मैं, राज्य की हिंसा का समर्थक विभूति नारायण राय बोल रहा हूं…
http://www.janatantra.com/news/2010/08/13/vn-rai-speech-in-hans-debate/
यह भाषण विभूति नारायण राय का है। हंस की सालाना गोष्ठी में उन्होंने सरेआम एलान किया कि वो राज्य की हिंसा के समर्थक हैं। उन्होंने यह भी कहा कि विश्वरंजन और उनकी सोच में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। यह बात जन संस्कृति मंच के मठाधीशों समेत विभूति के समर्थन में खड़े तमाम लोगों के बीच साफ हो जानी चाहिए। इस भाषण को पढ़ने के बाद भी अगर किसी को यह लगता है कि विभूति और विश्वरंजन अलग-अलग शख्सियत हैं तो इसे उसकी मूर्खता या फिर भांटगीरी के अलावा कुछ और नहीं कहा जा सकता। आप सभी ये भाषण पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया दें। – मॉडरेटर
आनंद प्रधान ने जैसे ही मेरा नाम लिया, मैं समझ गया कि विश्वरंजन नहीं आए हैं तो राजेंद्र यादव मेरा इस्तेमाल स्टेपनी की तरह करना चाहते हैं। लेकिन राजेंद्र जी यह भूल गए कि कार का पहिया पंचर हो जाए और उसमें स्कूटर की स्टेपनी लगा दी जाए तो मामला चलता नहीं है। यहां मैं राजेंद्र जी को निराश करूंगा क्योंकि मैं विश्वरंजन की पोजिशन नहीं लेना चाहता। इसलिए नहीं कि मेरा उनसे मेरा कोई बुनियादी मतभेद है।
जब आनंद प्रधान इस बहस को प्रस्तावित कर रहे थे, तभी मुझे लगा कि कुछ गड़बड़ हो रहा है। आनंद जी ने कहा कि एक अघोषित आपातकाल लगा हुआ है। यानी ऐसी स्थिति है कि यहां से बोल कर जाने के बाद हममें से कुछ को नोटिसें मिल जाएंगी। कुछ को पुलिस उठा कर एनकाउंटर कर देगी। यानी ऐसा कुछ हादसा होगा। तो मैं नहीं समझता हूं कि ऐसी कोई स्थिति है। कनॉट प्लेस से… संसद से दो किलोमीटर की दूरी पर बैठ कर हम आराम से भारतीय राज्य को कोस रहे हैं। लगभग वही स्थिति है जो रहबर के साथ हुई थी। जब पार्टी पर प्रतिबंध लगा तो रहबर तड़प रहे थे कि उन्हें कोई गिरफ़्तार क्यों नहीं कर रहा? तो किसी ने उनसे कहा कि भारतीय राज्य जानता है कि आपको गिरफ़्तार करने से अच्छा है कि खुला छोड़ दिया जाए। ठीक रहबर की तरह बहुत से बुद्धिजीवियों को ग़लतफहमी है कि यहां से जाएंगे तो नोटिसें मिल जाएंगी। ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा।
मेरा अपना ये मानना है कि राज्य की नीर्मिति ही अलोकतांत्रिक होती है। कोई भी राज्य ऐसा बताइये जिसमें इतनी सहनशक्ति हो कि हथियारबंद विरोध को सहन कर सके। हथियारबंद तो छोड़ दीजिए, जहां कहीं उसे लगता है कि उसकी बुनियाद पर चोट पड़ रही है तो वो असहमति की छूट दे दे। हमारे सामने एक बहुत महान राज्य सोवियत रूस बना था। हमने देखा उसकी क्या स्थिति हुई। ऐसे में ये कल्पना करना कि कोई भी राज्य इतना उदार और सहनशील होगा कि अपने अस्तित्व को ख़तरे में डाल कर हथियारबंद लोगों को खड़े होने की इजाजत देगा, तो ये भोलापन है।
दिक्कत यह है कि भारत के लोगों के सोचने की जो पद्धति है वो इक्सट्रीम पर आधारित है। हम अतिरंजित चीजों में विश्वास करते हैं। हम या तो मान लेते हैं कि भारतीय राज्य फासिस्ट है या फिर बहुत उदार है। जो लोग माओवादियों का समर्थन करते हैं वो कितने लोकतांत्रिक हैं उसका अंदाजा इसी गोष्ठी से लगाइए। जब अरुंधती ने आने से मना कर दिया तो इसी हॉल में मौजूद कुछ बुद्धिजीवियों ने उस पर बहस चलाई। कहा कि अरुंधती को आना चाहिए था। और जब विश्वरंजन यहां आते तो सौ-दो सौ लोग उन्हें काले झंडे दिखाते और जूतों की माला पहनाते। ये तो उनकी सहनशक्ति है। ये तो उनका लोकतंत्र है। वो ये मान कर चल रहे थे कि जैसे विश्वरंजन के साथ जो लोग आएंगे वो नंगे पैर होंगे।
यहां मैं बता दूं कि इस सरकार के लिए मेरे मन में कोई दर्द नहीं है। लेकिन जो लोग इसे हटा कर जिन लोगों को सत्ता में लाना चाहते हैं, वो कितने लोकतांत्रिक हैं और दूसरों को कितना स्पेस देंगे… इस बारे में कोई संशय नहीं होना चाहिए। आज सबसे बड़ी जरूरत यह है कि हम अपने भीतर इतनी तमीज तो पैदा करें कि विरोधी की बात भी सुन सकें।
यहीं पर अपनी प्रस्तावना में आनंद जी ने एक ऐसी बात कही जिसमें बहुत ख़तरे नीहित हैं। उन्होंने कहा कि माओवादी आत्मरक्षा में हिंसा कर रहे हैं। सीआरपीएफ के ७५ जवानों को उड़ा देना, नागरिकों से भरी बस इसलिए उड़ा देना कि उसमें कुछ पुलिसवाले थे, ट्रेन उड़ा कर १६० लोगों को मार देना… को आत्मरक्षा कैसे कह सकते हैं? यह भी देखिए कि ट्रेन में मारे गए १६० लोगों में सभी के सभी सर्वहारा वर्ग के थे क्योंकि एक भी एसी बोगी नहीं उड़ाई गई थी। उस हमले को लेककर दूरदर्शन पर एक बहस चल रही थी। उसमें एक सज्जन को बार-बार घेर कर रहा जा था कि ट्रेन को उड़ाना निंदनीय है, लेकिन अंत तक उन्होंने ये स्वीकार नहीं किया। यह बोलने में उनकी जुबां कट रही थी कि वो जो १६० लोग मारे गए थे वो निर्दोष थे। जिन्होंने उन्हें मारा है, उन्होंने गलती की है। यह देख कर मुझे उल्टी आ रही थी। और वो लोग ये चाहते हैं कि राज्य उनके सामने सरेंडर कर दे। राज्य उनके सामने घुटने टेक दे। वो लोग हथियार लेकर जो चाहे करें।
मैं राज्य की हिंसा का समर्थक नहीं हूं। लेकिन यहां कश्मीर का सवाल उठाया गया है। मुझे नहीं लगता कि आपमें से किसी ने वैसी हिंसा देखी है जो हिंसा मैंने देखी है। मैं साफ तौर पर कह सकता हूं कि कश्मीर में इस्लामिक आतंकवाद और भारतीय राज्य के बीच मुकाबला है। और मैं हमेशा राज्य की हिंसा का समर्थन करुंगा। राज्य की हिंसा से हम मुक्त हो सकते हैं। इस्लामिक आतंकवाद से हम मुक्त नहीं हो सकते। वहां पर जो भी लोग उनसे असहमति रखते थे, उन सबको आतंकवादियों ने धीरे-धीरे मार दिया। खत्म कर दिया। तो हम जब यहां खड़े हों और माओवाद जैसी चीज पर बात करें, हिंसा पर बात करें तो हमें इक्सट्रीम पर नहीं जाना चाहिए। हमें दोनों हिंसा का विरोध करना होगा। अगर वैदिकी हिंसा… हिंसा है तो अवैदिकी हिंसा… भी हिंसा है।
एक बात और। हमें साफ समझ विकसित करनी पड़ेगी कि हम राज्य को बंदूक के बल पर नहीं उलट सकते। अगर हम दूसरे उपायों पर जोर देना चाहिए। खासतौर से चुनाव एक औजार हो सकता है। इससे हम भारतीय राज्य को ज्यादा संवेदनशील बना सकते हैं। जिस तरह से आदिवासियों की जमीनों पर कब्जा हो रहा है, उसे हम दूसरे तरीकों से ज्यादा सशक्त विरोध कर सकेंगे। मुझे ये लगता है। आखिर में मैं इतना कहूंगा कि राज्य की आंतरिक बनावट ही जनतंत्र विरोधी है। कोई भी राज्य पूरी तरह से जनतांत्रिक हो ही नहीं सकता।
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Palash Biswas
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