Tuesday, 27 March 2012 10:55 |
शंकर शरण संविधान बनाने वालों की भावना यह थी कि अल्पसंख्यकों को किन्हीं कारणों से उन अधिकारों से वंचित न होना पड़े। इसलिए उन्हें बहुसंख्यकों के बराबर सभी अधिकार मिले रहें, इस नाम पर धारा-30 जैसे उपाय किए गए। धारा 30 (2) को पढ़ कर संविधान निर्माताओं का यही भाव स्पष्ट होता है। पर स्वतंत्र भारत में हिंदू-विरोधी और नास्तिक नेताओं, बुद्धिजीवियों ने धीरे-धीरे, चतुराई से उन धाराओं का अर्थ यह कर दिया कि अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार हैं। यानी ऐसे अधिकार जो बहुसंख्यकों, यानी हिंदुओं या हिंदी भाषियों को, नहीं दिए जाएंगे। एमजे अकबर ने एक बार स्पष्ट रूप से कहा भी कि बहुसंख्यकों के बराबर अधिकार देने का अर्थ अल्पसंख्यकों को नीचे उतारना है। इस बौद्धिक जबर्दस्ती और अन्याय का व्यावहारिक रूप यह हो गया है कि धारा-25 से लेकर 30 तक की व्याख्या और उपयोग हिंदू समुदाय के धर्म और अधिकारों के प्रति हेय भाव रखते हुए किया जाता है। इसीलिए हिंदू मंदिरों, संस्थाओं और न्यासों को जब चाहे सरकारी कब्जे में लेकर फिर उनकी आय का मनमर्जी उपयोग या दुरुपयोग होता है। अत: इस पर खुला विचार होना चाहिए कि हिंदुओं को अपने मंदिर, संस्थान और न्यास संचालित करने का वही मौलिक अधिकार क्यों नहीं है, जो दूसरों को है? अगर किसी मंदिर में विवाद या घोटाला हो, तो दोषी व्यक्तियों को कानूनी प्रक्रिया से कार्यमुक्त या दंडित किया जा सकता है। पर न्यास को हिंदू श्रद्धालुओं के बदले नेताओं, अफसरों से भर कर उस पर राजनीतिक या राजकीय कब्जा करना सरासर हिंदू-विरोधी कृत्य है। यह कानून को हिंदू-विरोधी अर्थ दे देना है। दुर्भाग्य से, समय के साथ न्यायालयों ने भी संविधान की 26-30 धाराओं का वह अर्थ कर दिया है, मानो अल्पसंख्यकों को वैसे अधिकार हैं जो बहुसंख्यकों को नहीं। मसलन, हज सबसिडी की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर जनवरी 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यह एक समुदाय के लिए मजहबी पक्षपात है। पर चूंकि इसमें राजकीय बजट की 'बड़ी रकम' नहीं लगती (केवल 611 करोड़ रुपए सालाना), इसलिए यह संविधान की धारा-27 का उल्लंघन न माना जाए। यह एक विचित्र तर्क था! मगर यह प्रकारांतर से अल्पसंख्यकों को अधिक अधिकार देने जैसा ही है। यह तब और अन्यायपूर्ण प्रतीत होता है जब देखें कि केरल, गुजरात और पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक मजहबी संस्थाओं का आतंकवादियों द्वारा दुरुपयोग करने के समाचार आते रहे हैं। चर्च द्वारा माओवादियों और अलगाववादियों को सहयोग देने की खबरें भी कई स्थानों से आई हैं। क्या यह सब मस्जिद और चर्च प्रबंधन में गड़बड़ी नहीं? तब केवल रामकृष्ण आश्रम, तिरुपति, काशी विश्वनाथ या शिरडी सार्इं मंदिर जैसी हिंदू संस्थाओं पर ही राजकीय हस्तक्षेप की तलवार क्यों लटकाई गई? यह स्पष्टत: भारत में हिंदुओं का हीन दर्जा ही है कि वे अपनी धार्मिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक संस्थाओं को उसी अधिकार से नहीं चला सकते जो ईसाइयों और मुसलिमों को हासिल हैं। यह चलन न केवल सहज न्याय-विरुद्ध है, बल्कि गैर-सेक्युलर भी है। सेक्युलर राज्य का प्राथमिक अर्थ है कि राज्य धर्म के आधार पर अपने नागरिकों में भेदभाव नहीं करेगा। जबकि भारत में धारा 26-30 का सारा व्यवहार इस अघोषित मान्यता पर चलता है कि हिंदू संस्थानों-मंदिरों, शिक्षा संस्थाओं, आश्रमों, न्यासों को चर्च, मस्जिदों, कान्वेंटों और मकतबों की तुलना में कम स्वतंत्रता है। दुनिया के किसी देश में ऐसा नहीं, कि वहां अल्पसंख्यकों को वैसे अधिकार हों जो बहुसंख्यकों को न हों। मगर भारत में यही चल रहा है। कानूनी और राजनीतिक दोनों रूपों में। धारा 26 से 30 को हिंदुओं के लिए भी लागू करना ही न्यायोचित है। इसमें किसी अन्य समुदाय का कुछ नहीं छिनेगा। केवल यह होगा कि हिंदुओं को भी वह मिलेगा जो दूसरों को मिला हुआ है। समय रहते इस भेदभाव का अंत होना चाहिए। |
BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7
Published on 10 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH.
http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM
http://youtu.be/oLL-n6MrcoM
Wednesday, March 28, 2012
धार्मिक संस्थाओं से राजकीय भेदभाव
धार्मिक संस्थाओं से राजकीय भेदभाव
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