BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Sunday, March 25, 2012

पिता तो मर कर मूर्ति बने, मेरे दोस्‍त तो जिंदा मूर्ति बन गये!

पिता तो मर कर मूर्ति बने, मेरे दोस्‍त तो जिंदा मूर्ति बन गये!


26 MARCH 2012 NO COMMENT

♦ पलाश विश्‍वास

यह संयोग ही कहा जाएगा कि उत्तराखंड की राजनीति में सक्रिय चेहरों में कई महत्वपूर्ण नाम हमारे साथी रहे हैं, डीएसबी कालेज में। सत्तर के दशक में हमें और गिरदा जैसे लोगों को इन पर बड़ी उम्मीद थी। पर उनकी वह प्रतिबद्धता अब उसी तरह गैर प्रासंगिक हो गयी है, जैसे कि दिनेशपुर में राजकीय इंटर कालेज में तराई के किसान विद्रोह के बंगाली शरणार्थी नेता मेरे पिता दिवंगत पुलिन बाबू की मूर्ति। चुनाव के वक्त इस मूर्ति पर​ माल्यार्पण बंगाली वोटों को हासिल करने में बहुत काम आता है। अभी पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान दिनेश त्रिवेदी के बदले में बने​ रेल मंत्री मुकुल राय ने भी वहां जाकर माल्यार्पण किया।

तृणमूल कांग्रेस, ममता बनर्जी और मुकुल राय को न पुलिन बाबू से कुछ लेना ​​देना है और न बंगाली शरणार्थियों से। इससे पहले बंगाल में माकपा को डुबोने वाले वाममोर्चा चेयरमैन विमान बसु और फारवर्ड ब्लाक के नेता देवव्रत विश्वास भी दिवंगत पिता के सामने खड़े हुए। वोटों की खातिर। विमानदा ने कोलकाता में मुझसे बड़े फख्र से कहा कि तुम्हारे घर हो आया हूं। पर घर में पता किया तो बसंतीपुर वालों ने कहा कि वे न वहां गये और न घरवालों से मिले। मुकुल राय ने भी ऐसा नहीं किया। मुकुल राय का तो मेरे​ फुफेरे भाई केउटिया कांकीनाड़ा के निताईपद सरकार के यहां आना जाना रहा है।

चूंकि मैं कोलकाता में हूं, शरणार्थी समस्याओं को लेकर माकपा नेताओं से बातचीत होती रही है, पर बाकी किसी दल के किसी नेता से मेरा परिचय तक नहीं है। पर ये नेता दिनेशपुर जाकर मुझे अपना अंतरंग मित्र बताने से भी बाज नहीं आते। मुझे अफसोस है कि डीएसबी में हमारे जुझारू साथियों को भी उत्तराखंड और उत्तराखंडवासियों से कोई वास्ता नहीं रहा।

ममता 1984 से दिल्ली में सांसद रही हैं। पर बंगाल का कोई सांसद 2001 तक मेरे पिता के जीवनकाल में शरणार्थियों के बीच नहीं पहुंचे। हां, तराई गये बिना ममता ने कह दिया था कि बंगाल के लोग उत्तराखंड में नहीं रहना चाहते। मैं छात्र जीवन तक पिता का पत्राचार का काम करता था, बंगाल के किसी नेता का कोई जवाब आया हो, मुझे याद नहीं आता। पर 2001 में बंगाली शरणार्थियों के आंदोलन के बाद इस वोट बैंक पर बंगाली ​
​नेताओं की दिलचस्पी बढ़ी, जिन पर पिताजी का कोई विश्वास नहीं था और इसी अविश्वास के तहत ही मरीच झांपी आंदोलन के झांसे में सिर्फ दंडकारण्य के शरणार्थी आ पाये। पिता ने रायपुर माना कैंप जाकर सतीश मंडल और दूसरे लोगों को आगाह किया, पर मध्य प्रदेश के बड़े शरणार्थी शिविरों में रहने वाले शरणार्थियों ने पिताजी की बात नहीं मानी और मरीच झांपी नरसंहार हो गया।

उत्तर भारत से कोई शरणार्थी इस आंदोलन में शामिल न हो, यह उन्होंने जरूर सुनिश्चित कर लिया था। मुकुल राय या ममता न तराई में बसे बंगालियों को जानते हैं और न वे मेरे पिता को जानते थे। बाइस साल से कोलकाता में हूं और मुझसे भी उनका कभी संपर्क नहीं हुआ। पर इस बार तृणमूल कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी बनने की फराक में उत्तराखंड से भी​ लड़ रही थी। बंगालियों ने उन पर भरोसा नहीं किया।

गौरतलब है कि उत्त्तर प्रदेश या उत्तराखंड में बंगाली शरणार्थियों को आरक्षण नहीं मिला। भाषाई अल्पसंख्यक होने के नाते मुसलमानों की तरह उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश में बंगाली मोबाइल वोट बैंक है। सत्ता दलों का दूसरे राज्‍यों में बसे शरणार्थियों की तरह। उत्तराखंड के दो दिग्गज नेता​ कृष्ण चंद्र पंत और नारायण दत्त तिवारी, जो खुद को हमारे पिता का मित्र बताते नहीं अघाते, बंगाली वोटों के दम पर आजीवन राजनीति ​करते रहे। इंदिरा हृदयेश से लेकर यशपाल आर्य तक का बसंतीपुर आना जाना रहा। पिता के मृत्युपर्यंत हमारे उनसे मतभेद का मुद्दा यही था। जीते हुए उनका इस्तेमाल राजनीतिक औजार के तौर पर होता रहा​ और मरने के बाद उनके स्टेच्‍यू का भी वही इस्तेमाल हो रहा है। इसीलिए जब कुछ शरारती तत्वों ने एक बार इस स्टेच्‍यू को नुकसान पहुंचाया, तो बौखलाये बसंतीपुर वालों को हमने कहा कि इस वारदात से हमारा कोई लेना देना​​ नहीं। स्टेच्‍यू हमने नहीं बनवाया। इसका जो राजनीतिक इस्तेमाल होता है, उससे बेहतर है कि यह स्टेच्‍यू न रहे।

उत्तराखंड की राजनीति में सक्रिय ज्यादातर लोग पृथक उत्तराखंड राज्य के खिलाफ हुआ करेत थे। डा डीडी पंत ने जब उत्तराखंड क्रांति दल​ बनाया, तब उनके प्रिय छात्र शेखर पाठक भी उनके साथ नहीं थे। वैसे शेखर और गिरदा उत्तराखंड की अस्मिता, संस्कृति और समस्याओं​ को लेकर ज्यादा सक्रिय थे और राजनीति में नहीं हैं। सक्रिय राजनेताओं में सिर्फ काशी सिंह ऐरी ही उत्तराखंड के पक्ष में थे। विडंबना है कि उत्तराखंड के नाम पर पहली बार विधायक बने काशी की अब उत्तराखंड की राजनीति में कोई प्रासंगिकता नहीं है। और न ​​विभिन्न धड़ों में बंटी उत्तराखंड क्रांतिदल की। तब डीएसबी छात्र संघ चुनाव में हममें से ज्यादातर ने पहले भगीरथ लाल और फिर शेर सिंह नौलिया का समर्थन किया।​ ऐरी के साथ शुरू से नारायण सिंह जंत्वाल जरूर थे। शमशेर सिंह बिष्ट की अगुआई में हम लोग तब उत्तराखंड संघर्षवाहिनी के सक्रिय कार्यकर्ता हुआ करते थे। एक सुरेश आर्य को छोड़ कर जो डीएसबी में दलित राजनीति करते थे। वे तो पिछड़ गये, पर उनके साथी जो खुद डीएसबी में उनके साथ थे और शक्तिफार्म में जंगल के बीच जिनकी झोपड़ी ​​में हम लोग मेहमान रहे, सुरेश को किनारे करके बाहुबली मंत्री बी बन गये। हालांकि मंत्री बनने के बाद उनसे हमारी फिर कभी मुलाकात नहीं हुई। हममें से उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी छोड़कर सबसे पहले दिवंगत विपिन त्रिपाठी काशी के साथ हो गये। जो बाद में द्वाराहाट से विधायक भी बने। आखिरी वक्त तक उनसे संपर्क जरूर बना रहा।

हमारे जमाने में महेंद्र सिंह पाल लंबे अरसे तक छात्र संघ का अध्यक्ष रहे, जो बाद में सांसद भी बने। अब उनकी क्या भूमिका है, हम नहीं​ जानते। पर उत्तराखंड की राजनीति और यूं कहें कि मौजूदा राजनीतिक संकट में सबसे अहम चरित्र अल्मोड़ा से सांसद प्रदीप टमटा हम लोगों में सबसे क्रांतिकारी हुआ करते थे। गिरदा और शमशेर तक उसे क्रांतिदूत जैसा मानते थे। राजा बहुगुणा और पीसी तिवारी, शेखर पाठक और राजीव लोचन साह तक प्रदीप को ज्यादा तरजीह देते थे। कपिलेश भोज बेझिझक कहता था कि हमें विचारधारा और​ प्रतिबद्धता प्रदीप से सीखना चाहिए। पहाड़ और​ तराई में हमने साथ साथ न जाने कितनी भूमिगत सभाएं कीं। पर हैरतअंगेज बात है कि प्रदीप की विचारधारा बसपा से लेकर कांग्रेस के नवउदारवाद की यात्रा पूरी कर गयी। हम लोग जहां थे, वहीं हैं। मुझे लगता है कि मरने के बाद मेरे पिता का स्टेच्‍यू बना, यह हमारी इच्छा के विपरीत और अनुपस्थिति में हुआ। चूंकि मेरे गांव के लोग और इलाके के तमाम लोग इसके पक्षधर थे, तो हमने कोई अड़ंगा भी नहीं डाला। पर डीएसबी के हमारे प्रियतम मित्रों का इस तरह जीते जी स्टेच्‍यू में तब्दील हो जाना दिल और दिमाग को कचोटता ​​जरूर है।

(पलाश विश्वास। पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, आंदोलनकर्मी। आजीवन संघर्षरत रहना और सबसे दुर्बल की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। अमेरिका से सावधान उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठौर।)

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