BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Sunday, February 3, 2013

डरे हुए शब्द

डरे हुए शब्द

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/38087-2013-02-03-07-44-10

Sunday, 03 February 2013 13:13

तरुण विजय 
जनसत्ता 3 फरवरी, 2013: कश्मीर में जिस तरह सशस्त्र सेनाओं को मिले विशेष शक्ति के अधिनियम   (एएफएसपीए) को हटाने का अभियान चलाते हुए सैनिकों के चरित्रहनन का प्रयास किया जा रहा है, वह राष्ट्रीयता-रहित सेक्युलर मानसिकता का उदाहरण है। सैनिक भारत के संविधान का रक्षक और उसके दायरे में काम करने वाला मातृभूमि का प्रथम सेवक होता है। उसके बारे में कश्मीर से लेकर दिल्ली तक के सेक्युलर दायरों में कहा जा रहा है कि वह विशेष सैनिक अधिनियम का सहारा लेकर कश्मीरी स्त्रियों से बलात्कार, उनके घरों में अवैध प्रवेश, बच्चों के अपहरण और हत्याएं करके बरी हो जाते हैं, इसलिए कश्मीर में सैनिकों को कोई विशेषाधिकार नहीं दिए जाएं और यह विशेष अधिनियम वापस ले लिया जाए। 
भारतीय सैनिकों के प्रति यह विषवमन पाकिस्तानी मनोवैज्ञानिक युद्ध का एक हिस्सा है, जिसमें कश्मीर घाटी के तथाकथित सेक्युलर नेता मदद कर रहे हैं। सबसे पहले घाटी में राष्ट्र-विरोधी और पाकिस्तानपरस्त हुर्रियत ने यह मांग उठाई। उसके बाद नेशनल कांग्रेस और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी इसमें शामिल हो गए। जिस प्रदेश में तीस-तीस साल तक पंचायत चुनाव न हों और जब हों तो चुने गए सरपंचों की पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा हत्या कर दी जाए, जहां 1990 की दहशतगर्दी के बाद पहली बार अमन की तनिक धूप खिली हो और पर्यटक जाने लगे हों, वहां सैनिकों की वीरता और शहादत के प्रति कृतज्ञ होते हुए उनकी कश्मीर में उपस्थिति की आवश्यकता को बल देने के बजाय उन पर आक्षेप किए जा रहे हैं। इससे बढ़ कर कृतघ्नता का और क्या उदाहरण होगा? 
सैनिक अपनी मर्जी से कश्मीर में तैनात नहीं हैं। जब वहां के हालात इतने अधिक बिगड़ गए कि पुलिस और अन्य अर्द्ध सैनिक बल स्थिति पर नियंत्रण नहीं कर पाए, तब सैनिकों को शांति स्थापित करने का जिम्मा दिया गया। यह विशेष अधिनियम सैनिकों को विदेशपरस्त आतंकवादियों से भारतीयों की रक्षा के लिए एक प्रदत्त साधन है। हर घटना पर सैनिक अनुमति-पत्र टाइप करवा कर मजिस्ट्रेट से हस्ताक्षर करवाने नहीं जा सकता। वैसे भी यह झूठ फैलाया जाता है कि स्थानीय ड्यूटी पर सैनिक लगाए जा रहे हैं। सच यह है कि तमाम स्थानीय कानून-व्यवस्था बनाए रखने के काम जम्मू-कश्मीर पुलिस (प्राय: नब्बे प्रतिशत मुसलिम) और केंद्रीय आरक्षी पुलिस बल (सीआरपीएफ) द्वारा किए जाते हैं। सेना केवल सरहद की रखवाली और पाकिस्तानी घुसपैठियों को रोकने के काम में लगी है। लेकिन दिल्ली में कश्मीरी अलगाववादियों के गुट इतने खुल कर सक्रिय हैं कि वे इलेक्ट्रॉनिक चैनलों और कश्मीर संबंधी कार्यक्रमों में झूठ-दर-झूठ बोलते हैं। उन्हें दुर्भाग्य से वाम और कांग्रेसी झुकाव वाले सेक्युलरों का समर्थन मिलता है। ऐसे ही एक प्रसिद्ध अंग्रेजी चैनल के कार्यक्रम में एक पढ़े-लिखे कश्मीरी मुसलिम ने बड़ी संजीदगी से कहा- बहुत अफसोस से कहना पड़ता है कि इंडियन फौजियों की वजह से और एएफएसपीए के दबाव में श्रीनगर में मातम जैसा माहौल है। न वहां सिनेमाघर हैं, न थियेटर या मनोरंजन का कोई साधन। 
ऐसे झूठ को आम लोग सच मान कर सेना के प्रति नफरत करने लगें तो क्या आश्चर्य। मैंने उसी समय उस व्यक्ति को टोकते हुए कहा कि सिनेमा हॉल और थियेटर सेना ने नहीं, स्थानीय तालिबानी मुल्लाओं ने बंद कराए हैं। सेना की बदौलत तो आज कश्मीर में लाखों पर्यटक दोबारा जाने लगे हैं, जिससे कश्मीरी मुसलमानों की ही आर्थिक हालत में सुधार आया है। क्या इसके प्रति वे सेना के प्रति कृतज्ञता जताते हैं? 
कश्मीर को बर्बादी के कगार पर लाने में सबसे बड़ा योगदान गिलानी जैसे देशद्रोहियों और उनके संगबाज दस्ते का है। पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकवादी कश्मीरी घरों में घुस कर अनाचार करते हैं। कश्मीरी स्त्रियों का सम्मान लूटते हैं, खाते हैं, पैसे लेते हैं। वहां हत्याओं का आतंक फैलाते हैं। क्या उनके विरुद्ध कभी लाल चौक पर कोई प्रदर्शन होते देखा है?


क्या एके-47 लेकर सरहद पार से आने वाले अफगानों और पठानों के कायर दस्तों की खूनी दास्तान के खिलाफ ये कश्मीरी समूह इलेक्ट्रॉनिक चैनलों पर कभी बोलते देखे गए, जिन्होंने कश्मीर में हर तरह की तरक्की को रोक कर उसे 'खून में लिपटी जन्नत' में तब्दील कर दिया है? ऐसा नहीं होता। क्योंकि ऐसा करें तो उन्हें अपनी मौत को न्योता देने का डर सताता है। वे सेना के खिलाफ खुल कर इसलिए बोल सकते हैं क्योंकि सेना संविधान के नियम-कानूनों से बंधी है। वह माफिया-आतंकवादी नहीं है। इतनी दहशत है इन आतंकवादियों की वहां कि आम अखबार वालों की निर्भीकता भी दब्बूपन में बदल जाती है और उन्हें हिंदी और उर्दू में भी 'मिलिटेंट' लिखा जाता है। जो सिर्फ अपराधी-हत्यारे हैं, उन्हें आतंकवादी कहते हुए भी उन्हें डर लगता है। उन्हीं दहशतगर्दों के आदेश से उन्हें 'मिलिटेंट' कहा जाने लगा, जो शायद उन्हें ज्यादा 'स्टेटस' वाला प्रतीत होता है। 
सच यह है कि कोई गलत काम करने वाला सैनिक कभी माफ नहीं किया जाता। एक सौ छह से ज्यादा ऐसे मामले हैं, जिनमें हाल ही में सैनिकों को सजा मिली है। लेकिन पंद्रह सौ मामले लाए गए थे सेना के सामने, जिनकी स्थानीय सिविल प्रशासन के साथ मिल कर जांच की गई तो सत्तानबे प्रतिशत मामले झूठे और गढ़े हुए पाए गए। बाकी में सजा मिली। पर क्या कभी गलत काम, अनाचार करने वाले आतंकवादी को सजा देने का कोई नियम इन संगबाज अलगाववादियों के पास है? जो जम्मू-कश्मीर भारत का अकेला   मुसलिम बहुल प्रांत है, और एकमात्र ऐसा प्रांत जहां से पांच लाख हिंदुस्तानी अपमानित प्रताड़ित कर निर्वासित किए गए, जहां आज भी दो झंडे हैं, जहां धारा 370 बच्चों को घुट्टी में ही देश से अलगाव का पाठ पढ़ा देती है, जहां लोकतंत्र, व्यक्तिगत स्वातंत्र्य, विशेषाधिकारों, अनुदानों से देश के बाकी प्रदेशों को भी ईर्ष्या हो सकती है, वहां तिरंगे में लिपटे सैनिकों के प्रति असम्मान पैदा करने वाले क्या भारतीय कहे जा सकते हैं? 
इसी कड़ी में हमारी अराष्ट्रीय असहिष्णुता का एक और उदाहरण सामने आया है। कमल हासन की विश्वरूपम पर पाबंदी का। हालांकि सलमान रुश्दी के जयपुर और कोलकाता आगमन को रोकना भी अकादमिक स्वतंत्रता का हनन है, भले ही आप उनसे सहमत हों या न हों और आशीष नंदी के कथन पर भ्रामक प्रचार भी बौद्धिक तालिबानी मानसिकता का परिचय है, पर ये दोनों ही 'विश्वरूपम' की कड़ी में बांधे जा सकते हैं- बिना किसी एक को दूसरे से कम महत्त्व का मानते हुए। पर 'विश्वरूपम' पर प्रतिबंध की मांग करने वाले और रुश्दी और नंदी के विचार-सहयात्री वही हैं जो अपने वैचारिक विरोधियों के प्रति निर्मम और उनके अधिकारों को कम करने का मौन-मुखर समर्थन करते हैं। 
वह भी जाने दें। करें तो भी हम उनके जैसे क्यों बनें? हमें उनके विचार स्वातंत्र्य के हनन का साथ नहीं देना चाहिए। वे अपने बौद्धिक पक्ष को पूरे जोर और प्रतिबद्धता से रखें, रख पाएं, ससम्मान, इसी में भारत का भारत होना निहित है। 
विश्वरूपम को तीन-तीन सेंसर बोर्ड ने पास किया। उनमें तमाम सेक्युलरपंथी लोग हैं। क्या वे सभी कमअक्ल या सांप्रदायिक थे? विश्वरूपम के जितने भी प्रीव्यू देखे गए और जिन लोगों ने पूरी फिल्म देखी उनको भी उसमें आपत्तिजनक या किसी संप्रदाय के विरुद्ध विषयुक्त कुछ भी नहीं दिखा। फिर क्यों बवाल? आशीष नंदी से आप लाख असहमत हों, पर क्या उनकी बौद्धिक श्रेष्ठता पर सवाल उठ सकता है? पहले एक बौद्धिक विमर्श की भ्रामक रिपोर्टिंग, और फिर उनके माफीनामे के बाद भी शोर और गिरफ्तारी की मांग। क्या यह भारत में बौद्धिक स्वातंत्र्य का परिचय है? भारत में यह सब वामपंथी और दामपंथी सेक्युलरों की स्तालिनवादी देनें हैं, जिसमें वे भी बह जाते हैं जो अक्सर चार्वाक का उदाहरण देकर भारत की स्वातंत्र्यचेता आत्मा का वंदन करते हैं।

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