BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Saturday, March 31, 2012

असम में शरणार्थी सम्मेलन और मतुआ आंदोलन

असम में शरणार्थी सम्मेलन और मतुआ आंदोलन

पलाश विश्वास


गुवाहाटी में बंगाली शरणार्थियों का पहला खुला सम्मेलन पिछले दिनों संपन्न हो गया। आयोजकों ने पहले ही सूचना दे दी थी, पर मेरे​ ​ लिए इधर परिस्थितियां इतनी जटिल हो गयी कि मेरा वहां जाना संभव नहीं हो पाया। खास बात यह हैकि इस सम्मेलन में सत्तादल के ​​कांग्रेसी मंत्री भी शामिल हुए।इन मंत्रियों ने हिंदू बंगाली शरणार्थियों की नागरिकता का मसला हल करने का वादा किया। मालूम हो कि नये नागरिकता कानून में हिंदुओं के लिए कोई अलग रियायत नहीं है। इसके अलावा इस कानून से शरणार्थियों के अलावा देश के अंदर विस्थापित दस्तावेज न रख पाने वालों,​​ आदिवासियों,मुसलमानों, बस्ती वासियों और बंजारा खानाबदोश समूहों के लिए भी नागरिकता का संकट पैदा हो गया है। यह सिर्फ हिंदुओं या बंगाली रणार्थियों की समस्या तो कतई नहीं है, खासकर नागरिकता के लिए बायोमैट्रिक पहचान के लिए अनिवार्य बना दी गयी आधार कार्ड​  ​ योजना के बाद। मालूम हो कि नंदन निलेकणि खुद कहते हैं कि एक सौ बीस करोड़ की आबादी वाले इस देश में महज साठ करोड़ लोगों​ ​ को आधार कार्ड दिया जायेगा। नागरिकता संशोधन कानून और आधार कार्ड योजना को रद्द किये बगैर थोक भावों से नागरिकता बांटने के ​​इस राजनीतिक खेल से हमारे लोग गदगद हैं।​
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​असम में जाने का यह मौका मेरे लिए अहम था। राजनीति की बात छोड़ दें तो साठ और अस्सी दसक के दौरान बंगालियों के खिलाफ भड़के आंदोलनों के सिलसिले में बंगाली शरणार्थियों को असम की मुख्यधारा से जोड़ने की यह एक महत्वपूर्ण घटना थी। साठ के दशक में मेरे पिता महीनों असम के गंगापीड़ित इलकों कामरुप, नौगांव, करीमगंज से लेकर कछाड़ तक शांति और सद्भाव के लिए काम कर रहे थे।उन्होंने बंगाली शरमार्थियों को असम से पलायन  नकरने के लिए मना लिया था। २००३ में मैं त्रिपुरा के कवि शिक्षा मंत्री अनिल सरकार के साथ ब्रह्मपुत्र उत्सव में सामिल होने ​गया था। तब पूर्वोत्तर भारत के बुद्धिजीवियों को हमने बंगाली शरणार्थियों को मुख्यधारा में शामिल कर लेने को कहा था। मुख्यमंत्री तरुण गोगोई से बी बात हुई थी। मालेगांव अभयारण्य के उद्घाटन के लिए अनिल बाबू को जाना था। पर अगुवा पायलट पुलिस टीम की गलती से हम उन्हीं इलाकों में पहुंच गये, जहां साठ के दशक में पहले मेरे पिता ने काम किया , फिर मेरे चिकित्सक चाचा डां. सुधीर विश्वास ने।इतने अरसे बाद वहां लोगों को मेरे पिता और चाचा की याद थी। पीढ़ियां बदल जाने के बावजूद। अनिल बाबू ने गांव गांव सभाएं की। वे उनके पूर्वी बंगाल के ठोड़े हुए जिले कुमिल्ला के निवासी थे ज्यादातर और अनिल बाबू गांव गांव के पुरखों को याद कर रहे थे।भोगाली बिहू का मौसम ​​था वह। अब रंगीला बिहू के मौके से ऐन पहले असम जाना निश्चय ही बहुत अच्छा रहता। अखिल भारतीय भंगाली शरमार्थी समन्वय ​​समिति को इस अभिनव उपलब्धि के लिए बधाई।

असम के मीडिया ने भी सम्मेलन का खूब कवरेज किया। ऐसा बाकी देश में भी होता है। एकमात्र अपवाद बंगाल है, जहां शरणार्थी आंदोलन की खबरें नहीं छपती।​​​अभी कल ही ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता साहित्यकार गिरराज किशोर से इस सिलसिले में लंबी बात हुई। उन्हें यह जानकर ताज्जुब हुआ​ ​ कि बंगीय तथाकथित समाज में नब्वे फीसद जनसमूह किस कदर बहिष्कृत है।

सत्ता के खेल में मतुआ धर्म और आंदोलन की पिछले​ ​ कुछ समय से च्ररचा जरूर हो रही है क्योंकि चुनावों से ऐन पहले ममता बनर्जी ने खुद को मतुआ बता दिया। बंगाल में ब्राह्ममवादी वर्चस्व​ ​ के खिलाफ हिंदू मुसलिम किसान आंदोलन के जरिए मतुआ धर्म की स्थापना हुई थी। जिसके अनुआयी सभी धर्मों की किसान जातियां​ ​ थीं। इसके संस्थापक हरिचांद ठाकुर ने नील विद्रोह का नेतृत्व किया था। मालूम हो कि जल जंगल जमीन के अधिकारों के लिए हुए मुंडा ​​विद्रोह में भी आदिवासी धर्म की बात थी। आंदोलन को धर्म बताना सामान्य जनसमुदायों को जोड़ने की एक ऱणनीति के सिवाय कुछ नहीं​ ​ है।पर आंदोलन को हाशिये पर रखकर महज धर्म की बात करना विरासत को खारिज करना है। बंकिम के विख्यात उपन्यास को जिस​ ​ सन्यासी विद्रोह की पृष्ठभूमि में रचा गया, वह भी वास्तव में एक किसान आंदालन था, जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल थे। फर इस समूचे आंदोलन को जिसे पश्चिम बंगाल में दमन के बाद पूर्वी बंगाल और बिहार के मुसलमान किसान नेताओं ने करीब सौ साल तक जारी रखा, ​​एक वंदे मातरम के जरिये मुसलमान विरोध का औजार बना दिया गया। मतुआ आंदोलन भारत में अस्पृश्यता मोचन को दिसा देने का कारक बना। हरिचांद ठाकुर अस्पृश्य चंडाल जाति के किसान परिवार में जनमे। उन्होंने किसान आंदोलन और समाज सुधार के जो कार्यक्रम शुरू किये, वे महाराष्ट्र में ज्योतिबा फूले के आंदोलन से पहले की बात है।

धर्मांतरण के बदले ब्राह्माणवाद को खारिज करके मूलनिवासी अस्मिता का आंदोलन था यह, जिसमें शिक्षा के प्रसार और स्वाभिमान के अलावा जमीन पर किसानों के हक और स्त्री के अधिकारों की बातें प्रमुख थीं। हरिचांद ठाकुर के पुत्र गुरुचांद ठाकुर ने प्रसिद्ध चंडाल आंदोलन का नेतृत्व ​​किया, जिसके फलस्वरूप बाबा साहेब के अस्पृश्यता विरोधी आंदोलन से पहले बंगाल में अस्पृस्यतामोचन कानून बन गया और चंडालों को नमोशूद्र कहा जाने लगा। इसी मतुआ धर्म के दो प्रमुख अनुयायी मुकुंद बिहारी मल्लिक और जोगेंद्र नाथ मंडल ने दलित मुसलिम एकता के​ ​ माध्यम से भारत में सबसे पहले न सिर्फ ब्राहमणवादी वर्चस्व को खत्म किया बल्कि जब बाबा साहब डा. अंबेडकर महाराष्ट्र से चुनाव हार गये, तब उन्हें बंगाल से जितवाकर संविधान सभा में भिजवाया। भारत विभाजन से पहले बंगाल की तानों सरकारे मुसलमानों और अछूतों की ​​साझा सरकारें थीं।​
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​य़ह बात इसलिए लिख रहा हूं कि बंगाल के इतने महत्वपूर्ण इतिहास को किसी भी स्तर पर महत्व नहीं दिया जा रहा है। मतुआ ममता​ ​ बनर्जी के मतुआ वोट बैंक के जरिए मुख्यमंत्री बन जाने के बावजूद बंगाल में हरिचांद ठाकुर या नील विद्रोह की दो सौवीं जयंती नहीं ​​मनायी जा रही।मतुआ अनुयायी जरूर हरिचांद ठाकुर की दो सौवीं जयंती मना रहे हैं, जिसमें बाकी बंगाल की कोई हिस्सेदारी नहीं है। ​​बल्कि मीडिया ने ऐसे आयोजनों का कवरेज करने से भी हमेशा की तरह परहेज किया। मजे की बात है कि राजनीतिक वजहों से हरिचांद ​​गुरूचांद ठाकुर के उत्तराधिकारी पिछले छह दशकों से सत्तादलों से जुड़े रहे हैं। प्रमथ रंजन ठाकुर सांसद और मंत्री थे, जिनका इस्तेमाल डा. अंबेडकर और जोगेंद्रनाथ मंडल के खिलाफ होता रहा। अब प्रमथ के बेटे मंजूल कृष्ण ठाकुर के जिम्मे फिर वही भूमिका है। वे ममता सरकार में मंत्री​ ​ है। हद तो यह है कि अब हरिचांद ठाकुर को  मैथिली ब्राह्मण का वंशज और परमब्रह्म विष्णु का अवतार बताया जा रहा है। इतिहास की इस विकृति के खिलाफ बंगाल में कहीं कोई विरोध नहीं है। इतिहास और भूगोल के विघटन में बंगाल अब सबसे आगे है।

हमारी ताईजी की मां, यानी हमारी नानी प्रमथ ठाकुर की बहन थीं। हम बचपन से मतुआ आंदोलन की कहानियां सुनते रहे हैं। देशभर में बचितराये हुए बंगाली शरमार्थियों में अगर कोई पहचान बाकी है तो वह मतुआ धर्म ही है। हरि समाज हर शरणार्थी गांव में जरूर मिल जायेंगे। महाराष्ट्र के चंद्रपुर में मतुआ केंद्र सतुआ संघाधिपति मंजुल ठाकुर के बड़े भाई कपिल कृष्म ठाकुर खुद देखते हैं। कपिल ठाकुर अपनी मां वीणापाणी देवी, जिनका चरण ममता दीदी जब तब छूती रहती हैं, के साथ साठ के दशक में मतुआ महोत्सव में बसंतीपुर, मेरे गांव पधारे थे। पिछले दिनों जब शरणार्थी ​​आंदोलन के सिलसिले में चंद्रपुर और ठाकुर नगर में मैं उनसे मिला, तब उन्होंने इसे याद भी किया। उस वक्त हमारी नानी और ताई दोनों ​​जीवित थीं। आज वे दिवंगत हैं। प्रमथ ठाकुर से पिता पुलिन बाबू के भी लगातार संबंध बने रहे, पर पिता के जोगेंद्र नाथ के अनुयायी होने के कारण उनमें ज्यादा अंतरंगता कभी नहीं थी। कपिल ठाकुर भी जोगेंद्रनाथ और अंबेडकर का नाम सुनकर बिदक जाते हैं। हरिचांद गुरूचांद को ​​ज्योतिबा फूले के आंदोलन से जोड़ने से भी उन्हें परहेज है।

बहरहाल दिल्ली, दिनेशपुर और मलकानगिरि में मतुआ अनुयायियों के बड़े केंद्र हैं। नागरिकता संशोधन कानून की अगुवाई में शरमार्थी आंदोलन की शुरुआत भी ठाकुरबाड़ी से हुई। नागपुर में २००५ में हुए शरणार्थी सम्मेलन में तो मतुआ अनुयायियों ने आंदोलन की बागडोर ठाकुर बाड़ी को सौंपने की मांग कर दी थी। ठाकुरबाड़ी ठाकुर नगर में इस कानून के खिलाफ मतुआ अनुयायियों ने आमरम अनशन भी शुरू किया था, जो न जाने​ ​ क्यों ऱिपब्लिकन नेता रामदास अठावले और उनके साथी सांसद के महाराष्ट्र से ठाकुर बाड़ी पहुंचकर अनशनकारियों को नींबू पानी पिलाने के बाद खत्म हो गया। विधानसभा चुनाव से पहले तो जोरदार नौटंकी हो गयी। नगाड़ों के साथ दिशा दिशा से मतुआ अनुयायी और आम शरणार्थी कोलकाता के मेट्रो चैनल में जमा हुए जहां वामपंथियों के साथ ही कांग्रेस तृणमूल ककांग्रेस के नेता एक मंच पर आ गये। ममता खुद नहीं पहुंची, पर चुनाव​ ​ से पहले नागरिकता संशोधन कानून वापसी पर कोई बात किये बिना तमाम शरणार्थियों को नागरिकता दिलाने का उन्होंने भरोसा दिया। पर चुनाव के बाद अब उन्हें कुछ याद भी नहीं है। यही करिश्मा प्रणव बाबू ने य़ूपी चुनाव के दरम्यान पीलीभीत में भी किया। अब इसकी पुनरावृत्ति असम में देखी जा रही है, जहां शरणार्थियों की भारी तादाद है।

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