उत्तराखंड : बर्बादी की ऊर्जा परियोजनाऐं
Author: समयांतर डैस्क Edition : November 2012
भारत झुनझुनवाला
जलविद्युत कंपनियों की अवैध गतिविधियों को केंद्र और उत्तराखंड की राज्य सरकार का समर्थन मिल रहा है। इसमें अंतर्निहित यह समझ है कि इन परियोजनाओं से होनेवाले लाभ इतने ज्यादा हैं कि पर्यावरण का विनाश न्यायोचित है। मैं श्रीनगर जल विद्युत परियोजना का उदाहरण दे रहा हूं जिसका निर्माण उत्तराखंड में गंगा में हो रहा है। यह परियोजना गंगा नदी को 30 किलो मीटर लंबे संड़ाध भरे जलाशय में बदल देगी। इसके कई गंभीर पर्यावरणीय असर होंगे। वह तलौंछ (सेडिमेंट) जो कि मछलियों के लिए भोजन है और जो हमारे तटीय क्षेत्र को पुन:पोषित करती है, वह वहीं थम जाएगी।
नागपुर स्थित राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान ने पाया है कि गंगा के पानी में विशेष शक्तिशाली कॉलीफेज होते हैं। ये लाभकारी बैक्टीरिया हैं। जब पानी में प्रदूषक बढ़ते हैं तो ये कॉलीफेज सक्रिय हो जाते हैं और उन्हें खा जाते हैं। ये तलौंछ में बैठ जाते हैं। तलौंछ तांबे और क्रोमियत से भरी है जिसमें कि बैक्टीरिया को मारने के तत्त्व होते हैं। तलौंछ में बहुत क्षीण मात्रा में रेडियोधर्मी सक्रियता होती है जो संभवत: इन लाभकारी कॉलीफेज के निर्माण को प्रभावित करती हो। नदियों पर बड़ी संख्या में बांध बनाना दो तरह से तलौंछ को प्रभावित करता है। बंध के पीछे सरोवर में बड़ी मात्रा में तलौंछ बंद हो जाती है। दूसरा, नदियों को सुरंगों से निकालने से पानी और चट्टानों के बीच होनेवाला टकराव खत्म हो जाता है और इस तरह से तलौंछ का बनना बंद हो जाता है।
परियोजना का दूसरा नकारात्मक पहलू जलाशय में पैदा होने वाली जहरीली मीथेन गैस है। जैविक पदार्थ जैसे कि पत्तियां और मृत शरीर तल में बैठ जाते हैं और उनका किण्वन (फरमेंट) होने लगता है। कार्बनडाइआक्साइड तभी तक बनती है जब तक कि पानी में आक्सीजन रहती है। इसके बाद जहरीली मीथेन गैस बनने लगती है। यह गैस वैश्विक गर्मी को बढ़ाने में सीओ2 (CO2) से कई गुना ज्यादा योगदान करती है।
स्थानीय लोगों को मछलियों और रेत का नुकसान होगा। जलाशय में मच्छर जन्मेंगे और वे मलेरिया फैलाएंगे। स्विटजरलैंड के एक संस्थान द्वारा किए गए एक वैश्विक अध्ययन के अनुसार मानवनिर्मित जलाशयों के आसपास मलेरिया की घटनाएं सात गुना ज्यादा होती हैं बनिस्पत कि पड़ौस के इलाके के।
कई स्थानीय लोग पर्यावरणीय नुकसानों के बावजूद परियोजना का समर्थन कर रहे हैं। तर्क यह है कि आपत्तियां पहले की जानी चाहिए थीं, न कि अब जबकि परियोजना पूरा होने के निकट है। यह तर्क इस तथ्य की अनदेखी करता है कि परियोजना के खिलाफ पहली अपील 2008 में दायर की गई थी, तब निमार्ण की शुरूआत ही हुई थी।
परियोजना के लिए लगभग 350 हेक्टेयर वन भूमि तथा इससे भी ज्यादा निजी भूमि का अधिग्रहण किया जाएगा और यह जलाशय में डूब जाएगी। इस भूमि से रोजगार का नुकसान कई गुना ज्यादा होगा। सेवा क्षेत्र (सर्विस सेक्टर) की रोजगारों की क्षमता को नुकसान पहुंचेगा। प्राकृतिक रूप से बहती नदियों के किनारे अस्पताल, विश्वविद्यालय और साफ्टवेयर पार्क स्थापित किए जा सकते हैं जिनके परिणाम भी बेहतर निकलते। गंगा को सुखाने और सड़ांध भरे जलाशय में बदलने से ये अवसर खत्म हो जाएंगे। उत्तराखंड में लाखों होटल चलानेवाले और टैक्सी चलानेवाले चारधाम यात्रा से अपना जीवन यापन करते हैं। गंगा को मार दिए जाने के बाद यह यात्रा घट जाएगी।
तीसरा तर्क यह है कि तथाकथित 'बाहरी' पर्यावरणवादी उत्तराखंड में आकर राज्य के आर्थिक विकास के मार्ग में रोड़े अटका रहे हैं। पर यह भुला दिया जाता है कि बांध बनानेवाली कंपनियां भी 'बाहर' से आ रही हैं। अगर आपत्ति बाहरी लोगों को लेकर है तो सबसे पहले बांधवाली कंपनियों को बाहर किया जाना चाहिए। उत्तराखंड के लोगों को यह भी समझना चाहिए कि उनमें से कई लोग दिल्ली और चंडीगढ़ में अपनी आजीविका चला रहे हैं। तब इन 'बाहरी' लोगों को भी कहा जाना चाहिए कि वे उत्तराखंड वापस जाएं।
चौथा तर्क यह है कि उत्तराखंड के विकास के लिए जलविद्युत आदर्श प्राकृतिक स्रोत है जिसका दोहन किया जाना चाहिए। मैं जल विद्युत का विरोधी नहीं हूं। समाधान यह है कि जलविद्युत परियोजनाओं के डिजाइन में बदलाव किया जाना चाहिए। पूरी नदी में बांध बनाने की जगह नदी के प्रवाह के एक हिस्से को ही रोका जाना चाहिए और इस हिस्से से विद्युत पैदा की जानी चाहिए तथा बाकी पानी को बहने दिया जाना चाहिए जिससे कि तलौंछ नीचे की ओर जा सके और मछलियां ऊपर की ओर आ सकें। इस तरह के डिजाइन से बिजली बनाने की कीमत चार रुपए से बढ़कर पांच रुपए हो जाएगी लेकिन पर्यावरणीय और सामाजिक कीमत लगभग 90 प्रतिशत घट जाएगी।
असली कमाल नदी से पानी बिना उसमें आर-पार रोक लगाकर निकालने में है। हरियाणा में यमुना पर ताजेवाला में जो बराज है वह कुल मिला कर यही करता है। पूर्वी यमुना नहर के लिए पानी नदी के किनारे पर दरवाजे बनाकर लिया जाता है। जैसे ही नदी मुड़ती है नहर में पानी दरवाजों से सेंट्रीफ्यूगल शक्ति से जाने लगता है। अलास्का की ताजीमीनिया जलविद्युत परियोजना में भी नदी से पानी इसी तरह लिया जाता है। नदी में वहां पर खुदाई की जाती है जहां प्राकृतिक तालाब है। पानी बराज बनाये बिना ही सुरंग में जाने लगता है। परियोजना छोटी है सिर्फ 825 किलोवाट की। लेकिन ऐसा कोई कारण नहीं है कि इस पद्धति को अन्य बड़ी परियोजनाओं के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
सरकार इन सारी समस्याओं को जानती है। इसके बावजूद वह इन परियोजनाओं को बनाने पर तुली हुई है क्योंकि उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों को गरीब लोगों से लेकर अमीर लोगों को सौंपना है। मैंने कोटलीभेल 1बी जलविद्युत परियोजना, जो कि लगभग श्रीनगर परियोजना जैसी ही है, की पर्यावरणीय लागत को रुपए में आंका है। मेरा आकलन है कि इससे पर्यावरण को प्रति वर्ष सात सौ करोड़ रुपए का नुकसान होगा जबकि बिजली से 155 करोड़ रुपए का प्रतिवर्ष लाभ होगा। मैंने अपनी किताब को भारत सरकार और उत्तराखंड सरकार के विभिन्न अधिकारियों को भेजा है।
लेकिन कोई भी इन पक्षों की जांच करने को राजी नहीं है। कारण यह है कि सरकार का बांध बनानेवाली कंपनियों से दुष्टता भरा गठबंधन है। वहजनता को गलत सूचनाएं देकर भटका रही है कि बिजली उत्पादन से तथाकथित जबर्दस्त लाभ होंगे और इसके बेशुमार पर्यावरणीय और सामाजिक नुकसानों को चुपके से गरीब लोगों के सर डाल रही है। ब्रिटिश सरकार ने गरीब लोगों को गफलत में डाल कर उन्हें पुलिस में भर्ती किया और उन लोगों पर गोलियां चलवाईं जो स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे। केंद्र और राज्य सरकारें उसी तरह से उत्तराखंड के लोगों को ठग कर उन्हें बाँध कंपनियों के साथ मिल कर अपनी संस्कृति, पर्यावरण और अर्थव्यवस्था को बर्बाद करवा रही है।
साभार: डेक्केन हेरॉल्ड
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