BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Sunday, April 1, 2012

कविता में घर

कविता में घर


Sunday, 01 April 2012 14:26

नंदकिशोर आचार्य 
जनसत्ता 1 अप्रैल, 2012: भवानी भाई से यह मेरी पहली मुलाकात थी। उन्नीस सौ तिहत्तर की गर्मियों की बात है। जयप्रकाश नारायण ने 'एवरीमेंस वीकली' का प्रकाशन शुरू किया था। संपादक थे स.ही. वात्स्यायन 'अज्ञेय'। मैं अप्रैल में 'एवरीमेंस' में चला आया था और वात्स्यायन जी के साथ ही रह रहा था। एक शाम वात्स्यायन जी का मन भवानी भाई से मिलने का हुआ और हम लोग उनके घर पहुंच गए। 'चिति' के सिलसिले में उनसे पत्राचार हुआ था और मेरे पत्र के जवाब में उनका उत्साहवर्धक पत्र मिला था और उसी अंतर्देशीय में उन्हीं की हस्तलिपि में दो कविताएं भी मिली थीं, जो 'चिति' के दूसरे अंक में प्रकाशित हुई थीं। मैं तो इसी से मगन था, लेकिन पहली ही मुलाकात में उनके सादा व्यक्तित्व और निश्छल स्नेह ने मुझे अभिभूत कर दिया। यह प्रभाव फिर गहराता ही गया।
'एवरीमेंस वीकली' में प्रमुखत: साहित्य-संस्कृति से संबंधित पृष्ठों का दायित्व मेरा था। अंग्रेजी अखबार सामान्यत: हिंदी की उपेक्षा ही करते हैं, इसलिए वात्स्यायन जी चाहते थे कि 'एवरीमेंस' को इस दिशा में सचेष्ट होना चाहिए। मैंने इसी सिलसिले में भवानी भाई से साक्षात्कार के लिए अनुरोध किया। जुलाई के अंतिम सप्ताह में प्रकाशित यह साक्षात्कार भी मुझे विस्मित करने वाला था। 
भवानी भाई की प्रसिद्धि एक गांधीवादी लेखक के रूप में थी। लेकिन विचारधारा और कविता के संबंधों के सवाल पर उनका स्पष्ट मत था कि 'कविता किसी विचारधारा की अभिव्यक्ति का उपकरण नहीं है- बल्कि वह अभिव्यक्ति का माध्यम तभी तक है जब तक हम उसके माध्यम से किसी पूर्वनिर्धारित सत्य को कहना चाहते हैं। एक कवि के रूप में मेरे पास कुछ भी पूर्वनिर्धारित नहीं है। कविता मेरे तर्इं अभिव्यक्ति नहीं, अनुभव का माध्यम है।' इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि उनकी सर्वोच्च आस्था शब्द में हो। 'सच पूछो तो मैं नहीं कह सकता कि ईश्वर में मेरा पूर्ण विश्वास है' मेरे एक और सवाल के उत्तर में भवानी भाई ने कहा। 'मेरी वास्तविक आस्था मेरे शब्दों में है। शब्द कवि का माध्यम नहीं है, यदि सच्चा कवि है तो वह स्वयं ही शब्द का माध्यम है।' 
भवानी प्रसाद मिश्र की कविता हिंदी की सहज लय की कविता है। खड़ी बोली में बोलचाल के गद्यात्मक-से लगते वाक्य-विन्यास को ही कविता में बदल देने की जो अद्भुत शक्ति है, उसकी अचूक पहचान भवानी भाई की कविता में दिखाई देती है। यह प्रवृत्ति छायावाद-पूर्व की कविता में तो थी ही, पर नई कविता के जिन कवियों में इसका सृजनात्मक विकास हुआ दिखाई देता है उनमें अज्ञेय, रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह आदि के साथ भवानी प्रसाद मिश्र का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह भी ध्यातव्य है कि आधुनिक हिंदी कवियों में उन्हीं को कुछ लोकप्रियता मिली है, जो इस गद्यात्मक विन्यास में अंतर्निहित लयात्मकता को मूर्त्त कर सके हैं। भवानी भाई इसमें अप्रतिम हैं। 
बोलचाल की इस लयात्मक संरचना के ही कारण उनकी कविता का स्वभाव मूलत: बातचीत का या कहें कि वर्णन करने का है और इसी कारण उसमें एक प्रभावी, पर सहज नाटकीयता आ जाती है और ये सब गुण मिल कर उनकी कविता में वह सामर्थ्य विकसित कर देते हैं कि वह सरलतम तरीके से जटिलतर स्थितियों और अनुभवों को संप्रेषित करने में कामयाब होती है। दरअसल, भवानी भाई की सरल कथन-भंगिमा हमें अनवधान में डाल देती है और उसी के चलते हम अनुभव की उस जटिल संरचना को पहचान पाने में चूक जाते हैं। वह एक छलपूर्ण सरलता है। कविता में इस किस्म की सरलता को पारदर्शिता कहा जाना चाहिए, लेकिन इसे सिद्ध कवि ही हासिल कर पाते हैं। परस्पर विरोधी भावों या स्थितियों के जटिल अनुभव के एक साथ संप्रेषित हो पाने के लिए ऐसी कविता को अधिक सावधानी से पढ़ने की जरूरत होती है: 

'खुशी को/ बारहा मना किया था/ मैंने/ कि न जाए वह/ मेरे खून की धारा से/ कहने अपना दुख/ मगर वह गई/ और अब खा रही है वहां/ डुबकियां' ('रक्तकमल')
'अस्तित्व का आंगन/ कृतज्ञता की धूप से भरा है/ और तिस पर भी/ सूना है विस्तार/ देहरी से ठाकुरद्वारे तक का'  ('जैसे याद आ जाता है') 
भवानी भाई की कविता के हवाले से अज्ञेय का नई कविता के इस अनूठे रस को मिश्र रस कहना और गंभीर बात को हल्के ढंग से कहने की इस भंगिमा को उल्लेखनीय मानना सही लगता है। 
बोलचाल की इस लय के ही कारण भवानी प्रसाद मिश्र की कविता में एक विशेष प्रकार की लोक आत्मीयता का स्पर्श महसूस होता है। यह आत्मीयता केवल संप्रेषण के स्तर पर नहीं, बल्कि स्वयं अनुभव के स्तर पर व्यंजित होती है- बल्कि यह कहना शायद अधिक सही होगा कि इसी कारण प्रकृति या अन्य चीजों का अनुभव अधिक आत्मीय या कौटुंबिक स्तर पर होता है और इसलिए भवानी प्रसाद मिश्र की कविता में वह घर बराबर मौजूद रहता है, जिसकी तलाश बाद की कविता बराबर करती रही है। भवानी भाई जिस किसी भी चीज के बारे में बतियाते हैं, उसे घरेलू बना देते हैं- प्रकृति तक को। जब वह कहते हैं:
'बहुद दूर/ दक्षिण की तरफ/ नीली है पहाड़ की चोटी/ और लोटी-लोटी लग रही है/ आंगन के पौधे की आत्मा/ स्तब्ध इस शाम के/ पांवों पर।' ('अंधेरी रात')
तो आंगन का पौधा और शाम ही नहीं, दूर दिखती पहाड़ की नीली चोटी भी जैसे परिवार का एक अंग हो जाती है। वृद्धावस्था और मृत्यु तक के प्रति भवानी भाई एक आत्मीय स्वर में बात करते हैं और यह स्वर विस्मित   करता है- खासतौर पर जब पश्चिम के आधुनिक साहित्य में इनका त्रासदायक अनुभव ही सघन दीखता है।
'आराम से भाई जिंदगी/ जरा आराम से/ तेजी तुम्हारे प्यार की बरदाश्त नहीं होती अब/ इतना कस कर किया गया आलिंगन/ जरा ज्यादा है इस जर्जर शरीर को।' ('आराम से भाई जिंदगी')
भवानी भाई की प्रेम कविताएं भी अलग से ध्यान आकर्षित करती हैं- खासतौर पर प्रौढ़ प्रेम की कविताएं जिनमें उद्दाम शृंगारिकता के बजाय आत्मीय सहजीवन और उसके सुख-दुख ही प्रेम की व्यंजना है। 
'कैसे कहता/ सबसे बड़ा सुख/ सपने में मिला था/ सच यही है/ मगर इस सच को कभी मैंने दुख नहीं बनने दिया/ और ले लिए इसलिए उस दिन/ सवाल के जवाब में सरला के दोनों हाथ/ हाथों में/ और देखा हम दोनों ने चुपचाप/ एक दूसरे को थोड़ी देर।'  ('क्या चाहती हो तुम')
भवानी भाई की कविता में जब भी व्यंग्य या क्षोभ दिखाई देता है- बल्कि उनकी भी उल्लेखनीय उपस्थिति वहां है- तो आत्मीयता के अभाव या उस पर हुए आघातों के विभिन्न रूपों के प्रति विरोध के रूप में ही। इसलिए वहां भी घृणा नहीं एक सात्त्विक क्रोध की ही अभिव्यक्ति है। 
लेकिन तब क्या भवानी प्रसाद मिश्र का काव्य-संसार साधारण भारतीय जन के ऐतिहासिक और मानसिक द्वंद्वों से प्रसूत अहिंसा-बोध या संवेदन की आधुनिक प्रक्रिया का प्रतिफलन ही नहीं है? हां, निश्चय ही वह काव्यात्मक प्रक्रिया का प्रतिफलन है!

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