Monday, 01 April 2013 11:43 |
सुनील भारत सरकार एक विचित्र स्थिति में पहुंच गई है। वह बजट घाटे को कम रखने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है ताकि रेटिंग एजेंसियों द्वारा उसकी रेटिंग ठीक रहे और उसके मुताबिक विदेशी पूंजी निवेशक भारत की ओर रुख करते रहें। बजट घाटे को कम करने के लिए सरकार जनकल्याण पर जरूरी खर्च में कटौती कर रही है, सरकारी संपत्ति को बेच रही है और जनसाधारण पर डीजल, बिजली, पानी आदि की बढ़ती हुई दरों का बोझ डाल रही है। लेकिन दूसरी तरफ वह बड़ी-बड़ी कंपनियों पर टैक्स कम कर रही है, उन्हें करों से बचने की इजाजत दे रही है। उन्हें अनुदान भी दे रही है। यह खुला खेल सरकार क्यों खेल रही है? क्या उसकी कोई मजबूरी है? कहा जा सकता है कि एक मायने में सरकार मजबूर है। अर्थव्यवस्था की हालत खराब है। राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर कम होती जा रही है और विदेशी मुद्रा का भुगतान संतुलन लगातार बिगड़ रहा है। विदेश व्यापार हमेशा से घाटे में था, लेकिन अब इस घाटे ने विकराल रूप धारण कर लिया है। बाहर से जो अन्य चालू प्राप्तियां (जैसे विदेशों में बसे भारतीयों द्वारा भेजा जाने वाला पैसा) मिलती थीं, उनका प्रवाह भी सूखने लगा है। ऐसी हालत में भुगतान संतुलन के चालू खाते का घाटा 7500 करोड़ डॉलर का विकराल रूप धारण कर चुका है। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार पहले लगातार बढ़ रहा था, पर अब वह भी छीजने लगा है। अगर हालात नहीं सुधरे तो हम 1991 जैसीसंकटपूर्ण स्थिति में पहुंच सकते हैं, जब भारत को अपना सोना लंदन में गिरवी रखना पड़ा था और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से काफी अनुचित शर्तों पर कर्ज लेना पड़ा था। इस संकट से उबरने का एक ही उपाय सरकार को दिखाई देता है, वह यह कि किसी भी कीमत पर विदेशी पूंजी को बुलाए और पूंजीगत खाते के अधिशेष से चालू खाते के घाटे को पूरा करे। यह अलग बात है कि ऐसा करने से देश की देनदारियां और बढेÞंगी, और आने वाले सालों में भुगतान संतुलन का संकट और गंभीर होगा। दरअसल, पिछले दो दशक में सरकार लगातार विदेशी लेन-देन में चालू खाते के घाटे को विदेशी कर्जों और विदेशी पूंजी से पूरा करने का प्रयास करती रही है और इसको उपलब्धि बता कर खुद की पीठ ठोंकती रही है। आज विदेशी पूंजी के प्रवाह पर सरकार इतना ज्यादा निर्भर हो गई है कि विदेशी पूंजीपतियों के थोड़ी भी नाराजगी दिखाने या धमकी देने से सरकार घबरा जाती है, उनकी नाजायज मांगें भी मानने को मजबूर हो जाती है। गौरतलब है कि भारत में आ रही विदेशी पूंजी में लगभग आधा हिस्सा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश है तो आधा केवल शेयर बाजार में लगने वाला पोर्टफोलियो निवेश है और खासतौर पर यही सट््टात्मक वित्तीय पूंजी भारत सरकार को जिस तरह चाहे नचा रही है। विडंबना यह है कि इसकी तमाम मांगें पूरी करने के बावजूद कभी भी मुसीबत के समय में इसे भागते देर नहीं लगेगी। दस साल में आए विदेशी पोर्टफोलियो निवेश को वापस जाने में दस दिन भी नहीं लगेंगे। मैक्सिको और दक्षिण-पूर्व एशिया के अनुभव इस बात के उदाहरण हैं कि यह वित्तीय पूंजी पहले तो तेजी का गुब्बारा फुलाती है और उसके फूटते वक्त सबसे पहले साथ छोड़ कर भागती है। यह चंचल, उड़नछू पूंजी कभी भी बड़ी-बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को अस्थिर कर सकती है। विदेश व्यापार का बढ़ता घाटा बता रहा है कि निर्यात आधारित विकास का मॉडल बुरी तरह विफल हुआ है। राष्ट्रीय आय की ऊंची वृद्धि दर एक बुलबुला साबित हुई है। दरअसल, इस गरीब देश के करोड़ों लोगों के हितों और मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों में बुनियादी विरोध है। एक की कीमत पर ही दूसरे को साधा जा सकता है, इसे लातिन अमेरिका के नव-समाजवादी शासकों ने अच्छी तरह समझा है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/41621-2013-04-01-06-14-40 |
BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7
Published on 10 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH.
http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM
http://youtu.be/oLL-n6MrcoM
Monday, April 1, 2013
मॉरीशस मार्ग की माया
मॉरीशस मार्ग की माया
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