BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Tuesday, November 11, 2014

केवल हवाई अवधारणा है बहुजन की अवधारणा

केवल हवाई अवधारणा है बहुजन की अवधारणा

केवल हवाई अवधारणा है बहुजन की अवधारणा


दलित बनाम बहुजन

जाति और धर्म की राजनीति हिंदुत्व को ही मज़बूत करती है।

यह देखा गया है कि जब कभी भी मैं बसपा के बारे में कोई आलोचना करता हूँ तो बहुत से दोस्त मुझ से विकल्प के बारे में पूछते हैं। मैं उन की जानकारी के लिए अपना हाल का आलेख "दलित बनाम बहुजन" पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ


एस आर दारापुरी

पिछले काफी समय से राजनीति में दलित की जगह बहुजन शब्द का इस्तेमाल हो रहा है। बहुजन अवधारणा के प्रवर्तकों के अनुसार बहुजन में दलित और पिछड़ा वर्ग शामिल हैं। कांशी राम के अनुसार इस में मुसलमान भी शामिल हैं और इन की सख्या 85% है। उन की थ्योरी के अनुसार बहुजनों को एक जुट हो कर 15% सवर्णों से सत्ता छीन लेनी चाहिए।

वैसे सुनने में तो यह सूत्र बहुत अच्छा लगता है और इस में बड़ी संभावनाएँ भी लगती हैं। परन्तु देखने की बात यह है कि बहुजन को एकता में बाँधने का सूत्र क्या है। क्या यह दलितों और पिछड़ों के अछूत और शुद्र होने का सूत्र है या कुछ और? अछूत और शुद्र असंख्य जातियों में बँटे हुए हैं और वे अलग दर्जे के जाति अभिमान से ग्रस्त हैं। वे ब्राह्मणवाद (श्रेष्ठतावाद) से उतने ही ग्रस्त है जितना कि वे सवर्णों को आरोपित करते हैं। उन के अन्दर कई तीव्र अंतर्विरोध हैं। पिछड़ी जातियाँ आपने आप को दलितों से ऊँचा मानती हैं और वैसा ही व्यवहार भी करती हैं। वर्तमान में दलितों पर अधिकतर अत्याचार उच्च जातियों की बजाये पिछड़ी संपन्न (कुलक) जातियों द्वारा ही किये जा रहे हैं। अधिकतर दलित मजदूर हैं और इन नव धनाढ्य जातियों का आर्थिक हित मजदूरों से टकराता है। इसी लिए मजदूरी और बेगार को लेकर यह जातियाँ दलितों पर अत्याचार करती हैं। ऐसी स्थिति में दलितों और पिछड़ी जातियों में एकता किस आधार पर स्थापित हो सकती है? एक ओर सामाजिक दूरी है तो दूसरी ओर आर्थिक हित का टकराव। अतः दलित और पिछड़ा या अछूत और शूद्र होना मात्र एकता का सूत्र नहीं हो सकता। यदि राजनीतिक स्वार्थ को लेकर कोई एकता बनती भी है तो वह स्थायी नहीं हो सकती जैसा कि व्यवहार में भी देखा गया है।

अब अगर दलित और पिछड़ा का वर्ग विश्लेषण किया जाये तो यह पाया जाता है कि दलितों के अन्दर भी सम्पन्न और गरीब वर्ग का निर्माण हुआ है। पिछड़ों के अन्दर अगड़ा पिछड़ा वर्ग और अति पिछड़ा वर्ग का विभेद तो बहुत स्पष्ट है। पिछले कुछ समय से दलित और पिछड़े वर्ग के सम्पन्न वर्ग ने ही आर्थिक विकास का लाभ उठाया है और राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी ही प्राप्त की है। इस के विपरीत दलित और पिछड़ा वर्ग का बहुसंख्यक हिस्सा आज भी बुरी तरह से पिछड़ा हुआ है। इसी विभाजन को लेकर अति- दलित और अति -पिछड़ा वर्ग की बात उठ रही है। इस से भी स्पष्ट है कि बहुजन की अवधारणा केवल हवाई अवधारणा है। इसी प्रकार मुसलमानों के अन्दर भी अशरफ, अज्लाफ़ और अरजाल का विभाजन है जो कि पसमांदा मुहाज (पिछड़े मुसलमान) के रूप में सामने आ रहा है।

अब प्रश्न पैदा होता है इन वर्गों के अन्दर एकता का वास्तविक सूत्र क्या हो सकता है। उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों के अन्दर अगड़े पिछड़े दो वर्ग हैं जिन के अलग-अलग आर्थिक और राजनीतिक हित हैं और इन में तीखे अन्तर्विरोध तथा टकराव भी हैं। अब तक इन वर्गों का प्रभुत्वशाली तबका जाति और धर्म के नाम पर पूरी जाति/वर्ग और सम्प्रदाय का नेतृत्व करता आ रहा है और इसी तबके ने ही विकास का जो भी आर्थिक और राजनीतिक लाभ हुआ है उसे उठाया है। इस से इन के अन्दर जाति/वर्ग विभाजन और टकराव तेज हुआ है। विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ इस जाति/वर्ग विभाजन का लाभ उठाती रही हैं परन्तु किसी भी पार्टी ने न तो इन के वास्तविक मुद्दों को चिन्हित किया है और न ही इन के उत्थान के लिए कुछ किया है। हाल में भाजपा ने इन्हें हिन्दू के नाम पर इकट्ठा करके इन का वोट बटोरा है। अगर देखा जाये तो यह वर्ग सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर पिछड़ा हुआ है। इन वर्गों का वास्तविक उत्थान उन के पिछड़ेपन से जुड़े हुए मुद्दों को उठाकर और उन को हल करने की नीतियाँ बना कर ही किया जा सकता है। अतः इन की वास्तविक एकता इन मुद्दों को लेकर ही बन सकती है न कि जाति और मज़हब को लेकर। यदि आर्थिक और राजनीतिक हितों की दृष्टि से देखा जाये तो यह वर्ग प्राकृतिक दोस्त हैं क्योंकि इन की समस्यायें एक समान हैं और उन की मुक्ति का संघर्ष भी एक समान ही है। बहुजन के छाते के नीचे अति पिछड़े तबके के मुद्दे और हित दब जाते हैं।

अतः इन अति पिछड़े तबकों की मजबूत एकता स्थापित करने के लिए जाति/मज़हब पर आधारित बहुजन की कृत्रिम अवधारणा के स्थान पर इन के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पिछड़ेपन से जुड़े मुद्दे उठाये जाने चाहिए। जाति और धर्म की राजनीति हिंदुत्व को ही मज़बूत करती है। इसी ध्येय से आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीऍफ़) ने अपने एजेंडे में सामाजिक न्याय के अंतर्गत: (1) पिछड़े मुसलमानों का कोटा अन्य पिछड़े वर्ग से अलग किए जाने, धारा 341 में संशोधन कर दलित मुसलमानों व ईसाइयों को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने। सच्चर कमेटी व रंगनाथ मिश्रा कमेटी की सिफारिशों को लागू किए जाने; (2) अति पिछड़ी हिन्दू व मुस्लिम जातियों को अन्य पिछड़े वर्ग के 27% कोटे में से में से अलग आरक्षण कोटा दिए जाने; (3) पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को जल्दी से जल्दी बहाल किए जाने ; (4) एससी/एसटी के कोटे के रिक्त सरकारी पदों को विशेष अभियान चला कर भरे जाने; (5) निजी क्षेत्र में भी दलितों, आदिवासियों, अन्य पिछड़ा वर्ग व अति पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिए जाने; (6) उ0 प्र0 की कोल जैसी आदिवासी जातियों को जनजाति का दर्जा दिए जाने; (7) वनाधिकार कानून को सख्ती से लागू करने तथा (8) रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने आदि के मुद्दे शामिल किये हैं। इसके अतिरिक्त साम्प्रदायिकता पर रोक लगाने के लिए कड़ा कानून बनाकर कड़ी कार्रवाई किये जाने और आतंकवाद/ साम्प्रदायिकता के मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट द्वारा किये जाने की मांग भी उठाई है। इन तबकों को प्रतिनिधित्व देने के ध्येय से पार्टी ने अपने संविधान में दलित,पिछड़े, अल्पसंख्यक और महिलायों के लिए 75% पद आरक्षित किये हैं।आइपीएफ, बहुजन की जाति आधारित राजनीति के स्थान पर मुद्दा आधारित राजनीति को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील है जैसा कि डॉ. आंबेडकर का भी निर्देश था।

About The Author

जाने-माने दलित चिंतक व मानवाधिकार कार्यकर्ता एस. आर. दारापुरी आई. पी. एस (से.नि.) व् आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं


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