपने मातहत स्त्री कर्मचारी को रखने से बचने की कोशिश करता था। एक बार एक महिला की अहम जगह पर मेरे मातहत तैनाती कर दी गई। कई दिनों तक मैंने पदभार ग्रहण नहीं करने दिया और कोशिश की कि उसका तबादला किसी और अधिकारी के यहां हो जाए। विकल्प की खोज की तो उपयुक्त पुरुष नहीं मिला और इस पद वाले लोग भी विभाग में कम थे। लगभग एक महीने बाद मजबूर होकर उस महिला की तैनाती स्वीकार करनी पड़ी। किसी भी स्थिति में मैं कामकाज से समझौता नहीं करता था और ऐसे में नीचे के कर्मचारियों को भी काम करना ही पड़ता।
विभाग में माहौल यह था कि महिला कर्मचारियों के साथ काम करने में ज्यादातर लोग कतराते थे। पहला कारण यह था कि तमाम महिलाएं कार्यालय ही देर से आती थीं। अगर जाड़े का मौसम है तो स्वेटर वगैरह बुनने की सामग्री सहित उपस्थित हुआ करती थीं। साढ़े पांच बजे छूटने का समय होता, पर वे चार-साढ़े चार बजे ही चल देती थीं। ज्यादातर अधिकारियों की हिम्मत डांटने और अनुशासनिक कार्रवाई करने की इसलिए नहीं होती थी कि कोई उन पर आरोप न लगा दे। दूसरा पक्ष यह भी है कि कई पुरुष अधिकारी अपने मातहत तैनात स्त्रियों का शोषण करते हैं। कड़ा से कड़ा कानून बने और महिलाओं को किसी भी रूप में नीचा दिखाने वाले या हिंसा करने वाले पुरुष के खिलाफ कार्रवाई जरूर हो, लेकिन यह भी देखना होगा कि पुरुषवादी समाज परोक्ष रूप से उनका तमाम क्षेत्रों से बहिष्कार न कर दे। 
अब भी कुछ हद तक बहिष्कार है। उद्योग, दुकान, संस्था, सरकारी कार्यालय, सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियां आदि सभी क्षेत्रों में पुरुषों का वर्चस्व है। लेकिन नए कानून से स्त्रियों को काम मिलने में मुश्किलें बढ़ सकती हैं। ऐसा न हो कि एक तरफ इनके सशक्तीकरण के लिए कानून बने और दूसरी तरफ वे कमजोर हो जाएं। संसद में मुलायम सिंह यादव और शरद यादव ने ईमानदारी दिखाई, लेकिन ज्यादातर सांसदों ने दोहरेपन का परिचय दिया। 
तमाम युवक-युवतियों और संगठनों ने निर्भया के बलात्कार और हत्या के विरुद्ध जो आंदोलन किया वह बहुत ही सराहनीय था। जितनी ऊर्जा इस संघर्ष से निकली, अगर उसकी दिशा सही होती तो वास्तव में महिलाओं का सशक्तीकरण होता। इस संघर्ष के निशाने पर पुलिस और राजनीतिक लोग ही थे, जबकि उन परंपराओं और सोच पर बराबर हमला नहीं हुआ जिसकी वजह से पुरुष इन्हें कमतर देखता और उपभोग की वस्तु मानता है। न्यायपालिका बराबर की गुनहगार है, लेकिन वह इनके निशाने पर नहीं आ सकी। 
महज कड़ा कानून बनाने से समस्या का हल नहीं होने वाला है; उसके लिए सोच को बदलना होगा। क्या उन रीति-रिवाजों, त्योहारों और पाखंडों का बहिष्कार करने का आगाज इस संघर्ष से हो पाया? क्या उस सोच और मान्यता का प्रतिकार हुआ, जिसमें यौन हिंसा के अपराधी के चरित्र पर नहीं, पीड़िता के चरित्र पर सवाल उठाए जाते हैं? 
सजा चोर को दी जाती है, न कि जिसके यहां चोरी होती है। लेकिन यहां उलटा है और इसे सीधा करने का काम महिला सशक्तीकरण के पैरोकारों को करना पड़ेगा। लेकिन वे उस परंपरा और सोच के सामने खुद नतमस्तक हो जाते हैं। करवाचौथ करने वाली औरतों का क्या नैतिक अधिकार है कि वे महिला सशक्तीकरण की बात करें! करवाचौथ पति के दीर्घायु होने की आकांक्षा और उसे परमेश्वर का रूप मानने का त्योहार है, लेकिन क्या ऐसा कोई त्योहार पुरुष महिलाओं के लिए मनाते हैं? 
क्या उन फिल्मों के बहिष्कार की आवाज उठी जिनमें बलात्कार का दृश्य दिखाया जाता है और उसका परिणाम यह होता है कि पीड़िता या तो आत्महत्या करती है या पागल हो जाती है। क्या उस मीडिया ने यह सवाल खड़ा किया, जो ऐसी घटना पर चीख-चीख कर कहता है कि पीड़ित औरत की इज्जत तार-तार हो गई। क्या इनमें यह कहने की हिम्मत है कि जिसके खिलाफ यौन हिंसा हो वह मुंह न छिपाए न अपनी पहचान, डट कर मुकाबला करे और कहा जाए कि चरित्रहीन तो वह हैवान पुरुष है जिसने यह घृणित कार्य किया। 
बलात्कार की घटना की पीड़ा कुछ समय के लिए होती है, लेकिन असली चरित्र हनन और अपमान के लिए हमारे समाज की परंपराएं और मान्यताएं जिम्मेदार हैं। तभी तो पीड़िता सिर झुका कर और मुंह छिपा कर चलती है। दुनिया के और भी देशों में इस तरह की घटनाएं घटती हैं, लेकिन वहां पर न तो इसे चरित्र से जोड़ कर देखा जाता है और न ही सिर झुका कर जीने की मजबूरी होती है। वहां पर स्त्रियों ने पुरुषवादी समाज को तोड़ने के लिए सड़ी-गली परंपराओं का बहिष्कार ही नहीं किया, बल्कि तमाम साहसिक कदम भी उठाए जैसे ब्रा जलाना, टॉपलेस होना आदि। 

इसका मतलब यह नहीं कि यहां पर भी उसी प्रकार से प्रतिकार करें, लेकिन करें जरूर, चाहे दूसरे रूप में, मगर उतने ही साहस और शक्ति से। जो लोग स्त्री और पुरुष की समानता की लड़ाई हर क्षेत्र में लड़ रहे हैं अभी तक शायद ही उन्होंने या किसी स्त्री संगठन ने यह आवाज जोर से उठाई कि बलात्कार पीड़ित महिला को नाम छिपाने से बचना नहीं है और न ही सिर झुका कर चलने की जरूरत है। शुरू में कुछ को यह साहसिक कदम उठाना ही होगा और तभी जाकर इस तरह की हिंसा एक सामान्य हिंसा मानी जाने लगेगी और धीरे-धीरे उसे चरित्र से जोड़ कर देखने की मानसिकता और सामाजिक कलंक से मुक्ति मिलेगी।
आए दिन अखबारों में ऐसी भी खबरें आती हैं जो बताती हैं कि झूठे आरोप में कई पुरुष जेल में पड़े हैं। मायापुरी बलात्कार मामले में निरंजन कुमार मंडल बरी तो हो गए हैं, लेकिन गुनहगार की भांति जी रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गए हैं कि जिस तरह से मीडिया ने उनकी गिरफ्तारी और उनके दोषी होने की खबर दिखाई, निर्दोष होने की खबर क्यों नहीं दी? 
लड़के-लड़कियां प्रेम करते हैं और भाग कर शादी कर लेते हैं। कुछ दिन बाद घर वाले बहला-फुसला कर बुला लेते हैं। लड़की के घर वाले धीरे-धीरे उसे प्रभावित करकहलवा देते हैं कि उसके साथ बलात्कार हुआ है। ऐसे कई मामले हैं और निर्दोष लड़के जेल में पड़े हैं। इस तरह की भी बहुत-सी घटनाएं सामने आर्इं कि दोनों सहमति से शारीरिक संबंध बनाते हैं लेकिन बात बिगड़ जाती है या भंडाफोड़ हो जाता है तो जबर्दस्ती करने का आरोप लगा दिया जाता है। 
तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद स्त्रियों की स्थिति में प्रगति हुई है। उनमें भी आजादी, भावनाएं, संवेदनाएं जगी हैं तो वे भी कुछ हद तक वैसा ही व्यवहार कर सकती हैं जैसा पुरुष करते हैं। और क्यों न करें! अगर सारे पुरुष अनुशासित नहीं हैं  तो सारी औरतों से ऐसी उम्मीद क्यों की जाती है? ऐसे में क्या इस बात की गारंटी दी जा सकती है कि नए कानून का गलत इस्तेमाल नहीं होगा? इसलिए बिना सबूत के कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। इससे भी कहीं ज्यादा जरूरी है सोच में बदलाव के लिए संघर्ष किया जाए।
बलात्कार या बदसलूकी की शिकायत सही पाई जाए तो कितनी भी कड़ी सजा दी जाए, शायद ही किसी को एतराज होगा। न तो हम रूढ़िवादी समाज में रह रहे हैं और न ही पूरी तरह शिक्षित और आधुनिक समाज में। इसवजह से भी महिलाओं का शोषण और उत्पीड़न हो रहा है। रूढ़िवादी समाज में भावनाओं के दमन और ईश्वर के डर की वजह से लोग संयमित रहते हैं, लेकिन संक्रमणकाल के समाज में स्थिति बदल जाती है। हमारा समाज इसी दौर से गुजर रहा है। 
एक समाज वह भी है, जहां दोषी ठहराए गए व्यक्ति को पत्थर से मार-मार कर मार दिया जाता है या गोली से उड़ा दिया जाता है। इसलिए ऐसी वारदातें वहां पर नहीं होतीं  या बहुत कम होती हैं। लेकिन यह भी जान लेना चाहिए कि वहां जनतंत्र नहीं है। जो समाज मुकम्मल आधुनिक हो चुका है वहां पर भी ऐसी समस्या कम है। वहां पर खुलेपन की वजह से आवश्यकता और उसकी पूर्ति भी उपलब्ध हो जाती है। अतीत को हम सनातनी और आदर्श समाज मानते हैं, लेकिन उसमें सेक्स-वर्क (वेश्यावृत्ति) को सामाजिक मान्यता मिली हुई थी। प्रत्येक पचीस-पचास गांवों के मध्य में एक गांव 'सेक्स-वर्करों' का भी हुआ करता था और लोग जाकर अपनी इच्छा-पूर्ति कर लेते थे। इस उपलब्धता की वजह से कम से कम परिवार और रिश्तेदारों के साथ ये कुकृत्य तो कम करते थे। 
कड़े कानून की भी सीमा वहां हो जाती है, जहां पर घर के भीतर या रिश्तेदारों के साथ छेड़छाड़ और शोषण की घटनाएं होती हैं। यह कटु सत्य है कि तमाम लोग यहां पर सेक्स की भूख से गुजर रहे हैं और वहशी मानसिकता के भी हैं, जिसकी वजह से जब पागलपन छाता है तो अपना-पराया कुछ नहीं दिखता। मध्यवर्ग या जिनकी आर्थिक क्षमता है वे ज्यादातर उन्हीं देशों में जाते हैं, जहां पर नाइट लाइफ और फ्री सेक्स है, लेकिन इस सच्चाई को हम दोहरे चरित्र वाले आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे। 
हम अपनी कमियां यह कह कर छिपाते हैं कि ऐसा तो विकसित देशों में भी होता है। मगर हमारा समाज सभ्यता के मामले में यूरोप और अमेरिका से कम से कम पांच सौ वर्ष पीछे चल रहा है। सोच का संबंध सभ्यता से है। राजनीतिक लोग वोट के लालच में सोच बदलने की लड़ाई नहीं लड़ेंगे, जबकि उनके अंदर इस काम को करने की इच्छा होती है। हमारे पुरातनी और पाखंडी समाज में बदलाव सरकार और राजनीतिकों की वजह से न के बराबर हुआ है।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/41809-2013-04-04-04-38-25

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