BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Thursday, December 3, 2015

क्या वाकई थम गई पुरस्कार वापसी मुहिम? राम पुनियानी

3 दिसंबर 2015

क्या वाकई थम गई पुरस्कार वापसी मुहिम?

राम पुनियानी



"बिहार चुनाव के नतीजे आने का बाद सोशल मीडिया पर इन दिनों एक कविता काफी प्रसारित हो रही है। इस कविता में कहा जा रहा है कि अब कहीं से भी गोमांस, सम्मान वापसी, अरहर दाल की बढ़ती कीमतों को लेकर कोई बयान नहीं आ रहा है। यह सवाल खड़ा होता है कि क्या ऐसा सहिष्णुता की वजह से है या ऐसा बिहार का चुनाव खत्म हो जाने की वजह से है। स्पष्ट तौर पर यह आरोप लगता रहा है कि लेखकों, कलाकारों और वैज्ञानिकों द्वारा जो पुरस्कार लौटाए जा रहे थे वह बिहार चुनावों को प्रभावित करने की एक पूर्वनियोजित साजिश थी। इस संबंध में आरएसएस का मानना है कि पुरस्कार वापसी की मुहीम राजनीतिक ताकतों के हित में बहुत सलीके से संयोजित की गई थी। केंद्रीय मंत्री जनरल वी के सिंह ने तो यहां तक कहने में भी गुरेज नहीं किया कि पुरस्कार वापसी के इस मुहिम में बहुत ज्यादा पैसा सम्मिलित था। जो कुछ भी हुआ, यह उसकी पूरी तरह से एक प्रायोजित और विकृत व्याख्या है।"

इन पुरस्कारों की वापसी की शुरुआत दाभोलकर, पनसारे और कलबुर्गी तथा दादरी में मोहम्मद अखलाक को पीट-पीट कर मार देने की घटना के बाद हुई। पुरस्कारों की वापसी का यह सिलसिला इस तरह की किसी एक घटना की प्रतिक्रिया में नहीं था। समाज में सांप्रदायिकरण के बढ़ते असर के प्रतिरोध में यह एक पीड़ा थी। समाज की सहिष्णुता में आया गुणात्मक बदलाव इसकी वजह थी। हालांकि, असहिष्णुता का अर्थ है दूसरों से घृणा, और अलग तरह से सोचने वालों या अलग खान-पान की आदतों वाले लोगों के विरुद्ध हिंसा की घटनाएं। इस तरह की कार्रवाइयां, हमारे संविधान में दिए गए भारतीय राष्ट्रवाद के ठीक विपरित हिंदू राष्ट्रवाद के राजनीतिक सिद्धांत से संबंधित लोगों द्वारा शुरू की गईं। सामाजिक अवस्था ने असहमति और मतभिन्नता के दम घोंटने की भावना का अहसास कराया। जो भी घटनाएं हो रही थीं, उनकी वजह से भारत के राष्ट्रपति को बार-बार सहिष्णुता के सामाजिक बुनियादी मूल्यों को संरक्षित रखने की गुहार लगानी पड़ी, उपराष्ट्रपति ने सरकार को याद दिलाया कि नागरिकों के जीवन के अधिकार की रक्षा करना उसका कर्तव्य है। 

नारायण मूर्ति और किरण मजूमदार शॉ जैसे उद्योग जगत के लोगों ने भी मसूस किया कि असहिष्णुता अपने उफान पर है। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन और शाहरुख खान ने भी इसी तरह की भावना व्यक्त की। अगर कोई अल्पसंख्यकों की असुरक्षा का अनुमान लगाना चाहता है तो कुछ दिनों पहले जुलियो रिबेरो ने जो बात कही थी वह बिल्कुल मुनासिब है। उन्होंने कहा था, बतौर एक ईसाई वह इस देश में एक परदेसी की तरह महसूस कर रहे हैं। फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने जो कहा वह भी उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा था कि इस समय देश में उन्हें उनके मुस्लिम होने का अहसास कराया जा रहा है। हाल के समय में समाज में घट रही घटनाओं की स्थिति की झलक लेखक-गीतकार गुलजार की बातों में नजर आई जब उन्होंने कहा, आजकल हालात ऐसे हो गए हैं कि आज लोग आपका नाम पूछने से पहले आपका धर्म पूछ रहे हैं।   

पुरस्कार वापसी के जरिये भारी प्रतिरोध के साथ ही लेखकों, वैज्ञानिकों और कलाकारों के बयानों से भाजपा और इसकी राजनीतिक साजिशों को गहरा धक्का पहुंचा। वह अब भी इन सबको एक नियोजित प्रतिक्रिया बताकर प्रहार करती है। यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई है कि जो कुछ भी घटित हो रहा है, वह जनता के एक बड़े वर्ग की भावनाओं को दर्शाता है। क्या यह एक संयोग की बात है कि तब से ही संघ परिवार के सारे अभिन्न अंग, जैसे जहर उगलने वाली साक्षियों, साध्वियों और योगियों ने अपने जहर को काबू में रखा हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि पाकिस्तान भागो, हम कट जाएंगे लेकिन गोमांस खाने वालों को नहीं छोड़ेंगे, जैसे नारों को कुछ समय के लिए विराम दे दिया गया है।

हम एक वैश्विकृत दुनिया में रह रहे हैं। पुरस्कार वापसी के प्रतिरोधों ने सारी दुनिया में ध्यान आकृष्ट किया। यूके में जाने माने मूर्तिकार अनीश कपूर ने उदार दुनिया के एक बहुत बड़े वर्ग की भावनाओं को अभिव्यक्त किया जब उन्होंने कहा कि भारत में हिंदू तालिबान का राज है। उनका आलेख यूके के एक बहुत प्रसिद्ध अखबार, गार्जियन में छपा था। कई भारतीय बुद्धिजीवियों-आंदोलनकारियों ने मोदी के लंदन दौरे के समय वहां उनके खिलाफ विरोध-प्रदर्शन  में भाग लिया। इसी प्रकार न्यू यॉर्क टाइम्स ने भी पुरस्कार वापसी की इन घटनाओं और भारत में बढ़ती असहिष्णुता पर कई आलेख छापे। मूडी लॉजिस्टिक्स ने सलाह दी कि मोदी को अपने असामाजिक तत्वों पर लगाम कसना चाहिए वरना भारत अपनी साख खो देगा।     

इन वैश्विक विचारों और प्रवासी भारतीयों के विरोधों ने हिंदू राष्ट्रवादियों पर अतिरिक्त दबाव डाला और अब उनके मुंह फिलहाल के लिए बंद हो गए हैं। बिहार चुनाव के परिणाम उदार विचारों के संरक्षण के लिए हो रहे विरोध प्रदर्शनों के लिए राहत की तरह आया। लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध ज्यादातर लोगों और भारतीय संविधान के सिद्धांतों पर अटूट विश्वास रखने वालों को इन परिणामों ने बहुत बड़ी राहत दी है। अब तक यह लग रहा था कि मोदी तरक्की की राह पर हैं और उस राजनीतिक शक्ति को तोड़ने मरोड़ने में सफल हो सकते हैं जो बदले में उनके पैतृक संगठन को विभाजनकारी की प्रक्रिया को तेज करने में मदद करेगी। बिहार के चुनाव परिणामों ने इस बात का एहसास कराया है कि लोकतंत्र और बहुलतावाद में लड़ने की ताकत और भविष्य मौजूद है। और इस परिणाम ने इस बात का भी एहसास कराया कि सही प्रकार के गठबंधन के जरिये चुनावी स्तर पर सांप्रदायिक राष्ट्रवाद का मुकाबला किया जा सकता है।

राहत के इस झोंके की वजह से हो सकता ज्यादातर वैज्ञानिक, आंदोलनकारी और रचनात्मक लोगों ने फिलहाल अपनी नाराजगी के इजहार को थाम लिया हो। जहां असहिष्णुता की राजनीति का खतरा बहुत ज्यादा है, इसकी सबसे खास बात यह है कि फिलहाल कम से कम कुछ समय के लिए इसकी हवा निकाल दी गई है। कोई भी इस बात को समझता है कि घृणा के प्रचार और विभाजनकारी राजनीति के पीछे के संगठन और व्यक्ति अब भी अच्छी खासी संख्या में मौजूद हैं लेकिन फिलहाल बढ़ती असहिष्णु के वातावरण से राहत देने में बिहार एक महत्वपूर्ण मोड़ रहा है। और शायद ऐसा लगता है कि पुरस्कार वापसी के जरिये विरोध एक अर्द्ध अल्पविराम पर पहुंच गया है, दूसरे अर्थों में थम सा गया है। (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)




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