BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Friday, August 13, 2010

माफ करना साहब! तुम जीते, मैं हारा

माफ करना साहब! तुम जीते, मैं हारा

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नौनिहाल शर्मा: भाग 30 : काम की अधिकता के बीच 'दैनिक जागरण' में हल्के-फुल्के क्षण भी आते रहते थे। और ऐसे क्षण पैदा करने में नौनिहाल को महारत हासिल थी। वे हमेशा मजाक के मूड में रहते थे।

गंभीर चर्चा के बीच भी फुलझडिय़ां छोड़ते रहते थे। अक्सर इसमें सबको मजा आता। लेकिन कभी-कभी लेने के देने पड़ जाते। ऐसा ही एक बार रतीश झा यानी दादा से मजाक करने के चक्कर में हुआ। दादा मेरठ में अकेले रहते थे। खुद ही बनाते-खाते थे। हुआ ये कि एक दिन मैं दफ्तर पहुंचा, तो एक महिला को संदूक के साथ गेट के पास बैठे देखा। वाचमैन से पूछा कि किससे मिलने आयी हैं। उसने जरा तल्खी से कहा, 'इतनी देर से पूछ रहे हैं। पर ये कह रही हैं कि हम उनके घर से हैं। किसके घर से, यह पूछने पर कहती हैं कि अब उनका नाम कैसे लें?'

मैं उनके पास गया। उन्हें अपना परिचय देकर कहा कि वे अपने 'उनका' नाम भले ही ना बतायें, हुलिया बता दें। वे बोलीं, 'गोरे-गोरे से हैं। धोती-कुर्ता पहनते हैं। खाना खुद ही बना लेते हैं।'

इतना परिचय काफी था। मैं समझ गया, ये दादा की पत्नी हैं। स्टेशन से सीधे यहां आ गयी हैं। मैंने अपने विभाग में जाकर देखा, तो रमेश गोयल और नौनिहाल कुछ बात कर रहे थे। मैंने उन्हें माजरा बताया। नौनिहाल बोले, 'दादा पेशाब करने गये हैं। आयें तो कहना कि दादा, दादी आयी हैं। बाहर बैठी हैं।' इतने में दादा सचमुच आ गये। मैं बात का मतलब समझता, उससे पहले ही नौनिहाल ने इशारा किया कि दादा को तुरंत सूचना दी जाये। ... और मेरे मुंह से निकल ही गया, 'दादा, दादी आयी हैं।'

'कौन दादी? किसकी दादी?'

'आपकी दादी। बाहर संदूक लेकर बैठी हैं।'

दादा बाहर गये। अपनी पत्नी को देखा। उनके पास जाने के बजाय हमारी ओर पलटे। हम उनके पीछे-पीछे वहां तक आ गये थे। और दादा ने मुझे दौड़ा लिया, 'बदमाश, हमारी महरारू को लेकर मजाक करता है! छोड़ूंगा नहीं।'

मैं आगे-आगे, दादा पीछे-पीछे। वो तो भला हो रमेश गोयल का, जो उन्होंने मुझे बचा लिया। दादा को यह बताकर कि ये डायलॉग मेरा नहीं, बल्कि नौनिहाल का है। दादा उनसे वैसे ही खार खाये रहते थे। बोले, 'वो तो शरारतियों का अगुआ है। पर अगर वो आपको कुआ में कूदने को कहेगा, तो आप कूद जाइयेगा का?'

इस बीच वहां काफी लोग जमा हो गये थे। हंसते -हंसते सबका बुरा हाल था।

लेकिन इससे भी मजेदार किस्सा हुआ गोल मार्केट में। हम वहां रोज की तरह चाय पीने गये थे। अचानक हाथ में धोती की लांग संभाले दादा आ गये। हम चाय-समोसे के साथ गपशप कर रहे थे। दादा की नजर कढ़ाही से निकलते रसगुल्लों पर पड़ी। हलवाई से बोले, 'दादा, रसगुल्ले क्या किलो दिये?'

'एक रुपये का एक।'

'नहीं दादा, किलो बताओ।'

'किलो में नहीं मिलता।'

'हम तो किलो में ही लेंगे।'

'कितना किलो?'

'दाम बताओ।'

'आप बात तो ऐसे कर रहे हो जैसे 100 रसगुल्ले लेने हैं।'

'एक किलो में कितना रसगुल्ला आयेगा?'

'तकरीबन 25।'

'ठीक है। हम चार किलो खा लेंगे।'

'चार किलो?'

'दादा, ऐसे बुड़बक की तरह क्या देख रहे हो? चार किलो में 100 ठो ही तो हुआ ना? उतना खा लेंगे हम।'

'अगर आपने 100 रसगुल्ले खा लिये, तो मैं आपसे एक भी पैसा नहीं लूंगा। पर अगर नहीं खा पाये तो?'

'सुनिये दादा, अगर हमने 100 खाये, तो एक पैसा नहीं देंगे। अगर 99 पर रुक गये, तो दूसो का पैसा देंगे।'

इस तरह मजाक में शुरू हुई बात में दादा और हलवाई के बीच शर्त लग गयी। बात पूरे गोल मार्केट में फैल गयी। वहां करीब 50-60 लोग इकट्ठा हो गये। सबको अचरज हो रहा था। 100 रसगुल्लों की शर्त!

दादा ने एक चुल्लू पानी पिया। एक कटोरी उठायी। बोले, 'दादा, इसमें चार-चार रसगुल्ले रखते जाओ। हम खाते जायेंगे। आप गिनते जाओ। हर 25 रसगुल्ले खाने के बाद हम थोड़ा सा पानी पियेंगे। थोड़ा टहलेंगे। फिर आकर खाने लगेंगे। अब हमें ऐसे घूरिये मत। कहीं जायेंगे नहीं। यहीं सबके सामने शर्त पूरी करेंगे।'

इस तरह दादा ने 100 रसगुल्ले खाना शुरू किया। वे चार रसगुल्ले फटाफट गड़प कर जाते। फिर हलवाई के आगे कटोरी कर देते। जब तक दादा 20 तक पहुंचे, गोल मार्केट में 100 से ज्यादा लोग इकट्ठे हो गये। भीड़ देखकर आसपास से गुजरने वाले लोग भी वहां जमा होने लगे। 25 रसगुल्ले खाकर दादा ने कुछ घूंट पानी पिया। तोंद पर हाथ फेरा। गोल मार्केट के पार्क के दो चक्कर लगाये। फिर आकर रसगुल्ले खाने लगे।

गिनती 50 तक पहुंची।

75 तक पहुंची।

दादा आधे घंटे में 90 पार कर गये। अब गोल मार्केट खचाखच भर गया था। हलवाई का चेहरा उतर गया था। जो कुछ हो रहा था, उसे इसकी उम्मीद नहीं थी।

97, 98, 99, 100 ...

दादा ने 100 वां रसगुल्ला खाकर डकार ली। आगे बढ़कर देखा। कढ़ाही में अब भी करीब 10-12 रसगुल्ले बचे थे। दादा बोले, 'लाओ दादा, ये भी खिला दो। अभी और खा सकते हैं।'

हलवाई रिरियाकर बोला, 'माफ करना साहब। तुम जीते, मैं हारा। अब ये तो छोड़ दो।'

'ठीक है। छोड़ो। अब तो कभी शर्त नहीं लगाओगे?'

'नहीं साहब। अपने बच्चों से भी कह जाऊंगा।'

हम दफ्तर की ओर चले। दादा के विजय जुलूस के रूप में। दादा मदहोशी की चाल में आगे-आगे। रमेश चपरासी उनकी साइकिल लेकर उनके साथ-साथ। और पीछे नारे लगाते हम - 100 रसगुल्ले खाकर दादा दफ्तर को चले!

इस बात की चर्चा महीनों तक रही। लेकिन उन्होंने ऐसा ही एक पराक्रम एक बार मेरे साथ कर दिया। मेरे परिजन गांव गये थे। मैं अकेला था। मैं दिन में कॉलेज की कैंटीन में खाना खा लेता था। रात को दफ्तर से निकलकर बेगम पुल पर मारवाड़ी भोजनालय में खाता था। एक दिन दादा ने पूछ लिया कि खाना कहां खाते हो? मैंने बता दिया।

'कैसा खिलाता है?'

'अच्छा होता है।'

'नहीं दादा, हम पूछ रहे हैं कि कितने में खिलाता है?'

'छह रुपये में।'

'कितना।'

'भरपेट।'

'तो दादा, एक दिन हम भी चलेंगे।'

नौनिहाल को मैंने यह बताया, तो वे बोले, 'पेमेंट पहले कर देना। नहीं तो वहां अपमान भी हो सकता है।'

खैर। एक बार रात को ड्यूटी खत्म करके मैं दादा को लेकर मारवाड़ी भोजनालय पहुंच गया। मैनेजर मेरा परिचित था। मैंने उसे 12 रुपये दे दिये कि दो लोगों को खाना है। हम बैठ गये। वेटर ने परोसना शुरू किया। थाली में कटोरियां रखकर दाल-सब्जी वगैरह दीं, तो दादा बोले, 'अरे दादा, ये पतीली इधर ही रख जाओ।'

इस तरह दादा बार-बार पतीली रखवा लेते। यही हाल रोटियों और चावल का हुआ। पापड़ भी खत्म होते चले गये। अब तक सारे ग्राहक पलट-पलट कर दादा को कौतुक से देखने लगे थे। मुझे अजीब सा लग रहा था। थोड़ी देर में मैनेजर हमारी टेबल पर आया। मेरे कान में फुसफुसाकर बोला, 'इन साहब को ये मत बताना कि खाने के साथ खीर भी मिलती है।'

उन्हें डर था कि कहीं दादा सारी खीर भी चट न कर जायें।

भुवेंद्र त्यागीअगले दिन मैंने दफ्तर में सबको ये किस्सा सुनाया। हंसते-हंसते सबके पेट में बल पड़ गये। इसके बाद दादा ने कई बार खाने को लेकर शर्त लगाने की कोशिश की। पर कोई कभी उनसे शर्त लगाने को तैयार नहीं हुआ। आखिर दादा ने दफ्तर में चूड़ा लाना शुरू कर दिया। वे मेज पर एक अखबार पर चिवड़ा रख देते। फिर सब मिलकर खाते। लेकिन कोई भी उनके साथ बाहर खाने नहीं जाता था।

लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है. वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं. उनसे संपर्क bhuvtyagi@yahoo.comThis e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it के जरिए किया जा सकता है.



सबसे सच्चा आदमी उम्र भर बोलता रहा झूठ...

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पत्रकारिता में ढेर सारे क्लर्क टाइप लोग आ गए हैं जो यस सर यस सर करने के अलावा और आंख-नाक के सीध में चलने के सिवा, कुछ नहीं जानते, और न करते हैं, और न ही कर सकते हैं. पर पत्रकारिता तो फक्कड़पन का नाम है. आवारगी का पर्याय है. सोच, समझ, संवेदना का कमाल है.

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क्षितिज शर्मा का कहानी पाठ और परिचर्चा 13 को

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पीपुल्‍स विजन एवं हिन्‍द युग्‍म ने संयुक्‍त रूप से 'एक शाम एक कथाकार' कार्यक्रम का आयोजन किया है. इसमें क्षितिज शर्मा का कहानी पाठ होगा. एक परिचर्चा भी आयोजित है. स्थान है- गांधी शांति प्रतिष्‍ठान, दीनदयाल उपाध्‍याय मार्ग, नई दिल्‍ली.

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प्रेमचंद की कहानियां समय-समाज की धड़कन

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: प्रेमचंद जयंती समारोह-2010 : आम आदमी तक पहुंची प्रेमचंद की कथा परंपरा : राजस्‍थान प्रगतिशील लेखक संघ और जवाहर कला केंद्र की पहल पर इस बार जयपुर में प्रेमचंद की कहानी परंपरा को 'कथा दर्शन' और 'कथा सरिता' कार्यक्रमों के माध्‍यम से आम लोगों तक ले जाने की कामयाब कोशिश हुई, जिसे व्‍यापक लोगों ने सराहा। 31 जुलाई और 01 अगस्‍त, 2010 को आयोजित दो दिवसीय प्रेमचंद जयंती समारोह में फिल्‍म प्रदर्शन और कहानी पाठ के सत्र रखे गए थे। समारोह की शुरुआत शनिवार 31 जुलाई, 2010 की शाम प्रेमचंद की कहानियों पर गुलजार के निर्देशन में दूरदर्शन द्वारा निर्मित फिल्‍मों के प्रदर्शन से हुई। फिल्‍म प्रदर्शन से पूर्व प्रलेस के महासचिव प्रेमचंद गांधी ने अतिथियों का स्‍वागत करते हुए कहा कि प्रेमचंद की रचनाओं में व्‍याप्‍त सामाजिक संदेशों को और उनकी कहानी परंपरा को आम जनता तक ले जाने की एक रचनात्‍मक कोशिश है यह दो दिवसीय समारोह।

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क्या! जो टॉयलेट में घुसा था, वो पत्रकार था?

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: मुजरिम चांद (अंतिम भाग) : डाक बंगले से थाने की दूरी ज्यादा नहीं थी। कोई 5-7 मिनट में पुलिस जीप थाने पहुंच गई। सड़क भी पूरी ख़ाली थी। कि शायद ख़ाली करवा ली गई थी। क्योंकि इस सड़क पर कोई आता-जाता भी नहीं दिखा। हां, जहां-तहां पुलिस वाले जरूर तैनात दिखे। छिटपुट आबादी वाले इलाकों में सन्नाटा पसरा पड़ा था। रास्ते में एकाध खेत भी पड़े जिनमें खिले हुए सरसों के पीले फूलों ने राजीव को इस आफत में भी मोहित किया।

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ये लोग साहित्यकार हैं या साहित्य के मदारी!

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अमिताभ ठाकुर: 'विभूति कांड' के बहाने साहित्येतर रचना-धर्मिता पर चर्चा : साहित्यकारों को उस रात जैसा देखा-सुना वह अकल्पनीय : महिला साहित्यकार को अपनी जंघा पर बैठाने पर कटिबद्ध दिखे युग-पुरुष : विभूति नारायण राय हिंदी साहित्य की एक चर्चित हस्ती हैं. स्वाभाविक तौर पर प्रत्येक चर्चित व्यक्ति की तरह उनकी बातों और उनके शब्दों का अपना एक अलग महत्व और स्थान होता है.

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छिनाल प्रकरण : ...थू-थू की हमने, थू-थू की तुमने...

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ज्ञानपीठ की प्रवर परिषद से हटा दिए जाने, केंद्रीय मंत्री से माफी मांग लेने और सार्वजनिक तौर पर अपने कहे पर खेद जताने के बाद भले ही विभूति नारायण राय का 'छिनाल प्रकरण' ठंडा पड़ता दिख रहा हो लेकिन इसकी टीस अब भी ढेर सारे लोगों के मन में है. खासकर कई महिलाएं इस बवाल और विवाद के तौर-तरीके से आहत हैं. इनका मानना है कि विभूति नारायण राय ने जो कहा, उससे उनका छोटापन दिखता है, लेकिन विरोध करने वालों ने कोई बड़प्पन नहीं दिखाया.

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विभूति कहां गलत हैं!

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सिद्धार्थ कलहंस: प्रगतिशीलता की होड़ है, हो सको तो हो : गोली ही मारना बाकी रह गया है विभूति नारायण राय को। बसे चले तो भले लोग वह भी कर डालें। प्रगितशीलता के हरावल दस्ते की अगुवाई की होड़ है भाई साहब। न कोई मुकदमा, न गवाही और न ही सुनवाई। विभूति अपराधी हो गए। सजा भी मुकर्रर कर दी गयी। हटा दो उन्हें कुलपति के पद से। साक्षात्कार पर विभूति ने सफाई दे दी। पर प्रगतिशील भाई लोग हैं कि मानते नहीं। सबकी बातें एक हैं- बस विभूति को कुलपित पद से हटा दो।

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'नया ज्ञानोदय' पत्रिका के उस पेज का लिंक हम यहां दे रहे हैं, जिसमें वीएन राय ने एक सवाल के जवाब में हिंदी लेखिकाओं को 'छिनाल' कहा. इंटरव्यू में एक जगह वीएन राय ने कहा है- 'लेखिकाओं में यह साबित करने की होड़ लगी है कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है...यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है।' एक लेखिका की आत्मकथा,जिसे कई पुरस्कार मिल चुके हैं,का अपमानजनक संदर्भ देते हुए राय कहते हैं,'मुझे लगता है इधर प्रकाशित एक बहु प्रचारित-प्रसारित लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक हो सकता था 'कितने बिस्तरों में कितनी बार'।'

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Palash Biswas
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