BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Thursday, May 28, 2015

कभी ऐसे भी डॉक्टर हुआ करते थे Posted by राजीव लोचन साह

कभी ऐसे भी डॉक्टर हुआ करते थे

gajendra-thapa-rememberingजब सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों को तो छोड़ें, मोटर सड़क से थोड़ा बायें-दायें तैनाती किये जाने के लिये भी कोई डॉक्टर तैयार न हो; जब निजी अस्पतालों के नाम पर यहाँ हल्द्वानी में ही ऐसे कसाईखाने मौजूद हों जो 95 प्रतिशत मरे हुए व्यक्ति को भी जबर्दस्ती 48 घंटे वेंटीलेटर पर रख कर रिश्तेदारों को चूस कर कंगाल कर देते हों और पूरा भुगतान न होने तक लाश भी न छोड़ते हों तब कोई कैसे विश्वास करे कि गजेन्द्र थापा जैसे डॉक्टर भी इसी समाज में होते थे ?

कौन थे गजेन्द्र थापा ?

थोड़ा अवान्तर जाना पड़ रहा है। सन् 1957-58 में लगभग साल भर तक अपनी आमा के साथ अल्मोड़ा में रहा, खजांची मोहल्ला में। सन् इसलिये पक्की तरह याद रह गया है कि 1957 में देश में मीट्रिक प्रणाली लागू हुई थी और 1 अप्रेल के दिन आमा ने मुझे एक रुपये का नोट दे कर सामने कलक्ट्रेट स्थित ट्रेजरी में भेजा था कि नये सिक्के ले आऊँ। मैं ले आया। साथ में एक कागज भी था, जिसमें लिखा था कि एक आना बराबर छः नये पैसे, दो आना बराबर बारह नये पैसे, तीन आने बराबर उन्नीस नये पैसे आदि इत्यादि। आमा अपने स्वभाव के अनुरूप भयंकर गुस्सा गईं, ''आग लगे इन कांग्रेसियों के सर पर। ये कौन सा हिसाब हुआ ?'' सचमुच यह कैसा गणित था ? सारा पहाड़ा तो चौपट हो गया! उस पीढ़ी के लोगों के लिये यह जबर्दस्त झटका था। हालाँकि हम लोगों के होश सम्हालते न सम्हालते 'पच्चीस-पचास' नये पैसे के सिक्के बेहद सामान्य हो गये। और आज की पीढ़ी तो अब इन सिक्कों को पहचानती भी नहीं होगी। बदलाव कितना ही सकारात्मक हो, तो भी पुरानी पीढ़ी को कितना हिला देता है, यह तब जाना।

खैर। उस एक साल में आमा से अल्मोड़ा के विभिन्न व्यक्तित्वों के बारे में जानने को मिला। इन चरित्रों की व्याख्या आमा के अपने सामन्ती सोच के अनुरूप सकारात्मक या नकारात्मक होती थी। इनमें डॉ. थापा और डॉ. खजानचंद को ले कर आमा की सराहना छिपी नहीं रह पाती थी। इनमें डॉ. खजानचंद को तो बाद के सालों में बहुत नजदीक से जानने का मौका मिला। जब वे भवाली सैनिटोरियम के सुपरिंटेंडेंट थे तो सन् 1920 के या 30 के दशक की बनी, अक्सर डाँठ के पास खड़ी रहने वाली उनकी उनकी विटेंज कार आने-जाने वालों के कदम रोक लेती थी। मगर डॉ. गजेन्द्र थापा को कभी नहीं देखा। देख लेता, अगर तब मैं बीमार पड़ता।

कैसे ?

आमा ने बताया कि एक डॉ. थापा हैं, जो रोज एक चक्कर बाजार का लगाते हैं और हर बीमार व्यक्ति को उसके घर पर आ कर देख जाते हैं। एकदम मुफ्त। उन्हें सूचना देना भी जरूरी नहीं होता। उन्हें खबर भर मिल जानी चाहिये कि फलाँ जगह, फलाँ घर में कोई व्यक्ति बीमार है। यही नहीं, दवा भी अपनी जेब से दे जाते हैं।

उस वक्त यह सिर्फ एक सूचना भर थी, जो कच्चे बालमन पर दर्ज हो गई और स्मृति में रह गई। इसका असली मर्म तो अब जा कर समझ में आता है, जब चिकित्सा एक बेरहम किस्म का व्यापार हो गई है और सरकारों द्वारा बनाया गया पूरा ताम-झाम भी चैपट हो गया है।

जाहिर है कि ऐसे गरीबपरवर, जब डॉक्टर को भगवान माना जाता था और डॉ. थापा या हल्द्वानी के डॉ.रामलाल साह जैसे डॉक्टर होते भी थे, उस जमाने में सम्मान के पात्र अवश्य रहे होंगे। अल्मोड़ा नगरपालिका ने मालरोड से खत्याड़ी स्थित उनके निवास, रतन कॉटेज की ओर उतरती पगडंडी का नामकरण 'गजेन्द्र थापा मार्ग' रखा है। मगर क्या वहाँ से गुजरते किसी अजनबी या नई पीढ़ी के किसी युवक में कभी यह जिज्ञासा उपजती होगी कि ये गजेन्द्र थापा दरअसल थे कौन ? सड़कों, मकानों आदि का नामकरण करने की या मूर्तियाँ लगाने की हमारे समाज में अति हो गई है। मगर ऐसा लगता नहीं कि इनके बहाने लोग ऐसी विभूतियों को याद करते होंगे। ऐसे में यह खबर मिलने पर बहुत अच्छा लगा कि विगत वर्ष से अल्मोड़ा का गोर्खा समाज डॉ. गजेन्द्र थापा की याद में प्रति वर्ष एक कार्यक्रम कर रहा है। इस बार तो 2 मई को सैवॉय होटल में हुए आयोजन में अपनी सास कलावती की परम्परा में, सैकड़ों नवजात शिशुओं को दुनिया में लाने वाली मिडवाईफ हेमा राणा के अतिरिक्त डॉ. नलिन पांडे, डॉ. जे.सी. दुर्गापाल और गोर्खा समाज के अध्यक्ष एस.वी. राणा आदि महत्वपूर्ण कार्य करने वाले व्यक्तियों को सम्मानित भी किया गया। नवनिर्मित मेडिकल कॉलेज में एक फैकल्टी का नाम डॉ. गजेन्द्र थापा के नाम पर करने की माँग की गई। क्या पता कि चिकित्सा की डिग्री लेते वक्त ली जाने वाली 'हिप्पोक्रेटिक शपथ' का मजाक बना कर पैसे के लिये अपना ईमान बेच देने डॉक्टरों की अन्तरात्मा पर डॉ. थापा की प्रेरणा से कुछ रोक लगे!

सन् 1888 में एक साधारण सैनिक, रतन सिंह थापा के पुत्र के रूप में जन्मे गजेन्द्र ने अल्मोड़ा के रामजे स्कूल से शिक्षा ग्रहण कर आगरा मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की डिग्री ली और 1915 में सेना मेडिकल कोर में भर्ती हुए। मगर 1920 में वह नौकरी छोड़ कर वे राज्य सरकार की चिकित्सा सेवा में आ गये। सबसे पहले उन्होंने भीमताल पी.ए.सी से अपनी नौकरी शुरू की। फिर चमोल, रुद्रप्रयाग, उखीमठ, पौड़ी, कोटद्वार आदि स्थानों पर अपनी सेवायें दीं। अन्त में सन् 1947 में अल्मोड़ा जिला अस्पताल से मेडिकल ऑफिसर सर्जन पद से सेवानिवृत्त हुए। वे जहाँ-जहाँ भी रहे, अपने आचरण से जनता का दिल जीता। 1939 में एक स्थानीय अखबार में प्रकाशित समाचार के अनुसार चमोली से उनके स्थानान्तरण का वहाँ की जनता ने विरोध भी किया था। वे एक अच्छे शिकारी भी थे। चमोली में तैनाती के दिनों में उन्होंने गोपेश्वर में के निकट एक नरभक्षी हो गये बाघ को मार कर उसके आतंक से ग्रामीणों को मुक्त किया था। खेलों में भी उनकी रुचि रही। वर्ष 1971 में डॉ. थापा का देहान्त हुआ।

अल्मोड़ा के गोर्खा समाज ने डॉ. गजेन्द्र थापा के देहान्त के 44 साल बाद उन्हें याद करने की परम्परा शुरू कर बहुत सराहनीय काम किया है।

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