Sunday, 29 April 2012 11:15 |
परमानंद श्रीवास्तव हिंदू में एक बलिदानी चेतना अपेक्षित है। वीरेंद्र यादव ने अपने लेख 'मिथक और इतिहास' में स्वतंत्र संघर्ष के अंतर्विरोधों को एक क्रिटीक की तरह दिखाया है। प्रेमचंद ने बनारसीदास चतुर्वेदी को कभी लिखा था- 'इस समय मेरी प्राथमिकता कुछ नहीं है। बस आजादी। पर इससे कम पर कोई समझौता नहीं। हमारी लड़ाई केवल अंग्रेज सत्ताधारियों से नहीं, हिंदुस्तानी सत्ताधारियों से भी है।' स्वराज का आंदोलन गरीबों का आंदोलन है। प्रेमचंद नकारात्मक आशावादी नहीं हैं। जीवन से साहित्य का संबंध द्वंद्वात्मक है। आम आदमी के प्रति जवाबदेह प्रेमचंद की संघर्ष चेतना सर्वतोमुखी है। धर्म एक बड़ी सच्चाई है। प्राय: हम औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक के अंतर को नहीं समझ पाते। स्त्री-पुरुष के अधिकार एक जैसे होंगे तभी समानता की नीति समझ में आएगी। शोषण-ग्रस्त समाज मुक्त तो क्या होगा- मुक्ति से कोसों दूर होगा। जातिवाद उलझा विषय है। दलित जीवन और मुक्त जीवन की दूरी समझी जा सकती है। प्रेमचंद के शब्द हैं- 'जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, इसमें शक्ति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागे, वह साहित्य कहलाने का अधिकारी न बनेगा।' राजनीतिक पतन और सांस्कृतिक पतन एक साथ चलते हैं। प्रेमचंद आधुनिकता और परंपरा में अभेद देखते हैं। गल्प उनके लिए यथार्थ है। उपन्यास का पुनर्जन्म आलंकारिक पद भर नहीं है। मुक्ति और स्वतंत्रता अभिन्न हैं। राम एक उच्चतर जीवन मूल्य हैं। प्रेमचंद उदार हिंदू थे, इसलिए उनके कई राम थे। प्रेमचंद की इस्लामिक चेतना भी उदार थी। हिंदू होने में कोई बाधा न थी। प्रेमचंद द्विज लेखकों को चुनौती दे रहे थे, पर उच्चतर हिंदुत्व को आत्मसात कर रहे थे। प्रेमचंद का हिंदुत्व मनोवैज्ञानिक है। संस्कारों में ढल कर प्रेमचंद हिंदुत्व की आचारसंहिता का अतिक्रमण कर रहे थे। वे समय और समय के परे हिंदू की करुणा को उच्चतर मूल्य मान रहे थे। अछूत समस्या उनके लिए आत्मसुधार की प्रक्रिया में आर्यसमाज आंदोलन की देन थी। उधर किसान समस्या में सत्याग्रह नैतिक हथियार था। होरी का विद्रोह गांधी के मार्ग पर है। प्रेमचंद का हिंदू सत्य के लिए लड़ता है। अंधा पूंजीवाद ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा तक सीमित नहीं है। प्रेमचंद के शब्द हैं- 'दलित समाज का जीवन हिंदुओं से हमारी उन्नति का पाठ पढ़ाना है।' हिंदू समाज में सहिष्णुता एक लंबी साधना से अर्जित है। गांधीजी देखते हैं कि हिंदुत्व एक राष्ट्र चिंता जैसा नैतिक अधिकार है। प्रेमचंद के शब्द हैं- 'मैं जन्म से अछूत न होकर भी कर्म से अछूत हूं।' वर्गचेतना मूलत: हिंदू चेतना है। प्रेमचंद ने टॉलस्टाय से हिंदू धर्म की आंतरिक ताकत ली। प्रेमचंद का गरीबी हटाओ आंदोलन एक नौतिक प्रतिज्ञा है। यह राजनेताओं की भाषा नहीं है। इस्लाम विरोध राजनीतिक युक्ति भर है। धन का प्रभुत्व धर्म की क्षय है। महाजनी सभ्यता उत्सवधर्मी नहीं है। प्रेमचंद ने बहुत जल्दी सर्वधर्म समन्वय का मर्म जान लिया। कभी अज्ञेय ने हिंदुस्तानी एकेडमी में मैथिलीशरण गुप्त की करुणा को बड़ा हथियार बताया था। करुणा एक तरह का आंतरिक धर्म है। यह करुणा निष्क्रिय नहीं है। गुप्त जी अमीरी का स्वराज्य नहीं, गरीबी का स्वराज चाहते थे। वैष्णवता गुप्त जी पहचान थी। 'भारत भारती' लिख कर वे राष्ट्र से एकात्म थे। वे प्रेमचंद में धार्मिक अस्मिता देख सकते थे। 'कफन' को आज पहली नई कहानी कहा जा रहा है। विरुद्धों का सामंजस्य। घीसू ने कहा: 'मालूम होता है, बचेगी नहीं।' माधव चिढ़ कर बोला: 'मरना है तो मर क्यों नहीं जाती।' वे निर्गुण गाते हैं- ठगिनी क्यों नैना झमकावै। जैसे मृत्यु उत्सव है। प्रेमचंद की विलासिता के विरुद्ध एक कहानी है 'मुक्ति मार्ग'। इसकी चर्चा प्राय: नहीं हुई। प्रेमचंद को हिंदू धर्म में समता-समाजवाद दिखाई देता है। प्रेमचंद के लिए मनुष्य का मूल उद्देश्य ईश्वर से परिचय प्राप्त करना है। साहित्य में मानवीय आस्था का साक्षात्कार। प्रेमचंद के राम बहुरूपात्मक हैं। |
BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7
Published on 10 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH.
http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM
http://youtu.be/oLL-n6MrcoM
Sunday, April 29, 2012
प्रेमचंद: अपने अपने राम
प्रेमचंद: अपने अपने राम
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