BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Friday, March 30, 2012

आनन्द पटवर्धन ने विचारधारा के हकीकत की जमीन पर गैर प्रासंगिक होते जाने के संकट को ही जय भीम कामरेड में एक्सपोज किया है!

आनन्द पटवर्धन ने विचारधारा के हकीकत की जमीन पर गैर प्रासंगिक होते जाने के संकट को ही जय भीम कामरेड में एक्सपोज किया है!

मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

गांधी, आंबेडकर और मार्क्स। भारत में विचारधारा की बात करने वाले लोग इस त्रिकोण में बुरी तरह उलझे हुए हैं। कुछ लोग अब जय भीम कामरेड के बहाने मौजूदा परिप्रेक्ष्य और संदर्भ को फिर इसी उलझाव में डालने की कोशिश कर रहे हैं, जो सरासर गलत है। विचारधारा की नियति अब चुनाव घोषणापत्रों के लिखने के काम में निष्णात है, हकीकत की जमीन पर उनकी प्रासंगिकता गैर प्रासंगिक है। दरअसल हम सबके प्रिय समाज प्रतिबद्ध फिल्मकार आनन्द पटवर्धन ने विचारधारा के हकीकत की जमीन पर गैर प्रासंगिक होते जाने के संकट को ही जय भीम कामरेड में एक्सपोज किया है। लिक्खाड़ समाजवादियों की तर्ज पर भाषायी लप्पाजी से कृपया इस फिल्म की आत्मा से खिलवाड़ न करें तो बेहतर। गांधी, अंबेडकर और मार्क्स की विचारधारा से किसी प्रयोगशाला में ङकीकत से रूबरू होने की गुंजाइश रही होती तो सायद आनन्द  को यह फिल्म बनाने की कोई जरुरत नहीं पड़ती। इस पर शायद ज्यादा गौर करना चाहिए कि इस वक्त विचारधारा का बिजनेस खुले भाजार में बिना पूंजी बिना जोखम सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाला है। विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता होती तो एक ही विचारधारा और एक ही एजंडा और एक ही नारे उछालने वाले लोग अलग अलग खेमे में, अलग अलग धड़ों बंटकर विचारधारा के एटीएम को दुहने का काम नहीं कर रहे होते। तथाकथित विचारधारा के लोगों को गने के लिए उनके पास कुछ नहीं होता, जो जय भीम कामरेड के पात्र हैं और जो वास्तव में देश के बहिष्कृत समाज और भूगोल के दायरे में मारे जाने का इंतजार करने के लिए अभिशप्त है। कृपया आनन्द के प्रेमों से खिलवाड़ न करें।

शिव शक्ति और भीमशक्ति की महायुति के दौर में  3 घंटे 20 मिनट की इस लंबी फिल्म में महाराष्ट्र में दलित एक्टिविज्म को दिखाया गया है। फिल्मकार आनंद पटवर्धन की दलित मुद्दों पर बनी डाक्यूमेंट्री फिल्म 'जय भीम कॉमरेड' ने साउथ एशिया के बेस्ट फिल्म का खिताब जीता है। पिछले हफ्ते कठमांडू में चार दिनों तक चले कार्यक्रम में उनकी फिल्म को रामबहादुर ट्राफी दिया गया।पटवर्धन की इस फिल्म ने 35 अन्य फिल्मों को पीछे छोड़ते हुए यह खिताब जीता।पुरस्कार स्वरूप उन्हें 2 हजार अमेरिकी डालर मिला है।इस फिल्म में भारतीय समाज में वर्ण के आधार पर बंटे जाति के बारे में उसकी सच्चाई के बारे में दिखाने की कोशिश की गई है। ऐक्टिविस्ट फिल्मकार के रूप में मशहूर आनंद पटवर्धन एक बहुचर्चित नाम है। "राम के नामं", "पिता-पुत्र और धर्मयुद्धं", "अमन और जंगं", "उन मितरां दी यादं", "बबई हमारा शहरं" उनकी कुछ चर्चित फिल्में हैं। आनंद ने राम के नामं फिल्म उस समय बनाई थी, जब बाबरी ध्वंस नहीं हुआ था, लेकिन उसके ध्वंस के षड्यंत्र चल रहे थे। जब उनसे पूछा जाता है कि आपने इस फिल्म में मुस्लिम कट्टरपन को क्यों नहीं दिखाया, तब उन्होंने जवाब दिया कि मैं कम से कम भारत में तो इसे बैलेंस नहीं कर सकता क्योंकि यहां हिंदू कट्टरपन ज्यादा है। यदि मैं यह फिल्म पाकिस्तान में बनाता तब जरूर ऐसा करता क्योंकि वहां मुस्लिम कट्टरपन ज्यादा है।


लाल झंडा और नीले रिबन का द्वंद्व हवाई नहीं है।लाल झंडे के भरोसे प्रकृति और प्रकृति से जुड़े समुदायों के लोगों को प्रतिरोध की प्रेरणा मिलती है। पर इसी प्रतिरोध में उन्हें आखिरकार घनघोर दमन का सिकार होना पड़ता है और विचारधारा व्यापारी सत्ता के खेल में निष्णात हो जाते हैं। नक्सलवाद से लेकर माओवाद तक की यही दास्तां हैं। अब कारपोरेट तत्व भी इसमें शामिल हुआ है। आदिवासी इलकों की घेराबंदी और वहां से मूलनिवासियों की बेदखली में कारपोरेट जगत के हिस्सेदार विचारवान लोगों की भूमिका की पड़ताल करें, तो यह संकट समझ में आयेगा। नीला रिबन तो अभी भावनात्मक आंदोलन के ्लावा प्रतिरोध की जमीन पर कहीं नहीं है। पहचान और अस्मिता की राजनीति का हश्र हम देख रहे हैं। पर लाल झंडा के विकल्प बतौर नीला रिबन के आविर्बाव के वास्तव को तो नकारा नहीं जा सकता। लेकिन जो लोग इस फिल्म में प्रसंग में गांधी, अंबेडकर और मार्क्स त्रिकोण को जबरन घुसेड़ रहे हैं, उनका असली मकसद इस उभरते हुए विकल्प को सिरे से खारिज करना है। मार्क्सवादी कवि, गायक और चिंतक ने आत्महत्या करते समय घर की दीवार पर मोटे अक्षरों में लिख डाला कि 'दलित अस्मिता की लड़ाई लड़ो।'यह लड़ाई कोई नयी लड़ाई भी नहीं है। इस लड़ाई को तमाम आदिवासी विद्रोह में देखा जा सकता है। संतों के आंदोलन के जरिये लड़ाई तो दलित अस्मिता  की ही थी। ईश्वर और धर्म की इजारेदारी और सत्ता की सर्वोच्चता के खिलाफ एक धारावाहिक विद्रेह, जिसे भक्ति आंदोलन कह दिया गया। तो दूसरी​ ​ ओर, साम्राज्यवाद और सामंतवाद के खिलाफ आदिवासियों के हजारों साल के संघर्ष को कभी दलित अस्मिता से जोड़ा ही नहीं जा सका। दलित​ ​ अस्मिता का असली संकट अलगाव का संकट है। इस अलगाव को अंबेडकर भी नहीं मिचा सकें। दलितों और आदिवासियों को एकसाथ जोड़ने का​​ काम अगर अंबेडकर कर लेते तो आदिवासियों को आज नक्सली और माओवादी बताकर बाकी देश की खामोशी की बदौलत इतना बेरहमी और आसानी से उनका नरसंहार और विस्थापन का सिलसिला चल नहीं रहा होता। दलित अस्मिता और पहचान की राजनीति का संकट भी लाल झंडे के संकट​ ​ की तरह है । राजनीतिक परिवर्तन तो हो जाता है, पर सामाजिक परिवर्तन नहीं होता। वर्चस्व बना रहता है, जिसके खिलाफ दलित अस्मिता ​​और लाल झंडा दोनों का विद्रोह है।

वामपंथ और दलित आंदोलनों के बीच संवाद  के परिप्रेक्ष्य में प्रश्नों का जवाब इस फिल्म ने 'कबीर कला मंच' के गानों और नारों के माध्यम से दिया है। फिल्म का दूसरा पहलू है, गांधी और आंबेडकर के बीच संवाद का। गांधी की भूमिका पर पूना पैक्ट के बाद से लगातार सवाल उठते रहे हैं। इस कल्पित संवाद से उन सवालों के जवाब नही मिल सकता, जाहिर है। भारत में लाल झंडा उठाने  वाले लोग बहुत ही विरले होंगे, जिन्होने वर्ण व्यवस्था को भारतीय समाज की मूल समस्या माना हो या फिरप कभी अंबेडकर को पढ़ा हो। मायावती, पासवान लालू मुलायम या अठावले उदितराज से अलग दर्जा देते हों। भले ही वोट बैंक की राजनीति में आज गांधी के बजाय अंबेडकर के ज्यादा प्रासंगिक हो जाने के कारण इस एटीएम से बी नकदी उढाने में उन्हें कोई परहेज नहीं है।

प्रख्यात फिल्मकार आनंद पटवर्धन की भारतीय दलितों पर आधारित वृत्तचित्र फिल्म "जय भीम, कॉमरेड" चौंकाने वाला आंकड़ा पेश करती है। इस फिल्म के मुताबिक रोजाना दो दलितों के साथ दुष्कर्म की घटना होती है तो तीन की हत्या होती है। फिल्म को बनाने का कारण उनका एक दोस्त था जिसने 97 की उस घटना के बाद खुद को फांसी लगा ली थी। पटवर्धन के मुताबिक फिल्म में घटना के बाद की सारी परिस्थितियों के बारे में दिखाया गया है।आत्महत्या करते समय विलास ने अपने सिर पर लाल झंडा नहीं बल्कि नीला रिबन लपेट लिया। विचारधारा का यह सांकेतिक स्थानापन्न लगभग सन्देश और सीख  की तरह प्रेषित होता है।  सन्देश उनके लिए जो गरीबी की करुण कहानी जीते हैं और सीख उनके लिए जो सर्वहारा के हितैषी तो हैं लेकिन भारतीय सर्वहारा की सामाजिक-सांस्कृतिक अवस्थितियों के बजाय वर्ग-संघर्ष के आर्थिक आधारों पर ही टिके रहे।फिल्म का नायक कामरेड परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों को लेकर चिंतित रहता था, कई बार उसके लिए भी उसे गाना पड़ता था। उसके साथी कामरेडों को यह सही नहीं लगा। उसे पार्टी से निकाल दिया गया। विचारधारा के प्रति समर्पित लोगों के लिए प्रतिबद्धता की कमी का आरोप सजा-ए-मौत जैसा ही लगता है। जातीय अस्मिता क्या इतनी प्रभावकारी है कि साम्यवादी प्रतिबद्धता भी उसे समाप्त नहीं कर पाई? या फिर साम्यवादी प्रतिबद्धता को वर्ग के अलावा शोषण की किसी और सामाजिक संरचना की समझ ही नहीं बन पाती है?

फिल्म की शुरूआत 11 जुलाई, 1997 के उस दिन से होती है, जब अम्बेडकर की प्रतिमा को अपवित्र किए जाने की घटना के विरोध में 10 दलित इकट्ठे होते हैं और मुम्बई पुलिस उन्हें मार गिराती है। इस हत्याकांड के छह दिन बाद अपने समुदाय के लोगों के दर्द व दुख से आहत दलित गायक, कवि व कार्यकर्ता विलास घोगरे आत्महत्या कर लेते हैं।इसके बाद फिल्म दलितों की अपनी भावप्रवण कविताओं व संगीत के जरिए अनूठे लोकतांत्रिक तरीके से विरोध करने की शैली की विरासत को उजागर करती है। फिल्म घोगरे व अन्य गायकों और कवियों की कहानी पेश करती है।

फिल्म में एक दलित नेता कहता है, ""हमारे पास हर घर में एक गायक, एक कवि है।"" यहां देश के सबसे निचले तबके के शोषितों व अफ्रीकी मूल के अमेरिकीयों के बीच समानता प्रतीत होती है। दोनों की संगीत व काव्य की मजबूत परम्परा रही है, जो उन्हें राहत व मजबूती देती है और उन्हें अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार करती है।

यही वजह है कि महाराष्ट्र सरकार ने एक मजबूत दलित संगीत समूह (फिल्म में इसे प्रमुखता से दिखाया गया है) कबीर कला मंच (केकेएण) को नक्सली समूह बताकर उसे प्रतिबंधित कर दिया है।

"जय भीम.." उस विडंबना को भी दिखाती है कि कैसे एक दलित नेता डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भारतीय संविधान लिखा और फिर भी उनका ही समुदाय लगातार पीछे है।

फिल्म का मकसद सच्चाई उजागर करना है। पटवर्धन ने आईएएनएस से कहा, ""फिल्म की दृष्टि आलोचनात्मक है। इसमें दलित आंदोलन की भी आलोचनात्मक समीक्षा है लेकिन इसमें इस समुदाय के उन युवाओं की आलोचना नहीं है जिन पर भूमिगत होने के लिए दबाव बनाया जाता है।""

कुछ फिल्म समारोहों में प्रदर्शन के बाद सोमवार को मुम्बई के बायकुला में बीआईटी चॉल में 800 से ज्यादा लोगों के सामने इसका प्रदर्शन हुआ। सभी ने मंत्रमुग्ध होकर 200 मिनट अवधि की इस फिल्म को बिना ब्रेक के देखा।पटवर्धन को इस फिल्म को बनाने में 14 साल लगे।

हमेशा आनंद पटवर्धन को वही पंगा लेना पड़ता है। गौरतलब है कि आनंद पटवर्धन एक ख्याति प्राप्त फिल्मकार हैं. खास कर गंभीर सवाल खड़े करने वाली उनकी फिल्में अक्सर विवादों में घिर जाती है। आडवाणी की रथयात्रा पर उन्होंने राम और नाम नाम की डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाई थी जो तमाम विवादों के बाद प्रदर्शित हो पाई। ऐसे ही 2005 में आई उकी 'जंग और अमन' को भी ढेरों विरोध का सामना करना पड़ा था. फिल्म में परमाणु हथियार और युद्ध के खतरों के बीच उग्रवाद और कट्टरपंथी राष्ट्रवाद के बीच संबंध तलाशने की कोशिश की गई थी। इस फिल्म के बारे में पटवर्धन का कहना है कि यह फिल्म निजी कारण से उनके दिल के बहुत करीब है।

हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं, जब मार्क्सवादी खेमे में निराशा देखने को मिल रही है और ऐसे दौर से आनंद पटवर्धन भी अछूते रहेंगे, इसकी उम्मीद तो थी, पर जय भीम कॉमरेड  के नाम से यह उम्मीद भी डगमगाने लगी थी। फिल्म एक तरह से क्रांतिकारी दलित गायक विलास घोगरे को रचनात्मक श्रद्धांजलि है। विलास घोगरे को पहली बार आनंद की फिल्म बॉम्बे: हमारा शहर  में एक कथा सुनो रे लोगों..एक व्यथा सुनो रे लोगों..हम मजदूर की करुण कहानी, आओ करीब से जानो! गाते हुए देखा—सुना था। आनंद की यह शायद पहली फिल्म है, जिसमें वह राजनीति के अलावा सांस्कृतिक व सामाजिक कथाओं को भी लेकर आए हैं। विलास के उपर्युक्त गीत में सामाजिक—सांस्कृतिक पहलू को देखने का एक प्रबल आग्रह है। जय भीम कॉमरेड अपने तईं इसी प्रबल आग्रह की पूर्ति करती है। 16 जनवरी, 1997 को ट्रेड यूनियन नेता दत्ता सामंत की हत्या होती है। एक जुलाई 1997 को मुंबई की रमाबाई कॉलोनी में अंबेडकर की प्रतिमा के अपमान का विरोध दर्ज करा रहे दलितों का पुलिसिया दमन होता है। दसियों प्रदर्शनकारी मारे जाते हैं। इसके बाद विलास घोगरे आत्महत्या करते हुए एक तरह का प्रतिकार दर्ज करते हैं। इसी 'विडंबना' ने आनंद को इस फिल्म के लिए उकसाया। जो कवि मार्क्सवाद का अनुयायी बनकर जीवन का करुण गीत गाता रहा, अंत में खुद भी एक करुण कहानी बन गया। इस विडंबना का खास पहलू यह है कि खुदकुशी करते समय विलास ने सिर पर लाल झंडा नहीं, नीला रिबन लपेट लिया था।


आनंद पटवर्धन की "राम के नाम" फिल्म बखूबी बयां करती है कि साम्‍प्रदायिकता किस तरह भारत में सत्ता हासिल करने का माध्यम है। आनन्‍द ने यह फिल्‍म मस्जिद के ढहाए जाने से पहले 1991 में ही पूरी कर ली। 16वीं शताब्दी में बनी हुई बाबरी मस्जिद को बताया जाता है कि यह राम मंदिर को तोड़कर बनाई गई है, इसलिए अब बाबरी मस्जिद को तोड़कर ही राम का मंदिर बनना चाहिए। फिल्म राम के नाम को हर तरफ से जाचंती है फिर विश्व हिंदू परिषद के राम को भी दिखाती है। आनंद उस साम्‍प्रदायिकता के सच को उजागर करते हैं, जो सत्ता हासिल करने के लिए राम के नाम का प्रयोग करती हुई लाशों का ढेर लगाती है। फिल्म धार्मिक असहिष्णुता के खिलाफ मानवता को सामने रखती है। बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद हुए साम्‍प्रदायिक दंगों में हज़ारों लोगों धर्म की बलिबेदी पर चढ़ा दिया गया था। फिल्म में एक तरफ आम आदमी से लेकर विहिप, बजरंग दल, भाजपा सहित सभी नेताओं और पुजारियों के वक्तव्य हैं,  दूसरी तरफ मुस्लिम धर्म के लोगों की भी प्रतिक्रिया ली गई है। यह डेढ़ घंटे की फिल्म किसी भी संवेदनशील व्‍यक्ति को बेचैन कर देती है, सोचने को मजबूर करती है और फासिस्‍टों का असली चेहरा उजागर करते हुए उनके प्रति नफरत का भाव पैदा करती है।

आनंद का कहना है-मैं लगभग 30 सालों से फिल्में बना रहा हूं। मैंने जयप्रकाश आंदोलन से लगाकर इमरजेंसी, सा प्र्रदायिकता, गरीबी, परमाणु ऊर्जा की होड़ आदि विषयों पर फिल्में बनाई हैं। मैंने दोनों पाटिüयों के समय में फिल्में बनाई हैं और दोनों का रवैया एक जैसा रहा है। दोनों ही ऐसी फिल्मों को दिखाने में आनाकानी करती हैं। जबकि मैं वही मांगता हूं, जो संविधान में है। संविधान में जो अधिकार मिले हैं, उसके विपरीत कुछ नहीं करता फिर भी हमारी फिल्मों को लोगों तक पहुंचने में इतनी मशक्कत करनी पड़ती है। रही बात सा प्रदायिकता की तो यह कांग्रेस में भी है लेकिन राजग की अपेक्षा कम है। कांग्रेस थोड़ी लिबरल है। इसके समय में बुद्धिजीवियों को थोड़ी सांस लेने का मौका मिलता है। हां, इमरजेंसी के समय में इसने भी सबकी सांस रोक दी थी। तब हम सब लोग जेल में थे और कांग्रेस के खिलाफ लड़ रहे थे। कांग्रेस कितनी भी बुरी हो, लेकिन फिर भी हम राजग जैसी फासीवादी पार्टी की वापसी नहीं चाहेंगे।

आनंद मानते हैं कि मुख्यधारा के सिनेमा के लिए ज्यादा पैसे की जरूरत होती है। अच्छी तकनीक चाहिए होती है, कोई बिजनेस मैन भी चाहिए, जो पैसा दे सके। हमारी अपनी सीमाएं हैं, अपनी लिमिटेशंस हैं और दूसरी बात यह भी है कि यदि मैं फिक्शन फिल्में बनाता होता तो शायद कोई मेरी फिल्मों पर विश्वास भी नहीं करता। जबकि डाक्यूमेंट्री में मैं साफ-साफ दिखाता हूं कि क्या हो रहा है। नेताओं के वक्तव्य उसमें होते हैं, कोई भी सुन सकता है। मैं वही दिखाता हूं, जो सच है। उसमें बाहर से कुछ भी नहीं डालता। यदि मैं भी फिक्शन फिल्में बनाऊंगा तो फिर डाक्यूमेंट्री कौन बनाएगा?

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