BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Sunday, February 3, 2013

उम्मीद का दीया

उम्मीद का दीया


Sunday, 03 February 2013 13:09

ओम थानवी 
जनसत्ता 3 फरवरी, 2013: जिस रोज जयपुर साहित्योत्सव (जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल) के लिए दिल्ली से निकला, कृष्णा सोबती जी ने कृपापूर्वक अपना सद्यप्रकाशित यात्रा-वृत्तांत बुद्ध का कमण्डल लद्दाख (राजकमल प्रकाशन) भिजवाया था। रंग-बिरंगे चित्रों से सुसज्जित अपूर्व कृति पर अपनी चित्रात्मक लिखावट में, सूफियाना अंदाज में उन्होंने 'प्यार से' लिखा: ''खयालों में ही खारटूलांग पर खड़े होकर ओम थानवी साहिब को...''। 
मुझ 'साहिब' ने पूरी कृतज्ञता के साथ वह कृति पढ़ने के लिए साथ रख ली। रास्ते में सोचता रहा कि जयपुर उत्सव इस दफा जब बौद्ध दर्शन पर ही केंद्रित है, तो उसमें कृष्णा जी क्यों नहीं? क्या बुलाया गया और उम्रदराजी में उन्होंने इनकार कर दिया? कृष्णा जी न सही, इस अत्यंत महत्त्वपूर्ण किताब पर चर्चा क्यों नहीं? मेले में किताबों के पंडाल में फेरा दिया तब फिर मन में सवाल कि 'लद्दाख' यहां क्यों नहीं?
पत्रकार का दिमाग खुराफात में करवट लेता है। उलटा नहीं तो वक्रता में जरूर सोचने लगता है। सवाल पैदा करने के शौक में मुख्य रास्ता छोड़ आता है- संगीत में जिसे बहलावा लेना कहते हैं; एक राग को छोड़ दूसरे में टहल आना!
पर तजुर्बा इस दौर में साथ देने लगता है। मैं जल्दी ही बहलावे से निकल आया। वैसे भी रिपोर्टिंग करने तो गया नहीं था; कविता और ग्रामीण संसार पर बोलने गया था। समझ में आता था कि कृष्णा जी का कमण्डल इस बार न सही, साक्षात दलाई लामा वहां थे। बौद्ध दर्शन पर चर्चा करने को कुनजांग छोदेन, सादिक वाहिद, चंद्रहास चौधुरी, विक्टर चान, नदीम असलम, रंजिनी ओबेसीकरी आदि भी मौजूद थे। कवयित्री और मानसरोवर यात्री गगन गिल भी। साथ में बौद्ध मंत्रोच्चार, भूटान का संगीत, तिब्बत की कलाकृतियां, किताबें। 
सब लेखक एक मेले में एक साथ तो जमा नहीं हो सकते। फिर भी कोई तीन सौ लेखक वहां पहुंचे थे। पौने दो सौ सत्र थे। एक-एक घंटे के छह सत्र अलग-अलग तंबुओं-मैदानों में एक साथ। भिन्न-भिन्न विषय। जिसमें रुचि हो, बैठ जाइए। शाम को संगीत, खान-पान। पिछले साल लेखकों और पाठकों-श्रोताओं की तादाद एक लाख बीस हजार थी। इस दफा की गिनती अभी साफ नहीं, पर अनुमान है कि पहले से ज्यादा ही रही होगी। बंदोबस्त भी पहले से चौबंद था।
आयोजक कैसे इस सब का बंदोबस्त करते होंगे, पता नहीं। लेकिन इस बात से शायद ही कोई इनकार करे कि पिछले छह वर्षों में जयपुर उत्सव वर्षारंभ में शहर की बड़ी घटना बन गया है। गेरुए शहर की चटक पहचान- जिसे अंगरेजी में गेरुए से 'पिंक' कर उलटे रास्ते वापस लाते हुए 'गुलाबी' कर दिया गया है, जबकि वह गुलाबी कभी था ही नहीं। जैसे लोग हवामहल या आमेर का प्रासाद देखने आते हैं, वैसे ही लेखक अब इस उत्सव के लिए आते हैं।
लेकिन इस 'घटना' पर मीडिया का रवैया क्या था? जैसा शुरू में मेरा दिमाग चला, अखबारों में ढेर सवाल उठे थे कि फलां लेखक मेले में क्यों नहीं थे, या फलां-फलां क्यों थे! या फलां गतिविधि का साहित्य से भला क्या संबंध बनता है। कुछ सवाल जायज भी थे। मेरे अपने सवाल की तरह। अपने लद्दाख को लेकर कृष्णा जी वहां होतीं, तो समारोह की शान बढ़ती ही न! लेकिन किसी विद्वान लेखक ने कहा है कि जो है उसकी बात करो; जो नहीं है उसकी नहीं। साहित्योत्सव को तवज्जोह देने में- हमेशा की तरह- मीडिया में कसर न थी। बड़ी संख्या में छापे के पत्रकार तो वहां थे ही, बहुत-से टीवी पत्रकार भी मौजूद थे। राजदीप सरदेसाई, संजीव श्रीवास्तव, रवीश कुमार, आशुतोष, राहुल कंवल, अनंत विजय आदि मुझे दिखाई पड़े। अनेक खुद कार्यक्रमों में शिरकत कर रहे थे। स्थानीय अखबारों में रोज पहले पन्ने का कवरेज, कहीं-कहीं तो दो-दो पन्ने लेखक मेले पर केंद्रित थे! मेरे एक जयपुरवासी मित्र ने बताया कि अखबारों में इतनी जगह हाल में आयोजित कांग्रेसी जमावड़े को भी नहीं मिली थी, जहां देश के दिग्गज नेता और केंद्र व अनेक प्रदेशों के प्रमुख सत्ताधारी मौजूद थे। 
स्थानीय अखबारों में 'लिट-फेस्ट' यानी साहित्योत्सव का कवरेज अनुपात में बहुत था, पर रचना या लेखन की समझ के नजरिए से दयनीय। अंग्रेजी अखबारों का ध्यान हिंदी गोष्ठियों पर लगभग नगण्य था। हिंदी और अंगरेजी दोनों भाषाओं के अखबारों में ग्लैमर और सनसनी की खोज की जैसे होड़ थी। शर्मिला टैगोर, शबाना आजमी, राहुल द्रविड़ या जावेद अख्तर के सामने बड़े से बड़ा साहित्यकार नहीं टिकता था। हर साल आने वाले गुलजार इस दफा नहीं आए। पर एक अखबार ने, पता नहीं कैसे, दर्शकों में उनकी उपस्थिति भी ढूंढ़ निकाली! जयपुर में हमेशा गणतंत्र दिवस पर अखबारों के दफ्तर बंद रहते हैं। पर उस रोज आशीष नंदी के विवादास्पद वक्तव्य पर बावेला मचा तो एक अखबार ने छुट्टी रद्द कर 'विशेष संस्करण' भी निकाल दिया।
मेरा खयाल है, मीडिया में जैसे राजनीति, कूटनीति, खेल और व्यापार आदि के लिए विषय की समझ रखने वाले पत्रकार लिए जाते हैं, साहित्य और बौद्धिक विमर्श के लिए इनका अध्ययन और संवेदनशील नजरिया रखने वाले पत्रकार भी होने चाहिए। ऐसा होता तो महाश्वेता देवी का उद्घाटन भाषण विवादग्रस्त न होता, क्योंकि नक्सलियों के हक में वे पहली बार नहीं बोल रही थीं। इसी तरह, आशीष नंदी प्रकरण में भी बात का बतंगड़ न बनता।
प्रो. आशीष नंदी ने अपनी टिप्पणी विनोदी स्वर में की थी। उससे पहले उन्होंने खुद ही कहा कि टिप्पणी अभद्र और अश्लील होगी। पूरे वाक्य की संरचना गंभीर सन्दर्भ के बावजूद हल्के   अंदाज में थी। यानी दुर्भाव की बू उसमें नहीं थी। इसी तरह उनकी पश्चिम बंगाल संबंधी दलील थी। हो सकता है उनकी टिप्पणी अनुचित हो। हो सकता है तथ्यहीन भी हो। पर उन्हें उसे कहने का हक नहीं था, यह बात मेरे गले नहीं उतरती। वे यह टिप्पणी करते या न करते, यह उन पर था। क्या लोकतंत्र में एक लेखक और विचारक को इतनी आजादी भी नहीं? लेकिन अपनी बात रखने के उनके अधिकार का बचाव मीडिया ने नहीं किया, इस बात पर मुझे अफसोस अनुभव होता है। जबकि मीडिया खुद अभिव्यक्ति पर कुठाराघात का शिकार कम नहीं होता। मीडिया में थोड़े लोग होंगे जिन्हें प्रो. नंदी के बौद्धिक कद और भारतीय मनीषा में उनके योगदान का पता होगा। उनकी किसी किताब का नाम लेखक सम्मेलन कवर कर रहे पत्रकारों को  पता होगा तो बड़ी बात होगी।
पर हम मीडिया को क्या दोष दें, जब खुद लेखक समुदाय अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर सजग नहीं दिखाई पड़ा। आशीष नंदी के पक्ष में एक महत्त्वपूर्ण वक्तव्य जारी हुआ, जिस पर दस्तखत करने (या सहमति जताने) वालों में शिक्षक, विचारक, इतिहासकार, कलाकार, फिल्मकार, बहुत से बुद्धिजीवी शामिल थे। पर साहित्यकार एक नहीं था! पत्रकारों की तरह लेखक भी शायद इस उधेड़बुन से अपने को उबार न पाए हों कि संकट की घड़ी में (चौतरफा हमलों के बीच कितने मुकदमे प्रो. नंदी पर चस्पां थे!) एक विवादग्रस्त बयान से असहमति रखते हुए भी अपना दायित्व समझकर उन्हें अभिव्यक्ति के हक में खड़े होना चाहिए। हां, लेखक चुप भले रहे, उन्होंने कतिपय पत्रकारों की तरह आग में घी डालने का काम नहीं किया। 
इस मामले में सबसे दिलचस्प काम जनवादी लेखक संघ ने किया। माक्सर्वादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े इस संगठन ने 26 जनवरी को ही- संभवत: टीवी का हंगामा देखकर- प्रो. नंदी के खिलाफ कड़ा बयान जारी कर दिया। बयान में नंदी की 'भर्त्सना' करते हुए उनके सोच को 'अवैज्ञानिक', 'मनुवादी' और 'बौद्धिक दिवालिएपन' का सबूत कहा गया। इतना ही नहीं, बयान में यह भी कहा गया कि ''नंदी का बयान लेखकीय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग है''। 
मजेदार मोड़ यह रहा कि जब जयपुर में कांचा इलैया और दिल्ली में रोमिला थापर, चंद्रभान प्रसाद, आलोक राय आदि ने नंदी का पक्ष लिया तो दो रोज बाद जनवादी लेखक संघ ने भी एक नया बयान जारी कर ''अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता'' का पक्ष ले लिया और नंदी के ''स्पष्टीकरण की सराहना'' करने का बड़प्पन दिखाया! लेकिन कोलकाता में सलमान रुश्दी के साथ हुए सलूक पर लेखक संघ फिर भी नहीं बोला। जबकि अब तो बंगाल में मार्क्सवादी सरकार भी नहीं! दरअसल लेखक संगठन भी- राजनीतिक दलों की तरह- सामुदायिक तुष्टीकरण का कम खयाल नहीं करते। 
जयपुर से दिल्ली लौटने पर कुछ लेखकों से भेंट हुई। कुछ 'तटस्थ' थे, कुछ महज जिज्ञासु कि 'वास्तव में हुआ क्या था'! राजेंद्र यादव खाने पर साथ थे। मगर इस मुद्दे पर मौन। केदारनाथ सिंह ने जरूर नंदी की तरफदारी की। 

इस मामले में सबसे हैरान लंदनवासी कथाकार और लेबर पार्टी की नेता जकीया जुबैरी मिलीं। वे इन दिनों दिल्ली में हैं। उनका सवाल था कि आपका लोकतंत्र कहां गया? एक बड़ा लेखक और विचारक क्या बोले, क्या यह भी पुलिस और अदालतें तय करेंगी? 
लेखक और पत्रकार अक्सर वाल्तेयर की इस उक्ति को याद किया करते हैं कि भले मैं आपकी बात से सहमत न होऊं, पर उसे कहने के आपके अधिकार का आखिरी सांस तक पक्ष लूंगा। काश! जरूरत के वक्त हम वाल्तेयर को भुलाने के आदी न होते। 
ब वापस कुछ साहित्योत्सव की बात। 
अंगरेजी और हिंदी में यह भेद है कि अंगरेजी में कोई भी लेखक- चेतन भगत से ओरहान पामुक तक- साहित्योत्सव में शरीक कर लिया जा सकता है। कथेतर भी। हिंदी में साहित्य की शर्तों का खयाल रखने की कोशिश रहती है। यही वजह है कि जयपुर में कवि-कथाकार-आलोचक तो मिलते ही हैं, फिल्मकार, गीतकार, चित्रकार, मूर्तिकार, समाजविज्ञानी, इतिहासकार, पुरातत्त्वी, वास्तुकार, पत्रकार, खिलाड़ी आदि भी मिलते हैं। यानी जिनका लेखन से किसी तरह का वास्ता हो। वहां श्रोताओं के हुजूम की फितरत भी निराली होती है। कोई एक तबका नहीं। फैशनपरस्त युवा मिलते हैं तो साधारण-सहज विद्यार्थी भी, अमीर और गरीब, जमीनी और अभिजात, नकचढ़े और शालीन, वाचाल और मौन, हिंदी-अंगरेजी और भाषाई, वामपंथी, दक्षिणपंथी, मध्यमार्गी, हाशियापंथी- हर रंग के श्रोताओं की उपस्थिति लेखकों को रिझाती है और उनकी परीक्षा भी लेती है! 
इसीलिए मैं इसे लेखक मेला कहना बेहतर समझता हूं। लेखक-पाठक मेला। मेला इसलिए कि उसमें मेले की रंगीनी, रौनक, कौतुक और चुहल अर्थात मौज-मस्ती भी भरपूर होती है। वरना साहित्य समारोहों की गोष्ठियां सत्र-दर-सत्र अक्सर अकादमिक बोझिलता की भेंट चढ़ जाया करती हैं। खासकर पत्र-वाचनों के कारण। जयपुर समारोह में किसी सत्र में लिखित परचे नहीं पढ़े जाते। विषय पर मौखिक उद्बोधन, आपस में चर्चा और फिर श्रोताओं के साथ सीधा संवाद। 
मुश्किल यह पेश आती है कि आप कब, कहां, कितना सुनें! छह समांतर सत्रों के सामने आपकी रुचियां आपस में टकराती हैं! मसलन पहले रोज (24 जनवरी) कार्यक्रमों की लंबी सूची देख तय किया कि ह्यसुनील दा (गंगोपाध्याय) की याद मेंह्ण गोष्ठी सुनूंगा, 'द आर्ट आॅफ शॉर्ट स्टोरी' और हिंदी गोष्ठी 'अधूरा आदमी, अधुना नारी' चाहकर भी नहीं सुन पाऊंगा। तीनों का समय एक ही था! इसी   तरह 'द ग्लोबल शेक्सपियर' छोड़कर 'भाषा और भ्रष्टाचार' नामक हिंदी चर्चा में जा बैठा, जहां क्षमा शर्मा के साथ अनामिका, अजय नावरिया और गौरव सोलंकी वार्तामग्न थे। अनामिका भाषा और संवेदना के अनुशासन पर सलीके से बोलीं, पर अजय नावरिया भटक गए। एक वक्त तो वे मांसाहार के पक्ष में बोलते हुए घास-पत्ती में जीव वाली दलील पर उतर आए। मुझे खयाल आया कि पाकिस्तान के अंगरेजी लेखक मोहम्मद हनीफ ने नावरिया को दूसरा प्रेमचंद बताया है! मैंने अजय का गद्य नहीं पढ़ा। फिर भी मैं उनसे भाषा पर बेहतर विमर्श की आस लगाए था। न चाहते हुए भी उठकर बगल के 'मुगल तम्बू' में शेक्सपियर की शरण में चला गया।
यह प्रसंग समारोह के एक पहलू की झलक दिखाने भर के लिए। ऐसी जद्दोजहद और आवाजाही का अपना सुख और अपना कष्ट होता है। और यह शिरकत करने वाले हर संभागी श्रोता को हासिल हुआ होगा! 
कुछ इसी तरह गणतंत्र दिवस के रोज का मोहभंग। सुबह आशीष नंदी के बयान के बाद संगोष्ठी स्थल डिग्गी पैलेस के बाहर- और भीतर भी- विरोध जताने वाले सक्रिय हो गए थे। काफी वक्त आपसी चर्चा और चाय-पान में गया। दोपहर एक सत्र था- 'आओ गांव चलें'। असल में यह पद राजस्थान पत्रिका के संस्थापक-संपादक कर्पूरचंद कुलिश- जो कवि भी थे- की देन था। गांवों से उन्हें मोह था। उन्होंने प्रदेश के हर गांव की कहानी लिखवाने का अभियान शुरू किया। स्व. बिशनसिंह शेखावत ने जयपुर क्षेत्र के सैकड़ों गांव पैदल छाने होंगे। बीकानेर जिले के अनेक गांवों में मैं भी गया।
बहरहाल, गांव की याद दिलाने वाली हमारी चर्चा शहरी मनोभावों में उलझ कर रह गई। नीलेश मिश्र गांवों के आधुनिक झुकाव पर मुग्ध थे। मेरा कहना था कि गांव को पर्यटक की तरह देखने की दरकार नहीं है। गांव एक मूल्य है, जिसकी सादगी, सचाई, साफगोई, खान-पान हम जहां जाते हैं साथ ले आ सकते हैं। चर्चा का संयोजन दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने किया। लक्ष्मी शर्मा और ईशमधु तलवार भी साथ थे। 
शाम को नई कहानी पर चर्चा थी। निरुपमा दत्त के संयोजन में दुष्यंत, क्षमा शर्मा, मालचंद तिवाड़ी और पाकिस्तान की फहमीदा रियाज। फहमीदा ऊंचे दरजे की कवयित्री हैं। जिया उल- हक के जमाने में वे कई बरस महेंद्र कुमार मिश्र के घर दिल्ली में रहीं। उस दौरान अंगरेजी में लिखी एक दास्तान उन्होंने सुनाई, जो उनके अनुसार सच्ची कथा थी। यानी संस्मरण। और उसके नायक थे पुलिसिया लेखक विभूतिनारायण राय! श्रोता ही नहीं, निरुपमा दत्त भी राय पर इतना लंबा पाठ सुनकर असहज जान पड़ीं। दुष्यंत की छोटी कहानी ज्यादा पसंद की गई। क्षमा शर्मा और मालचंद तिवाड़ी ने कहानी पर सिर्फ बात की। प्रश्नोत्तर में फहमीदा मुखर रहीं। उठते-उठते उन्होंने श्रोताओं की मांग पर अपनी कविता 'तुम भी हम जैसे निकले' भी सुनाई। 
समारोह में और पाकिस्तानी लेखकों ने भी शिरकत की। सीमा पर मंडराए तनाव के बावजूद पाकिस्तान के लेखकों के प्रति श्रोताओं में सम्मान का भाव जयपुर की उदार और सहिष्णु परंपरा के प्रति आश्वस्त करता था। हालांकि जब-तब छुटभैये कट्टर संगठन भी सिर उठाते रहे हैं, पर उनसे मोर्चा लेने की इच्छाशक्ति राज्य को दिखानी होगी। वरना बात-बेबात बात-बतंगड़का सामान तो हर सम्मेलन में निकल आएगा। 
जैसा पहले कहा, मेले की रिपोर्टिंग मेरा प्रयोजन नहीं है। इस संक्षिप्त ब्योरे से आप बस वहां की विविधता का अंदाजा लगा सकते हैं। हां, दो-तीन सत्रों का जिक्र और करना चाहूंगा। एक सत्र बौद्ध मत और दलित बोध पर केंद्रित था, जिसमें कांचा इलैया बहुत अच्छा बोले। उनका कहना था यह चरम हताशा की धारणा है कि भारत में जातिवाद और ऊंच-नीच कभी खत्म नहीं हो सकते, मैं उम्मीद का दीया हमेशा जलाए रखता हूं। 
महाश्वेता देवी पर एक छोटी फिल्म के बाद उनसे दिलचस्प सवाल-जवाब थे। उनसे पूछा गया कि क्या आप अब भी अपने को मार्क्सवादी लेखिका समझती हैं? वे बोलीं, यह तो पढ़ने वाले की आंख पर निर्भर है कि वह मुझे कैसे देखता है। नंद भारद्वाज के संयोजन में राजस्थानी सत्र 'निर्वाली पिछाण' जानदार था। अफगानिस्तान के भविष्य, संस्कृत की सनातनता, भविष्य का उपन्यास, लेखक और सत्ता, रवींद्रनाथ और स्त्रियां, कुंभ मेला, कलाकार की आंख, शाह अब्दुल लतीफ, गांधी बनाम गांधी, जातक पाठ, कश्मीर और पलायन भी महत्त्वपूर्ण सत्र थे। दो हिंदी सत्र विचारोत्तेजक रहे- स्त्री होकर सवाल करती हो और पिक्चर अभी बाकी है। भानु भारती का एकल सत्र था: मैं रंगकर्म क्यों करता हूं। वे अच्छा बोले। पर अंगरेजी में, हालांकि रंगकर्म हिंदी में करते हैं। एक सत्र में अशोक वाजपेयी और मैंने मुकुंद लाठ की कविताओं पर कवि से बात की।
दो और सत्र भाषा पर केंद्रित थे। दोनों का जीवंत संयोजन मेरे मित्र रवीश कुमार ने किया। मैथिली पर केंद्रित: 'एक भाषा हुआ करती है'। दूसरा: 'अंगरेजी-हिंदी भाई-भाई'। पहले में ताराचंद वियोगी और विभा रानी ने समां बांधा। दूसरी चर्चा में अशोक वाजपेयी छाए रहे। भालचंद्र नेमाड़े और इरा पांडे ने भी काम की बातें कहीं। नेमाड़े की यही बात मुझे नहीं जमी कि दो भाषाएं सीखना (बाइलिंगुअल होना) अच्छा काम नहीं, एक काफी होगी! 
उत्सव में कई किताबों का लोकार्पण हुआ। सबसे महत्त्वपूर्ण लगा प्रभा खेतान की आत्मकथा अन्या से अनन्या के अनुवाद का आयोजन। अनुवाद इरा पांडे ने किया है। कमला दास की आत्मकथा की अंगरेजी में बहुत चर्चा होती रही है। पर दो आत्मकथाएं- प्रभा खेतान और   अजीत कौर की लिखी हुर्इं- मेरी समझ में उस पर बहुत भारी पड़ेंगी। अकेली स्त्री का साहस और अदम्य जिजीविषा उनमें आपको कदम-कदम पर मिलेगी। उर्वशी बुटालिया ने 'जुबान' के जरिए हिंदी कृति का दायरा बढ़ाया है; मन में उनके प्रति कृतज्ञता जागी।

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