प्रोफेसर, युद्धबंदी: अरुंधति रॉय का विशेष निबंध
Posted by Reyaz-ul-haque on 5/10/2015 05:06:00 PM
व्हीलचेयर पर चलनेवाले इस लकवाग्रस्त अकादमीशियन से सरकार इतनी डरी हुई है, कि उसकी गिरफ्तारी के लिए उसे उसका अपहरण करना पड़ा. आउटलुक में प्रकाशित इस विशेष निबंध मेंअरुंधति रॉय ऑपरेशन ग्रीन हंट और उसके शहरी अवतार के हवाले से डॉ. जी. एन. साईबाबा की कैद के बारे में बता रही हैं, जिसने उनकी जिंदगी के लिए एक गंभीर खतरा भी पैदा कर दिया है. अनुवाद: रेयाज उल हक.
9 मई 2015 को एक साल हो जाएगा, जब दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कॉलेज में अंग्रेजी के लेक्चरर, डॉ. जी.एन. साईबाबा को काम से घर लौटते हुए अनजान लोगों ने अगवा कर लिया. जब उनके पति लापता हुए और उनका फोन नहीं लग रहा था तो डॉ. साईबाबा की पत्नी वसंता ने स्थानीय थाने में गुमशुदगी की शिकायत दर्ज कराई. आगे चल कर उन अनजान लोगों ने अपनी पहचान महाराष्ट्र पुलिस के रूप में जाहिर की और बताया कि वह अपहरण, एक गिरफ्तारी थी.
आखिर उन्हें इस तरह से अगवा क्यों करना पड़ा, जबकि वे उन्हें औपचारिक रूप से गिरफ्तार कर सकते थे? उस प्रोफेसर को जो व्हीलचेयर पर चलते हैं क्योंकि पांच बरस की उम्र से अपनी कमर के नीचे लकवे के शिकार हैं. इसकी दो वजहें हैं: पहली कि वे अपने पहले के दौरों की वजह से ये जानते थे कि अगर वे दिल्ली विश्वविद्यालय में उनके घर से उन्हें उठाने जाएंगे तो उन्हें क्रुद्ध लोगों की एक भीड़ से निबटना पड़ेगा - वे प्रोफेसर, कार्यकर्ता और छात्र जो प्रोफेसर साईबाबा से प्यार करते हैं और उन्हें पसंद करते हैं, सिर्फ इसलिए नहीं कि वे एक समर्पित शिक्षक थे, बल्कि दुनिया के बारे में उनके बेखौफ राजनीतिक नजरिए की वजह से भी. दूसरी वजह, क्योंकि अपहरण करने पर यह बात ऐसी दिखेगी मानो महज अपनी चतुराई और साहस से लैस होकर, उन्होंने एक खतरनाक आतंकवादी का सुराग लगा लिया हो और उसको पकड़ लिया हो. हालांकि सच्चाई कहीं ज्यादा नीरस है. हममें से अनेक लोग यह लंबे समय से जानते थे कि प्रोफेसर साईबाबा को गिरफ्तार किए जाने की आशंका है. कई महीनों से यह एक खुली चर्चा का मुद्दा था. इन महीनों में कभी भी, उनको अगवा किए जाने के दिन तक यह बात न तो उनके खयाल में आई और न किसी और के, कि उन्हें इसका सामना करने के बजाए कुछ और करना चाहिए. असल में, इस दौरान उन्होंने ज्यादा मेहनत की और पॉलिटिक्स ऑफ द डिसिप्लिन ऑफ इंडियन इंगलिश राइटिंग(भारतीय अंग्रेजी लेखन में अनुशासन की राजनीति) पर अपना पीएच.डी. का काम पूरा किया.
हमें क्यों लगा था कि वे गिरफ्तार कर लिए जाएंगे? उनका जुर्म क्या था?
सितंबर2009 में, तब के गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने लाल गलियारे (रेड कॉरीडोर) के रूप में जाने जानेवाले इलाके में, ऑपरेशन ग्रीन हंट कही जानेवाली एक जंग का ऐलान किया था. इसका प्रचार किया गया कि यह मध्य भारत के जंगलों में माओवादी 'आतंकवादियों' के खिलाफ अर्धसैनिक बलों का सफाया अभियान है. हकीकत में, यह उस लड़ाई का आधिकारिक नाम था, जो राज्य प्रायोजित हत्यारे दस्तों (बस्तर में सलवा जुडूम और दूसरे राज्यों में कोई नाम नहीं) द्वारा दुश्मन के काम में आने वाली हर चीज को तबाह करने की लड़ाई रही है. उनको दिया गया हुक्म, जंगल को इसके तकलीफदेह निवासियों से खाली करना था, ताकि खनन और बुनियादी निर्माण के कामों में लगे कॉरपोरेशन अपनी रुकी हुई परियोजनाओं को आगे बढ़ा सकें. इस तथ्य से तब की यूपीए सरकार को कोई परेशानी नहीं हुई कि आदिवासी जमीन को निजी कंपनियों के हाथों बेचना गैरकानूनी और असंवैधानिक है. (मौजूदा सरकार के नए भूमि अधिग्रहण अधिनियम में उस गैर कानूनियत को कानून में बदलने की पेशकश की गई है.) हत्यारे दस्तों के साथ-साथ हजारों अर्धसैनिक बलों ने हमला किया, गांव जलाए, गांववालों की हत्या की और औरतों का बलात्कार किया. दसियों हजार आदिवासियों को अपने घरों से भाग कर जंगल में खुले आसमाने के नीचे छुपने के लिए मजबूर किया गया. इस बेरहमी के खिलाफ जवाबी कार्रवाई यह थी कि सैकड़ों स्थानीय लोग जनमुक्ति छापामार सेना (पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी) में शामिल हुए, जिसे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने खड़ा किया है. यह वो पार्टी है, जिसे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मशहूर तरीके से भारत की 'आंतरिक सुरक्षा का अकेला सबसे बड़ा खतरा' बताया था. अब भी, इस पूरे इलाके में उथल-पुथल बरकरार है, जिसे गृह युद्ध कहा जा सकता है.
जैसा कि किसी भी दीर्घकालिक युद्ध में होता है, हालात सीधे-सरल होने से कहीं दूर हैं. प्रतिरोध में जहां कुछ लोगों ने अच्छी लड़ाई लड़ना जारी रखी है, कुछ दूसरे लोग मौकापरस्त, रंगदारी वसूलनेवाले और मामूली अपराधी बन चुके हैं. दोनों समूहों में फर्क कर पाना हमेशा आसान नहीं होता, और यह उन्हें एक ही रंग में पेश करने को आसान बना देता है. उत्पीड़न की खौफनाक घटनाएं हुई हैं. एक तरह का उत्पीड़न आतंकवाद कहा जाता है और दूसरे को तरक्की.
2010 और 2011 में, जब ऑपरेशन ग्रीन हंट अपने सबसे बेरहम दौर में था, इसके खिलाफ एक अभियान में तेजी आनी शुरू हुई. अनेक शहरों में जनसभाएं और रैलियां हुईं. जैसे जैसे जंगल में होने वाली घटनाओं की खबर फैलनी, अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने इस पर ध्यान देना शुरू किया. डॉ. साईबाबा उन मुख्य लोगों में एक थे, जिन्होंने ऑपरेशन ग्रीन हंट के खिलाफ इस सार्वजनिक और पूरी तरह से गैर-खुफिया अभियान को गोलबंद किया था. कम से कम अस्थायी रूप से ही, वह अभियान सफल रहा था. शर्मिंदगी में सरकार को यह दिखावा करना पड़ा कि ऑपरेशन ग्रीन हंट जैसी कोई चीज नहीं है, कि यह महज मीडिया की बनाई हुई बात है. (बेशक आदिवासी जमीन पर हमला जारी है, जिसके बारे में ज्यादातर कोई खबर नहीं आती, क्योंकि अब यह एक ऑपरेशन बेनाम है. एक माओवादी हमले में मारे गए सलवा जुडूम के संस्थापक महेंद्र करमा के बेटे छविंद्र करमा ने इस हफ्ते, 5 मई 2015 को सलवा जुडूम-2 की शुरुआत का ऐलान किया. यह सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले के बावजूद किया गया, जिसमें अदालत ने सलवा जुडूम-1 को गैरकानूनी और असंवैधानिक घोषित किया था और इसे बंद करने का आदेश दिया था.)
ऑपरेशन बे-नाम में, जो कोई भी राज्य की नीति की आलोचना करता है, या उसे लागू करने में बाधा पैदा करता है उसे माओवादी कहा जाता है. इस तरह माओवादी बताए गए हजारों दलित और आदिवासी, देशद्रोह और राज्य के खिलाफ जंग छेड़ने जैसे अपराधों के बे सिर-पैर के आरोपों में आतंकवादी गतिविधि निरोध अधिनियम (यूएपीए) के तहत जेल में बंद हैं. यूएपीए एक ऐसा कानून है कि सिर्फ अगर इसको इस्तेमाल में लाया जाना इतना त्रासदी भरा नहीं होता, तो इससे किसी भी समझदार इंसान की बड़ी जोर की हंसी छूट सकती थी. एक तरफ, जबकि गांव वाले कानूनी मदद और इंसाफ की किसी उम्मीद के बिना बरसों तक जेल में पड़े रहते हैं, अक्सर उन्हें पक्के तौर पर यह तक पता नहीं होता कि उन पर किस अपराध का इल्जाम है, दूसरी तरफ अब सरकार ने अपनी निगाह शहरों में उनकी तरफ फेरी है, जिसे यह 'ओजीडब्ल्यू' यानी खुलेआम काम करनेवाले कार्यकर्ता (ओवरग्राउंड वर्कर्स) कहती है.
इसने पहले जिन हालात में खुद को पाया था, उन्हें नहीं दोहराने पर अडिग गृह मंत्रालय ने 2013 में सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल अपने हलफनामे में अपने इरादों को साफ साफ जाहिर किया था. उसमें कहा गया था: 'नगरों और शहरों में भाकपा (माओवादी) के विचारकों और समर्थकों ने राज्य की खराब छवि पेश करने के लिए संगठित और व्यवस्थित प्रचार चलाया हुआ है...ये वे विचारक हैं जिन्होंने माओवादी आंदोलन को जिंदा रखा है और कई तरह से तो पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी के कैडरों से ज्यादा खतरनाक हैं.'
डॉ. साईबाबा हाजिर हों.
हम यह जान गए थे कि उनकी निशानदेही की जा चुकी है, जब उनके बारे में साफ तौर पर गढ़ी हुई और बढ़ा चढ़ा कर अनेक खबरें अखबारों में आने लगीं. (जहां उनके पास असली सबूत नहीं थे, उनके पास आजमाया हुआ दूसरा सबसे बेहतर तरीका था कि अपने शिकार के बारे में संदेह का एक माहौल तैयार कर दो.)
12 सितंबर 2013 को उनके घर पर पचास पुलिसकर्मियों ने महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर अहेरी के मजिस्ट्रेट द्वारा चोरी की संपत्ति के लिए जारी किए गए तलाशी वारंट के साथ छापा मारा. उन्हें कोई चोरी की संपत्ति नहीं मिली. बल्कि वे उन्हीं की संपत्ति उठा (चुरा?) ले गए. उनका निजी लैपटॉप, हार्ड डिस्क और पेन ड्राइव्स. दो हफ्ते बाद मामले के तफ्तीश अधिकारी सुहास बवाचे ने डॉ. साईबाबा को फोन किया और हार्ड डिस्क खोलने के लिए उनसे पासवर्ड पूछा. डॉ. साईबाबा ने उन्हें पासवर्ड बताए. 9 जनवरी 2014 को पुलिसकर्मियों के एक दल ने उनके घर पर आकर घंटों उनसे पूछताछ की. और 9 मई को उन्होंने उन्हें अगवा कर लिया. उसी रात वे उन्हें नागपुर लेकर गए जहां से वे उन्हें अहेरी ले गए और फिर नागपुर ले आए, जिस दौरान सैकड़ों पुलिसकर्मी, जीपों और बारूदी सुरंग रोधी गाड़ियों के काफिले के साथ चल रहे थे. उन्हें नागपुर केंद्रीय जेल में, इसकी बदनाम अंडा सेल में कैद किया गया, जहां उनका नाम हमारे देश के जेलों में बंद, सुनवाई का इंतजार कर रहे तीन लाख लोगों की भीड़ में शामिल हो गया. हंगामेभरे इस पूरे नाटक के दौरान उनका व्हीलचेयर टूट गया. डॉ. साईबाबा की जैसी हालत है, उसे '90 फीसदी अशक्त' कहा जाता है. अपनी सेहत को और बदतर होने से बचाने के लिए उन्हें लगातार देखरेख, फिजियोथेरेपी और दवाओं की जरूरत होती है. इसके बावजूद, उन्हें एक खाली सेल में फेंक दिया गया (वे अब भी वहीं हैं), जहां बाथरूम जाने में उनकी मदद करने के लिए भी कोई नहीं है. उन्हें अपने हाथों और पांवों के बल पर रेंगना पड़ता था. इसमें से कुछ भी, यातना के दायरे में नहीं आएगा. एकदम नहीं. राज्य को अपने इस खास कैदी के बारे में एक बड़ी बढ़त इस रूप में हासिल है कि वह बाकी कैदियों के बराबर नहीं है. उसे बेरहमी से यातना दी जा सकती है, शायद उसको मारा भी जा सकता है, और ऐसा करने के लिए किसी को उस पर उंगली तक रखने की जरूरत नहीं है.
अगली सुबह नागपुर के अखबारों के पहले पन्ने पर महाराष्ट्र पुलिस के भारी हथियारबंद दल द्वारा अपनी जीत की निशानी के साथ शान से पोज देते हुए तस्वीरें छपी थीं - अपनी टूटी हुई व्हीलचेयर पर खतरनाक आतंकवादी, प्रोफेसर युद्धबंदी.
उन पर यूएपीए के इन सेक्शनों के तहत आरोप लगाए गए: सेक्शन 13 (गैरकानूनी गतिविधि में भाग लेना/उसकी हिमायत करना/उकसाना/ उसे अमल में लाने के लिए भड़काना), सेक्शन 18 (आतंकवादी कार्रवाई के लिए साजिश/कोशिश करना), सेक्शन 20 (एक आतंकवादी गिरोह या संगठन का सदस्य होना), सेक्शन 38 (एक आतंकवादी संगठन की गतिविधियों को आगे बढ़ाने के इरादे से उससे जुड़ना) और सेक्शन 39 (एक आतंकवादी संगठन के लिए समर्थन को बढ़ावा देने के मकसद से सभाएं करने में मदद करना या उसे संबोधित करना). उन पर भाकपा (माओवादी) के कॉमरेड नर्मदा के पास पहुंचाने की खातिर, जेएनयू के एक छात्र हेम मिश्रा को एक कंप्यूटर चिप देने का आरोप लगाया गया. हेम मिश्रा को अगस्त 2013 में बल्लारशाह रेलवे स्टेशन पर गिरफ्तार किया गया और वे डॉ. साईबाबा के साथ नागपुर जेल में हैं. उनके साथ इस 'साजिश' के अन्य तीनों आरोपी जमानत पर रिहा हो चुके हैं.
आरोपपत्र में गिनाए गए अन्य गंभीर अपराध ये हैं कि डॉ. साईबाबा रिवॉल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट (आरडीएफ) के संयुक्त सचिव हैं. आरडीएफ उड़ीसा और आंध्र प्रदेश में एक प्रतिबंधित संगठन हैं, जहां इस पर माओवादी 'फ्रंट [खुला]' संगठन होने का संदेह है. दिल्ली में यह प्रतिबंधित नहीं है. न ही महाराष्ट्र में. आरडीएफ के अध्यक्ष जाने-माने कवि वरवर राव हैं, जो हैदराबाद में रहते हैं.
डॉ. साईबाबा के मामले की सुनवाई अभी शुरू नहीं हुई है. इसको शुरू होने में अगर बरसों नहीं तो महीनों लगने की संभावना है. सवाल है कि 90 फीसदी अशक्तता वाला एक इंसान जेल की उन बेहद खराब दशाओं में कब तक बचा रह पाएगा?
जेल में बिताए गए इस एक साल में, उनकी सेहत खतरनाक रूप से बिगड़ी है. वे लगातार, तकलीफदेह दर्द में रहते हैं. (जेल अधिकारियों ने मददगार बनते हुए, इसे पोलियो पीड़ितों के लिए 'खासा मामूली' बताया.) उनका स्पाइनल कॉर्ड खराब हो चुका है. यह टेढ़ा हो गया है और उनके फेफड़ों में धंस रहा है. उनकी बाईं बांह काम करना बंद कर चुकी है. जिस स्थानीय अस्पताल में जांच के लिए जेल अधिकारी उन्हें ले गए थे, उसके कार्डियोलॉजिस्ट [दिल के डॉक्टर] ने कहा कि फौरन उनकी एंजियोप्लास्टी कराई जाए. अगर वे एंजियोप्लास्टी से गुजरते हैं, तो उनकी मौजूदा दशा और जेल के हालात को देखते हुए, यह इलाज खतरनाक ही होगा. अगर उनका इलाज नहीं हुआ और उनकी कैद जारी रही, तो यह भी खतरनाक होगा. जेल अधिकारियों ने बार बार उन्हें दवाएं देने से इन्कार किया है, जो न सिर्फ उनकी तंदुरुस्ती के लिए, बल्कि उनकी जिंदगी के लिए बेहद जरूरी है. जब वे उन्हें दवाएं लेने की इजाजत देते हैं, तो वे उन्हें वह विशेष आहार लेने की इजाजत नहीं देते, तो उन दवाओं के साथ दी जाती है.
इस तथ्य के बावजूद कि भारत अशक्तता अधिकारों के अंतरराष्ट्रीय समझौते का हिस्सा है और भारतीय कानून एक ऐसे इंसान को सुनवाई का इंतजार करते हुए (अंडरट्रायल) लंबे समय तक कैद में रखने की साफ तौर पर मनाही करते हैं जो अशक्त है, डॉ. साईबाबा को सत्र अदालत द्वारा दो बार जमानत देने से मना कर दिया गया है. दूसरे मौके पर जमानत की अर्जी इस आधार पर खारिज कर दी गई कि जेल अधिकारियों ने अदालत के सामने यह दिखाया था कि वे वह जरूरी और खास देखरेख मुहैया करा रहे हैं, जो उनकी जैसी हालत वाले एक इंसान के लिए जरूरी है. (उन्होंने उनके परिवार को इसकी इजाजत दी थी, कि वे उनकी व्हीलचेयर बदल दें.) डॉ. साईबाबा ने जेल से लिखी गई एक चिट्ठी में कहा कि जिस दिन जमानत देने से मना करने वाला फैसला आया, उनकी खास देखभाल वापस ले ली गई. निराश होकर उन्होंने भूख हड़ताल शुरू की. कुछ दिनों के भीतर वे बेहोशी की हालत में अस्पताल ले जाए गए.
बहस की खातिर, चलिए इसके बारे में फैसले को अदालत पर छोड़ देते हैं कि अपने ऊपर लगाए गए आरोपों में डॉ. साईबाबा कसूरवार हैं या बेकसूर. और महज थोड़ी देर के लिए सिर्फ जमानत के सवाल पर गौर करते हैं, क्योंकि उनके लिए यह हर्फ ब हर्फ जिंदगी और मौत का सवाल है.
उन पर लगाए गए आरोप चाहे जो हों, क्या प्रोफेसर साईबाबा को जमानत मिलनी चाहिए? यहां उन जानी-मानी सार्वजनिक शख्सियतों और सरकारी कर्मचारियों की एक फेहरिश्त पेश है, जिन्हें जमानत दी जाती रही है.
23 अप्रैल 2015 को बाबू बजरंगी को गुजरात उच्च न्यायालय में 'आंख के एक फौरी ऑपरेशन' के लिए जमानत पर रिहा किया गया, जो 2002 में नरोदा पाटिया कत्लेआम में, जहां दिन दहाड़े 97 लोग मार दिए गए थे, अपनी भूमिका के लिए कसूरवार साबित हो चुके हैं और जिन्हें आजीवन कैद की सजा सुनाई जा चुकी है. यह बाबू बजरंगी हैं, जो खुद अपने शब्दों में अपने किए गए जुर्म के बारे में बता रहे हैं: 'हमने एक भी मुसलमान दुकान को नहीं बख्शा, हमने हर चीज में आग लगा दी, हमने उन्हें जलाया और मार डाला...टुकड़े-टुकड़े किए, जलाया, आग लगा दी...हमारी आस्था उन्हें आग लगाने में है क्योंकि ये हरामी चिता पर जलना नहीं चाहते. वे इससे डरते हैं.' ['आफ्टर किलिंग देम आई फेल्ट लाइक महाराणा प्रताप' तहलका, 1 सितंबर 2007]
आंख का ऑपरेशन, हुह? शायद हम थोड़ा ठहरकर सोचें तो यह एक फौरी जरूरत ही है कि वह जिनसे दुनिया को देखता था, उन हत्यारी आंखों को कुछ कम बेवकूफ और कुछ कम खतरनाक आंखों से बदल दिया जाए.
30 जुलाई 2014 को गुजरात में मोदी सरकार की एक पूर्व मंत्री माया कोडनानी को गुजरात उच्च न्यायालय ने जमानत दे दी, जो उसी नरोदा पाटिया कत्लेआम में कसूरवार साबित हो चुकी हैं और 28 साल के लिए जेल की सजा भुगत रही हैं. कोडनानी एक मेडिकल डॉक्टर हैं और कहती हैं कि उन्हें आंतों की टीबी है, दिल की बीमारी है, क्लीनिकल अवसाद है और स्पाइन की दिक्कत है. उनकी सजा भी स्थगित कर दी गई है.
गुजरात में मोदी सरकार के एक और पूर्व मंत्री अमित शाह को जुलाई 2010 में तीन लोगों - सोहराबुद्दीन शेख, उनकी बीवी कौसर बी और तुलसीराम प्रजापति की गैर-अदालती हत्या का आदेश देने के आरोप में गिरफ्तार किया गया. सीबीआई ने जो फोन रेकॉर्ड पेश किए वे दिखाते थे कि शाह उन पुलिस अधिकारियों के लगातार संपर्क में थे, जिन्होंने पीड़ितों के मारे जाने के पहले उन्हें गैरकानूनी हिरासत में लिया था. वे यह भी दिखाते थे कि उन दिनों अमित शाह और उन पुलिस अधिकारियों के बीच फोन कॉलों की संख्या तेजी से बढ़ गई थी. (आगे चले कर, परेशान कर देने वाली और रहस्यमय घटनाओं के एक सिलसिले के बाद, वे पूरी तरह से छूट गए हैं). वे अभी भाजपा के अध्यक्ष हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दाहिने हाथ हैं.
22 मई 1987 को हाशिमपुरा से पुलिस आर्म्ड कॉन्स्टेबुलरी (पीएसी) द्वारा पकड़ कर ट्रक में ले जाए गए 42 मुसलमानों को गोली मार कर उनकी लाशें कुछ दूर, एक नहर में फेंक दी गईं. इस मामले में पीएसी के उन्नीस जवान आरोपित बनाए गए. उनमें से सभी सेवा में बने रहे, दूसरों की तरह तरक्की और बोनस हासिल करते रहे. तेरह साल बाद, सन 2000 में उनमें से सोलह ने आत्मसमर्पण किया (तीन मर चुके थे). उन्हें फौरन जमानत दे दी गई. कुछ ही हफ्ते पहले, मार्च 2015 में सभी सोलह जवानों को सबूतों के अभाव में छोड़ दिया गया.
दिल्ली विश्वविद्यालय में एक शिक्षक और कमेटी फॉर द डिफेंस एंड रीलीज ऑफ साईबाबा के एक सदस्य हैनी बाबू हाल ही में कुछ मिनटों के लिए अस्पताल में डॉ. साईबाबा से मिलने में कामयाब रहे. 23 अप्रैल 2015 को एक प्रेस सम्मेलन में, जिसकी कमोबेश कोई खबर नहीं दी गई, हैनी बाबू ने उस मुलाकात के हालात के बारे में बताया: डॉ. साईबाबा को एक सेलाइन ड्रिप चढ़ रही थी. वे बिस्तर पर उठ कर बैठे और उनसे बात की. उनके सिर की तरफ एके-47 ताने एक सुरक्षाकर्मी उनके पीछे खड़ा रहा. यह उसकी ड्यूटी थी कि वह सुनिश्चित करे कि उसका कैदी अपनी लकवाग्रस्त टांगों से भाग न जाए.
क्या डॉ. साईबाबा नागपुर केंद्रीय जेल से जिंदा बाहर आ सकेंगे? क्या वे चाहते हैं कि साईबाबा बाहर निकलें? बहुत सारी वजहें हैं, जो इशारा करती हैं कि वे ऐसा नहीं चाहते.
यही सब तो है, जिसे हम बर्दाश्त कर रहे हैं, जिसके लिए हम वोट डालते हैं, जिस पर हम राजी हैं.
यही तो हैं हम.
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