BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Tuesday, November 11, 2014

ख़ून अपना हो या पराया हो नस्ले-आदम का ख़ून है आख़िर जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में अमने आलम का ख़ून है आख़िर ताकि बहारें बनी रहे इन फिज़ाओं में,जबकि गेहूंके खेत में विदेशी घुसपैठ है! पलाश विश्वास

ख़ून अपना हो या पराया हो

नस्ले-आदम का ख़ून है आख़िर

जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में

अमने आलम का ख़ून है आख़िर

ताकि बहारें बनी रहे इन फिज़ाओं में,जबकि गेहूंके खेत में विदेशी घुसपैठ है!

पलाश विश्वास

सच की चुनौतियों का सामना करने वाले समझदार लोग ही दुनिया के हालात बदल सकते हैं और अंध भक्तों की फौजों से अगर समता सामाजिक न्याय आधारित समाज की स्थापना हो जाती,तो गौतम बुद्ध के बाद इतना अरसा नहीं बीतता और इतने इतने पुरखों का किया धरा माटी में मिला नहीं होता और हम लोग इस दुनिया को इसतरह कसाईबाड़ा में तब्दील होते खामोशी के साथ अमन चैन की खुशफहमी में देखते हुए मदमस्त रीत बीत न रहे होते।

आप मुझे बेहद बदतमीज कहेंगे कि अनछपे लालन फकीर को विश्वकवि नोबेल विजेता  रवींद्र नाथ टैगोर के मुकाबले बड़ा दार्शनिक ही नहीं,उन्हें मैं उससे कहीं ऊंचे कद का कवि भी मानता हूं जिनके बिना रवींद्र नाथ कादरअसल कोई वजूद नहीं है।


वाल्तेयर कभी छपे नहीं हैं,लेकिन उनकी कविताएं इंसानियत और कायनात के रग रग में शामिल हैं आज भी।

आतंक के खिलाफ पंजाब के पिंड दर पिंड खेतोंदां मेढ़ों बिच पाशदी कविताएं जिंदा हैं और रहेंगी।

मुक्तिबोध से बड़ा कद उस ब्रह्मराक्षस का है जिसने हम सबमें मुक्तिबोध और अंधेरे के खिलाफ उनकी बेइंतहा जंग को जिंदा रखे हुए है।

हम उस कविता को कविता मानने को हरगिज तैयार नहीं है जिन कविताओं में इरोम शर्मिला और सोनी सोरी के चेहरे शामिल हैं नहीं,जिन कविताओं में बस्तर और दांतेवाड़ा के बेदखल खेत नहीं हैं और जिन कविताओं में काश्मीर की वादियों में हिमपात मध्ये चिनार वन में दावानल की कोई खबर नहीं है।


और सेनाध्यक्षों, पुलिसप्रमुखों,प्राशासकों और राजनेताओं की तर्ज पर जो कविता राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर,अंध राष्ट्रवाद के नाम पर, विकास दर और विकाससूत्र के बहाने,एकता और अखंडता के नाम पर,अस्मिताओं और धर्म अधर्म के नाम पर पूरे देश को फौजी नवनाजी हुकूमत,सीआईए मोसाद इल्युमिनेटी,हथियार सौदागरों,एफडीआई और अमेरिका जापान के हवाले करने के हक में हो,वह कविता हमारे लिए चूल्हे में झोंकने की चीज है।

काश्मीर निषिद्ध विषय है और काश्मीर में नागरिक मानवाधिकार के हक में कविता अगर खड़ी नहीं हो सकती तो बाकी देश में भी वह सत्ता की औजार के अलावा कुछ भी नहीं है।हमें खुशी हैं कि अनचीन्हें कवि नित्यानंद गायेन,जो हमारे छोटे भाई की तरह है,खुलकर कास्मीर की तस्वीर आंक पाये हैं अपनी कविता में।


वहीं,अपने तमाम बिहारी झारखंडी पूर्विया मालवाई पुरातन कवियों की निष्क्रिय लेकिन सक्रियनंदी भूमिका के बरअक्श नवनाजी राज्यतंत्र और अर्थव्यवस्था के खिलाफ सोलह मई के बाद भी लिखी जा रहीं हैं कविताएं,जैसे रंजीत वर्मा की कविताएं।

रंजीत वर्मा निहायत भद्र बिहारी मानुख लगे हैं।उनके तेवर हमें खूब बाने लगे हैं।

वीरेनदा से मिलने के खातिर जो लिफ्ट में चंद लम्हों की कैद के खिलाफ उनकी बेचैनी दिखी,वही बेचैनी इस अनंत नवनाजी गैस चैंबर से कोई न कोई  राह बनाने की है उनकी कविताएं,जो फतवे के खिलाफ एक बच्चे की तलवार की तरह तनी हुई उंगली की तरह नजर आती है।

गौरतलब है कि हमने इससे पहले लिखा था कि कविता की मौत हो गयी है और मर चुके हैं दुनियाभर के कवि।


नवारुणदाऔर सत्तर दशक के अवसान के शोक में ऐसा मैंने लिखा भी है,जो सच न हो ,इससे भारी राहत की बात हमारे लिए दूसरी नहीं है।

नैनीताल में मेरे और मोहन कपिलेश भोज का ग्यारहवीं बारहवीं के दिनों में एक भारी फंडा था,दिग्गजों के साथ बहस में भी हम किसी को भी खारिज कर देते थे सिर्फ यह कहकर जिसे हम नहीं जानते जो हम तक पहुंचा ही न हो उसको हम महान कैसे कह दें।


बचपने की वह आदत लेकिन अब भी हमारे लिए कविता और माध्यमों,विधाओं की आखिरी निर्णायक कसौटी है कि अंधेरी कातिल रात की साजिशों के मध्य कोई कविता अगर मनुष्यता, सभ्यता, इतिहास और विज्ञान के हक में खिड़कियों और दरवाजों पर दस्तक न दे सकें,तो वह कविता कविता है ही नहीं।

जो कला प्रदर्शनी हो महज या फिर कला कौशल,महज कारीगरी तकनीकी दक्षता और उसमे कोई इंसानियत की जान बहार हो ही नहीं,वह भी दौ कौड़ी की।

जिस कविता और कला में इंसानी रगों का खून दौड़ता न हो और जिसमें जिंदगी के लिए कोई जंग न हो ,वह कविता कमसकम हमारे लिए कोई कविता नहीं है,चाहे उसे कितनी ही महान रचना बताते रहें विद्वतजन।वह कला भी रइसों की शय्यासौंदर्य का अनिवार्य सामान,जिससे हमारा कोई वास्ता हरगिज नहीं है।

हम तो रोज कला और कविता के साथ साथ इंसानियत और कायनात के हक हकूक के लिए रोजनामचे की तरह या फिर सरहद पर जंग के दरम्यान मोर्चाबंदी की बदलती रहती रणनीति की तरह कविता के साथ साथ तमाम विधाओं और माध्यमों को तहस नहस करके नया सौंदर्यशास्त्र गढ़ने के फिराक में लगे रहते हैं।

मजे की बात है कि अभिषेक या अमलेंदु नहीं,हमारे इस फतवे के खिलाफ रंजीत वर्म कुछ ज्यादा ही कुनमुना रहे थे और शिकायत करते रहे कि आप तो खारिज कवियों के अलावा किसी को जानते भी नहीं हैं और न आप सोलह मई के बाद लिखी जा रही कविताएं पढ़ते हैं।

इससे मजे की बात हैं कि इतने जो मस्त अपने वीरेनदा हैं,वे भी रंजीत वर्मा के मुखातिब मेरी दलीलों से बचैन नदर आ रहे थे और अपने को रंजीत जी के साथ खड़े पा रहे थे।


यह इसलिए कि असली कविताएं उनके रगों में बह रही होती हैं।

आज का आलेख उन रंजीत वर्मा और सोलह मई केबाद कविताएं लिख रहे सेनानियों और वीरेनदा के लिए भी हैं और इसके साथ ही काश्मीर पर नित्यानंद गायेन की कविता,रंजीत वर्मा की समकालीन तीसरी दुनिया के ताजा अंक में प्रकाशित कविता और कमल जोशी की टाइम लाइन से निकाली साहिर की टीपें।

हमारे मित्र कमल जोशी जो दरअसल हमारी भाभीजान और डीएसबी में पहलेपहल गुमसुम सी गुड़िया सी हिंदी टीचर जो शेखर पाठक से शादी से पहले छुई मुई सी लगती थीं,बाद में उत्तरा की लीड हैं,श्रीमती डा.उमा भट्ट के मित्र रहे हैं पौड़ी में और इसी सिलसिले में उनसे मित्रता हमारी मिले बिन मिले अब भी लगातार जारी है।


इसीलिए देहरादून होकर दिल्लीपार निकलने के रास्ते दोस्त से स्कूटी और जैकेट पहने बरसता और कड़कती हुई सर्दी के दरम्यान देहरादून के बीजापुर स्टेट गेस्ट हाउस में वे हमसे मिलने चले आये।

यकीनन शानदार फोटोग्राफी करते हैं यायावर मित्र कमल जोशी,जिनके पिता विस्मृति रोग के शिकार कोटद्वार के घर से निकल पड़े करीब दस साल पहले और तब से उनका अता पता है ही नहीं।


पहाड़ों के उत्तुंग शिखरों और समुंदर की गहराइयों को कैद करने वाली कमलदाज्यू के कैमरे की नजर में दरअसल उस खोये पिता की एक कभी खत्म न होने वाली खोज भी शामिल है।


यही तड़प,यही बेपनाह प्यार,यही इंसानियत उनकी फोटोग्राफी की जान है।

नैनीताल में अनूप साह जी पहाड़ों में फोटोग्राफी के मास्टरमाइंड रहे हैं।यूं कहे के कैमरातोपचियों के सरगना जैसा कुछ,हालांकि वे अपने राजीवदाज्यू के मित्र ज्यादा हैं और हम तो उनके मुकाबले जर्मन प्रवासी हो गये राजीवदाज्यु के भाई प्रमोददाज्यु की कैमरागिरि के ज्यादा साथ रहे हैं और कमल जोशी से हमारी तमाम बहसें डीएसबी के कैमिस्ट्री लैब में बीकर में बनी चाय के साथ होती रही हैं।

अभी अभी हमारे सहकर्मी चित्रकार सुमित गुहा की कोलकाता में एक अनूठी प्रदर्शनी हुई है जहां मैं पहुंच ही नहीं सका लेकिन उनके चित्रों को देर सवेर साझा करेंगे।कोलकाता आर्ट कालेज के प्रतिभाशाली छात्रों को बिना मकसद कलाकार से श्रमिक बनकर जिंदगी खत्म करते रहने का चश्मदीदी गवाह रहा हूं,उनमें से करीब दर्जनभर तो हमारे सहकर्मी हैं।


सुमित की तो फिरभी प्रदर्शनी लगी है और शायद फिर लगती भी रहेंगी।लेकिन रोज फुरसत में कामकाज के मध्य अकेले में चित्र बनाते हुए जिस चुप से विमान राय को तस्वीरें बनाते देखता हूं,उनकी कब प्रदर्शनी लगेगी या लग भी पायेगी या नहीं,इसके इंतजार में हूं।

2001 में मेरी पिता की मृत्यु के बाद, 2006 में मेरी मां की मौत से पहले दिसंबर,2004 को दिल्ली में ताउजी को भाई के यहां देखकर बिजनौर पहुंचे थे,तो कमल का फोन आया कि कोटद्वार चले आओ।


हम सुबह सुबह कपड़े पहनकर तैयार हुए चलने को,तभी सुनामी से चार दिन पहले दिल्ली से भाई को पोन आया कि ताउजी नहीं रहे और उनकी मिट्टी बसंतीपुर ही पहुंच रही है,हम कोटद्वार के बदले सीधे बसंतीपुर पहुंच गये।

कमलज्यू महाराज को धन्यवाद कि अबकी दफा दर्शन दे दियो।लेकिन शिकायत यह है कि कमलदाज्यू,शेखर जैसे अनाड़ी फोटोग्राफर ने भी हमारे और गिरदा के अनेक पोज बनवा दिये,जैसे बरसाती छाता और कोट के सात हमारी जो तस्वीर खींची,याद है न।


कमलज्यू महाराज, लेकिन आपने तो अब तक हमारी कोई तस्वीर नहीं खींची।सेल्फी तो मैं खींचता हूं नहीं जबकि हमारे सारे मित्र कैमरे के धुरंधर हैं।सविता साथ में थी हमेशा की तरह,लेकिन आपने इसबार भी हमारी कोई तस्वीर नहीं खींची।

मिलने की ललक में कमल जोशी को सिर्फ जैकेट और स्कूटी जुगाड़ने की सूझी,कैमरा लिया नहीं साथ।


इसीतरह,राजीवनयन दाज्यू ने भी अपने बाबूजी के साथ पर्यावरण विमर्श में शामिल हमारी कोई तस्वीर नहीं निकाली।

हक की बात तो यह है कि सही किया क्योंकि जिंदगी जो आम फहम है और जर्रा जर्रा में कायनात की रूह है जो जिंदगी वो कैमरे में कैद हो ही नहीं सकती।


गेंहू के खेत में जो विदेशी घुसपैठ है,वह कैमरे की पकड़ में तो आ जाती हैं,लेकिन खेतों,खलिहानों,गांवो,पहाड़ों,जंगलों,जलस्रोतों,समुंदरों और ग्लेशियरों के खिलाफ,इंसानियत और तारीख के खिलाफ,सभ्यता,मातृभाषा और संस्कृति के खिलाफ जो साजिशें हैं,वे कैमरे की जद में नहीं हैं।


साजिशें रचती उन मृतात्माओं के खिलाफ युद्ध में हमारी तस्वीरें न उतारी जायें तो बेहतर।हम जंग के मैदान में किंवदंतियां और मूर्तियां न गढ़े,न नकली किले बनाकर उन्हीं पर कुर्बान होते हुए असली गढ़ों को खोने का जोखिम उठायें।

सही है दोस्तों,हमें तो पेज थ्री सेलिब्रिटी से अलग होना ही चाहिए।

सही है दोस्तों कि हमें तो तमाम पुरस्कारों,सम्मानों और मान्यताओं से अलहदा होना ही चाहिए।

दिल करता है कि अभी से ऐलान कर दूं कि कोई कभी हमारा नामोनिशां न रखें,लेकिन ऐसी जुर्रत अभी कर नहीं सकता क्योंकि दरअसल न पिद्दी हूं और न पिद्दी का शोरबा।

दृष्टिअंध जो हैं,उनके लिए सूरज का उगना क्या और सूरज का डूबना क्या।

गंधवंचितों को मरती हुई इंसानियत में भी खुशबू महसूस होती है।

और जो बहरे हैं,तमाम आलम में ,कायनात में जारी कहर और कयामत की पुरजोर आहट की क्या खबर होनी है उन्हें।

हम फ्रेम से बाहर के लोग हैं और फ्रेम से बाहर बनें रहें,तो, और तभी हम कुछ करने के लायक भी रहेंगे।


जरा फ्रेम में सजी छवियों पर जहां तहां छितराये खून के दागों पर भी गौर कीजियेगा महाराज।

कविता और कला का कमाल भी यही है कि असली कलाकार फ्रेम में होताइच ही नहीं है।फ्रेम की रोशनियों की चकाचौध में पानियों की मौजें यकबयक गायब हो जाती हैं और तालियों की गड़गड़ाहट में पता ही नहीं चलता।

कविता सिर्फ रोशनी का कारोबार नहीं है,अंधेरे केखिलाफ रोशनी पैदा करने की अंतिम और निर्णायक लड़ाई है कविता।

कलाकार सिर्फ वही नहीं होता जो मंच पर या प्रेम में कैमरे की जद में हो और रोशनी में नहा रहे हों,अंधेर में अंधेरे से लड़ रहे कलाकार का मुकाबला कोई नहीं।


कविता भी दरअसल वैसी ही कोई गुस्ताखी होती होगी जो फ्रेम और मंच के बाहर बचीखुची जिंदगी की मौजों में जीती मरती होगी।

हम बेआबरू बेशर्म बदतमीज लोग दरअसल उस जिंदगी औक उस इंसानियत के हक में खड़ा होने की गुस्ताखी कर ही नहीं सकते।


ताकि बहारें बनी रहे इन फिज़ाओं में

'सुनो बच्चियों,

तुमने क्या गाया काश्मीर की वादियों में

कि मलाल के बाद

अब तुम हो उनके निशाने पर ?

लेकिन सुनो,

उन्हें खूब शौक है

कव्वाली का ..

दाढ़ी बढ़कर पढ़ते हैं कुरान

पर तुम घबराना मत

अपना ही गीत गाना

उन्मुक्त स्वर में

ताकि बहारें बनी रहे

इन फिज़ाओं में ,और

महकता रहे गुलशन

देखा है न,

पहाड़ों को

किस तरह खड़े हैं अडिग ...?


-नित्यानन्द गायेन


ख़ून अपना हो या पराया हो

नस्ले-आदम का ख़ून है आख़िर

जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में

अमने आलम का ख़ून है आख़िर

बम घरों पर गिरें कि सरहद पर

रूहे-तामीर ज़ख़्म खाती है

खेत अपने जलें या औरों के

ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है

टैंक आगे बढें कि पीछे हटें

कोख धरती की बाँझ होती है

फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग

जिंदगी मय्यतों पे रोती है

इसलिए ऐ शरीफ इंसानो

जंग टलती रहे तो बेहतर है

आप और हम सभी के आँगन में

शमा जलती रहे तो बेहतर है।

साहिर लुधियानवी !


बचाइये ऐसी जगहों को

रंजीत वर्मा



अब हवा तरंगों के ज़रिये

यही बात लोगों से कही जाएगी

वही बातें जो 15 अगस्त 2014 को

भाषण देते हुए लाल किले से कही गई थीं

जिसे 5 सितंबर 2014 को

देश भर के लाखों स्कूल के

करोड़ों बच्चों के कानों में डाला जा रहा था




क्या आपने ऐसे किसी

नेता को कभी किसी भूगोल में देखा है

इतिहास में कभी हुआ हो ऐसा सुना है

जो चुनाव हो जाने के बाद भी

लगातार चुनावी भाषण देता फिरे

मानो इसी काम के लिए उसे चुना गया हो


2024 तक बने रहने की बात

वह इस तरह करता है जैसे

2019 का चुनाव वह किसी बड़े मैदान में

तमाम लोगों को इकट्ठा कर

हाथ उठवा के कर लेगा


जिस तरह का भय गढ़ा जा रहा है

और जैसी घोषणाएं की जा रही हैं

लाल किले से लेकर बच्चों के स्कूल तक

लगता है उसे सच साबित करने के लिए

किसी भी हद तक जाने की तैयारी कर ली गई है


देखी नहीं वो तस्वीर आपने दूर दक्षिण की

जिसमें एक महिला शिक्षक

पांचवीं के बच्चे के साथ ज्यादती कर रही थी

उसे बाहर जाने नहीं दे रही थी

वह घबड़ाई हुई नाराज़गी में कह रही थी

नौकरी लेगा क्या मेरी

चुपचाप बैठ भाषण सुन

यह कैसी मजबूरी पैदा की जा रही है

कि पेशाब करने तक को न जाने दिया जाए


भय जो मानवीयता के सामान्य रूप

को भी सामने आने से रोक दे

वही भय उसके शासन को बनाए रखेगा


जबतक यह भय होता है

निज़ाम को कोई भय नहीं होता है

लेकिन जिस जगह भय नहीं होता है

वही जगह एक दिन उसका वधस्थल बनती है


वे बच्चे जो सो गए थे वहीं फ़र्श पर बेसुध

ठीक वार्तालाप के बीच

उम्मीद वहां है

उनकी मासूमियत को बचाओ

अनुशासन को दरकिनार कर जो दिखी

उनकी बेखौफ़ लापरवाही

उनका मनमानापन उसे बचाना होगा

क्योंकि अनुशासन से नहीं

इन्हीं मौजों से

टूटती है भय की घेराबंदी


और केंद्रीय विद्यालय की कक्षा दस

की वह लड़की

जिसने भरी सभा में

पूरी दुनिया के सामने

पूछ दिया था कि लोग कहते हैं कि

आप हेडमास्‍टर की तरह हैं

आप बताइये कि आप सचमुच में क्या हैं

सवाल सुनकर वह अंदर से बेचैन हो उठा था

लेकिन उस लड़की ने जिस सहजता से

एक बड़ा सवाल उठा दिया था

उस सहजता को बचाए रखना

लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए जरूरी है

और हां पांचवीं कक्षा के उस लड़के को भी मत भूलिये

जिसका जि़क्र कविता में पहले आ चुका है

उसके माथे पर जो जि़द की लकीरें थीं

वह आगे जो शक्लें ले सकती हैं

उस पर विचार कीजिए

उन लकीरों का बचा रहना

आपकी संभावनाओं का बचा रहना है


कोशिश कीजिए कि जब तक वह

ढूंढता हुआ वैसी जगहों तक पहुंचे

आप उसके पहले वहां पहुंच जाएं

इतिहास उन्हीं जगहों से होता हुआ आगे बढ़ता है।


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