BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Friday, May 18, 2012

शव के साथ सहवास की बकवास

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शव के साथ सहवास की बकवास

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शव के साथ सहवास की बकवास
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इन दिनों इंटरनेट पर कहा जा रहा है कि मोरक्को के एक काजी जमजमी अबुल बारी ने पिछले साल मई में फतवा दिया था कि इसलाम के अनुसार पत्नी की मौत के बाद भी शादी बरकरार रहती है और पति, पत्नी के देहांत के छह घंटे के अंदर उसके शव के साथ सहवास कर सकता है। बात यहीं खत्म नहीं होती, अब कहा जा रहा है कि मिस्र की संसद में ऐसा कानून बनाने का प्रस्ताव लाया गया है, जो पत्नी की मौत के बाद उसके साथ हमबिस्तर होने की इजाजत दे। जो बात सुनने में ही खराब लगे, उसके बारे में कानून बनाने की बात हास्यास्पद ही नहीं लगती, बल्कि घृणा भी होती है। शव के साथ सहवास करने की बात, चाहे वह पत्नी ही क्यों न, कोई सोच भी नहीं सकता। विकृत मानसिकता का शख्स ही ऐसा कर सकता है।

मिस्र की महिलाओं ने इस तरह का कानून बनाने जाने विरोध किया है, जो स्वाभाविक भी है। लेकिन किसी उलेमा का कड़ा ऐतराज अभी तक नजरों से नहीं गुजरा है। इतना तय है कि फतवे का इसलाम से कोई लेना-देना नहीं हो सकता। यह जरूर उनकी चाल लगती है, जो किसी भी प्रकार इसलाम को बदनाम करने की साजिश करते रहे हैं। इसलाम में कई फिरके हैं, लेकिन उनमें तमाम तरह के मतभेद होने के बावजूद इसका जबरदस्त विरोध की करेंगे। जिस बात का कुरआन और हदीस में कोई जिक्र नहीं है, उसे सही ठहरकार उसके मुताल्लिक कानून बनाने की बात करना निहायत शर्म की बात है। दुनिया का कोई भी धर्म या संस्कृति इस तरह की कुंठित हरकत को सही नहीं ठहरा सकता। शरीयत के किसी भी मामले में दखअंदाजी पर सख्त ऐतराज जताने वाले दुनियाभर के उलेमा क्यों खामोश हैं, यह समझ नहीं आया है? ऐसा नहीं है कि उलेमा आधुनिक दूर-संचार के साधनों से अनजान हैं। दारुल उलूम देवबंद की वेबसाइट है। फतवा भी ऑन लाइन दिया जाता है। कई पत्रिकाओं में इस बारे में छप चुका है। यह खबर इंटरनेट पर तैर रही है, लेकिन हमारे उलेमाओं की नजर इस पर क्यों नहीं पड़ी?

द सैटेनिक वर्सेज के लेखक सलमान रुश्दी पर मौत का फतवा लगाने और तसलीमा नसरीन पर तलवार भांजने वाले उलेमा क्या कर रहे हैं? हम इस बात के हिमायती नहीं कि किसी पर मौत का फतवा लगाया जाए, लेकिन बेसिर-पैर की बात करके जो भी इसलाम को बदनाम करने का काम कर रहा है, उसकी निंदा करने और फतवे को खारिज करने के लिए तो उलेमाओं को सामने आना ही चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। यदि इसका जबरदस्त विरोध नहीं किया गया, तो यही कहा जाएगा कि बात सही ही होगी और इसे भी इसी तरह इसलाम का हिस्सा मान लिया जाएगा, जिस तरह कुछ अफ्रीकी मुसलिम देशों में लड़कियों के खतना करने को माना जाने लगा है। किसी तरह का फतवा कुरआन और हदीस की रोशनी में दिया जाता है, लेकिन आम मुसलमान भी बता देगा कि इस तरह के कुकृत्य की इजाजत न तो कुरआन दे सकता है और न ही हदीस।

जिस मिस्र की संसद में पत्नी के शव के साथ सहवास करने की इजाजत देने वाला कानून बनाने का प्रस्ताव लाने की बात कही जा रही है, वहां शव को ममी के रूप में शताब्दियों तक सुरक्षित रखने की परंपरा रही है, लेकिन इतिहास में ममी के साथ सहवास करने का कोई उल्लेख इतिहास में नहीं मिलता। अगर मिलता भी, तो वह इसलाम का हिस्सा नहीं होता। ममियों का इतिहास इसलाम के वजूद में आने से पहले का है। इसलाम ममी संस्कृति को ही खारिज कर चुका है। मिस्र के राष्ट्रपति जमाल अब्दुल नासिर ने एक बार मिस्र की ममी संस्कृति पर गर्व होने की बात की थी, लेकिन उलेमाओं ने उनकी निंदा की थी और राष्ट्रपति को अपने शब्द वापस लेने पड़े थे।

सवाल यह है कि आखिर काजी जमजमी अबुल बारी किसका हित साध रहे हैं और किसको बदनाम करना चाहते हैं? अभी पिछले दिनों ही खबर आई थी कि अमेरिकी सैन्य पाठ्यक्रम में इसलाम के विरुद्ध युद्ध करने का पाठ पढ़ाया जा रहा था। जब एक छात्र ने इस पर आपत्ति जताई, तो पेंटागन ने उस पर पाबंदी लगा दी है। अमेरिका का यह शगल नया नहीं है। वह अपनी सुविधानुसार पाठ्यक्रम तैयार करता रहा है। जब वह तालिबान के साथ मिलकर अफगानिस्तान से रूसियों को खदेड़ने में लगा था, तब वह तालिबान को जेहाद का पाठ पढ़ा रहा था। जब जेहाद का पाठ उसी पर भारी पड़ा तो अब इसलाम के विरूद्ध युद्ध करने का सबक दिया जाने लगा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि अबुल बारी जैसे लोग अमेरिका जैसे देशों के एजेंट हों, जिनका काम इसलाम को बदनाम करना ही हो। यदि ऐसा है, तो उनकी कोशिशों को नाकाम करने लिए दुनियाभर के उलेमाओं को आगे आना ही होगा। बहुत बेहतर हो कि दुनिया के सबसे बड़े इसलामिक केंद्र दारुल उलूम देवबंद से इसकी शुरूआत हो।

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