BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Sunday, August 12, 2012

रंगभेदी नस्ली भेदभाव की वजह से ही आज भारतवर्ष गृहयुद्ध का शिकार!

रंगभेदी नस्ली भेदभाव की वजह से ही आज भारतवर्ष गृहयुद्ध का शिकार!

पलाश विश्वास
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भारत में जाति व्यवस्था रंगभेद का वीभत्सतम स्वरुप है।इस जाति व्यवस्था के पीछे नस्ली वर्चस्व की लंबी लड़ाई का इतिहास है, जिसे न बारत सरकार और न वर्चस्ववादी अकादमिक तंत्र मानने को तैयार है। पर हकीकत यह है कि रंगभेदी नस्ली बेदभाव की वजह से ही आज भारतवर्ष गृहयुद्ध का शिकार है।दक्षिण अफ्रीका में नेशनल पार्टी की सरकार द्वारा सन् १९४८ में विधान बनाकर काले और गोरों लोगों को अलग निवास करने की प्रणाली लागू की गयी थी। इसे ही रंगभेद नीति या अपार्थीड (Apartheid) कहते हैं। अफ्रीका की भाषा में "अपार्थीड" का शाब्दिक अर्थ है - अलगाव या पृथकता । यह नीति सन् १९९४ में समाप्त कर दी गयी। इसके विरुद्ध नेल्सन मान्डेला ने बहुत संघर्ष किया जिसके लिये उन्हें लम्बे समय तक जेल में रखा गया।

जाति व्यवस्था और वर्चस्ववाद पर लगातार बहस होती रही है, लेकिन इस तुलना में रंगभेदी नस्ली भेदभाव पर हमारे लोग बात करने को ही​​ तैया​र नहीं है, यह कठोर वास्तव है। कश्मीर से लेकर पूर्वोतत्र बारत, संपूर्ण हिमालय और मध्यबारत, यहां तक कि दक्षिणी भारत से बाकी देश के अलगाव के पीछे यही रंगभेदी नस्ली भेदभाव है। देश की ९३ फीसद जनता के एक ही नस्ल के होने के बावजूद जाति और धर्म के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन में मुक्य बहचान बन जाने से इस रंगभेद के शिकार लोगों तक को यह अहसास नहीं है।अनार्य निग्रोइड नस्ल के गुजरात व देश के बाकी हिस्से के आदिवासियों के हिंदुत्व के पताका वाहक पैदल बन जाने का रहस्य यही है। वहीं असम में मंगोलाइड नस्ल के बोडो आदिवासियों और मंगोलाइड नस्ल के ही उग्र अहमिया राष्ट्रवाद के झंडेवरदार अल्फा समर्थक हिंदू राष्ट्रवाद के धारक वाहक बनकर पूरे देश में सांप्रदायिक ध्रूवीकरण के संघ परिवार के​ ​ एजंडा  को क्रियान्वित करने की प्रक्रिया में मुख्य कारक बनते नजर आ रहे हैं।हिमालय क्षेत्र में कश्मीर या पूर्वोत्तर या फिर गोरखालैंड की तरह विशेष सैन्य अधिकार कानून या दमन के दायरे में न होकर भी सिक्किम, उत्तराखंड और हिमाचल की बदहाली और संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध लूट खसोट और प्रकृति से अनवरत बलात्कार, प्राकृतिक तबाही, पर्यावरण के सत्यानाश के पीछे भी रंगभेदी नस्ली पहचान है। सवर्ण हो या असवर्ण पहाड़ी मैदान में उतरते ही बतौर पहाड़ी अलहदा पहचान लिए जाते हैं और पहाड़ में भी उनके प्रति वहीं उपेक्षापूर्ण बर्ताव। पर हिमाचल और उत्तराखंद उग्र हिंदुत्व की चपेट में है। इसीतरह बांग्लाभाषी होने के बावजूद महज नस्ली भेदभाव की वजह से त्रिपुरा न सिर्फ बाकी देश के लिए बल्कि बांग्ला राष्ट्रवाद के धारक वाहक पश्चिम बंगाल के लिए भी अछूत है।

पूर्वोत्तर के किसी भी भारतीय को बाकी भारतीय भारतीय मानने को ही तैयार नहीं है। मणिपुर की लड़ाई के प्रति हम इसीलिए असंवेदनशील है क्योंकि बारह साल से आमरण अनशन कर रही इरोम शर्मिला और सैनिक दमन के विरुद्ध जवानों को बलात्कार के लिए ललकारती मणिपुरी माताएं हमें अपने घर की मां, बहन और बेटी नजर नहीं आतीं।मुजफ्फनगर में बरसों पहले सामूहिक बतात्कार की शिकार प्रदर्शनकारी महिलाओं को आज भी न्याय नहीं मिलने के पीछे यही नस्ली रंगभेद है, जिसे उत्तराखंड अपने हिंदुत्व के पहचान की वजह से महसूस ही नहीं करता।मनुस्मृति वयवस्था के मुताबिक सवर्म समझे जाने वाले कायस्थ समेत तमाम ओबीसी जातियां शूद्र हैं और नस्ली तौर पर अनुसूचित जातियों और जनजातियों के हमगोत्र हैं, पर भारत में हिंदुत्व की राजनीति, धर्म का पाखंड और सिविल सोसाइटी का जिहाद ओबीसी के दम पर चलता है, क्योंकि संख्या में वे सबसे ज्यादा हैं, पर उनकी न गिनती होती है और न पहचान। हिमाचल और उत्तराखंड में अगर ओबीसी की गिनती हो जाये और ओबीसी खुलकर अपनी पहचान बतायें, तो हिमालय की आधी समस्याएं दूर हो जायें। सवर्ण होने की गलतफहमी में नस्ली रंगभेद के साये में जीने को आदी हिमाचली और उत्तराखंडी आम जनता अपनी तबाही के खिलाफ आवाज तक बुलंद नहीं कर पाते। देवभूमि के भूमिपुत्र होने की हैसियत से वे बाढ़, भूस्खलन, बूकंप को देवता का आशीर्वाद मान लेते हैं और सामाजिक अन्याय के शिकार होने पर देवताओं से ही नयाय की उम्मीद में जीते हैं।नैनी झील ही नहीं, तमाम झीलें, जलाशय, झरने और नदियां मरणासण्ण हैं जिस बहिष्कार और अलगाव की अर्थ वयवस्था में, वह बुनियादी तौर ​​पर धर्म की ही अर्थ व्यवस्था है, जिसका राजनीतिक कायाकलप हिंदू राष्ट्रवाद है। न कुमायूंनी, न गढवाली और न उत्तराखंडी, न ही हिमाचली पहचान का हिंदुत्व से दीगर कोई पहचान है। इसलिए प्रतिरोध भी असंभव है।भारत का पूर्वोत्तर सर्वाधिक दहकता हुआ क्षेत्र है। करीब 250 प्रजातियां अपने पहचान की लड़ाई में एक-दूसरे के साथ-साथ नई दिल्ली के साथ भिड़ी हुई हैं।

इस सिलसिले में मणिपुर की महिला मुक्केबाज मेरी कोम के ओलंपिक कांस्य पदक जीतने के बाद भारतीय फुटबाल खिलाड़ी बाईचुंग भूटिया की प्रतिक्रिया गोरतलब है।51 किलो कैटिगरी सेमीफाइनल में उतरने वाली मेरी कोम से भी उम्मीद की जा रही थी कि वह अपने मेडल का रंग बदलने में कामयाब रहेंगी। लेकिन ग्रेट ब्रिटेन की बॉक्सर के हाथों मिली हार के बाद अब उन्हें ब्रॉन्ज से संतोष करना पड़ा।लंदन ओलंपिक में भी भले ही मेरी को कांसे से संतोष करना पड़ा लेकिन उन्होंने इतिहास तो रच ही दिया। पहली बार भारत की किसी महिला मुक्केबाज ने ओलंपिक में पदक जीता है। भूटिया नस्ली तौर पर भूटिया जनजाति परिवार से हैं और सिक्किम के निवासी हैं।भारतीय फुटबॉल का यह सितारा कोई और नहीं बल्कि बाईचुंग भूटिया हैं। इंग्लिश फुटबॉल जगत में जो स्थान डेविड बैकहम और रुनी, फ्रांस में जिनेदिन जिदान, पुर्तगाल में क्रिस्टियानो रोनाल्डो व ब्राजील के रोनाल्डो का है वही स्थान भारतीय फुटबॉल में भूटिया का है। सिक्किम के इस हीरे को निखारने में अहम योगदान कोच थुपडेन रबग्याल का रहा है। इन्हीं के देखरेख में भूटिया का खेल दिनों दिन निखरता गया। भूटिया के खेलने का यह आलम था कि उन्हें मात्र 11 वर्ष की उम्र में ही ताशी नंग्याल अकादमी (गंगटोक) की ओर से फुटबॉल की साई स्कॉलरशिप मिल गई। उन्होंने कहा कि मेरीकाम की जीत से भारत में मंगोलाइड ​​नस्ल के पूर्वोत्तर के लोगों को भारतीय होने की पहचान मिली है, जिन्हें भारतीय माना ही नहीं जाता। अगर भूटिया जैसे आइकन को अपनी भारतीय नागरिकता साबित करने में दिक्कत होती है, तो समझिये कि मध्य भारत के माओवादी करार दिये गये आदिवासी,जिनके ज्यादातर गांव राजस्व गांव बतौर​ ​ रिकार्ड नहीं हैं और जिन्हें नागरिकता, नागरिक और मानव अधिकारों से वंचित करके इस गणतंत्र में कोई जगह न देकर संयुक्त राष्ट्र मूलनिवासी इंडिजीनस चार्टर और भारतीय संविधान के ही पांचवीं और छठीं अनुसूची का उल्लंघन करते हुए बाकायदा अनुसूचित जनजाति क्षेत्र में जल जंगल और ​​जमीन  से बेदखल करने के लिए कारपोरेट इंडिया,बहुराषट्रीय कंपनिया , भारत सरकार और कारपोरेय साम्राज्यवाद के संयुक्त उपक्रम बतौर भिन्न भिन्न नाम से सलवाजुड़ुम से लेकर सैन्य अभियान चल रहा है, वे अपने को भारतीय कैसे साबित कर सकते हैं या बाकी देश का समर्थन अपने हक हकूक और वजूद के लिए हासिल कर सकते हैं?उत्तराखंड, हिमाचल और सिक्किम के लोग सीधे सैनिक शासन के अंतर्गत नहीं हैं और न ही वे कश्मीर या पूर्वोत्तर की तरह विशेष सैन्य अधिकार कानून के शासन में हैं। न वहां बिना वारंट तलाशी या गिरफ्तारी होती है और न सेना को वहां शक होते ही गोली मार देने के आदेश हैं।पर बतौर अर्थ​ ​ वयवस्था, पर्यावरण विनाश, बिल्डर प्रोमोटर राज, आजीविका के अवसर और प्राकृतिक आपदाओं के मामलों में शेष हिमालय और मध्य भारत से क्या बिन्न स्थिति है वहां?

लंदन ओलंपिक में बॉक्सिंग के सेमीफाइनल में जगह बनाने अकेली भारत मुक्केबाजी मेरी कोम आखिरकार हार गईं। मेरी ने कहा, "माफ कर दीजिए, मैं स्वर्ण या रजत पदक न जीत सकी, लेकिन मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया।"

पांच बार वर्ल्ड चैंपियन रह चुकी भारतीय मुक्केबाज मेरी कोम को ब्रिटेन की 29 साल की निकोला एडम्स ने 6-11 से हराया। हार के साथ ही 29 साल की मेरी को कांस्य पदक से संतोष करना पड़ा। यह उन्हें नागवार गुजरा। भावुक मेरी ने कहा, "मेरा पूरा देश मुझसे स्वर्ण पदक की उम्मीद कर रहा था. मुझे माफ कर दीजिए मैं इसके साथ वापस नहीं आ पाई।"

आगे मेरी ने कहा, "मैं स्वर्ण या रजत पदक न जीत सकी, लेकिन मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया. यह यह कठिन यात्रा रही। मैं अपने परिवार और मित्रों के सहारे यहां तक पहुंची। आज की हार के बावजूद मैं इस खेल को जारी रखना चाहती हूं. मैं अपने प्रदर्शन से संतुष्ट हूं।"

भारत की चैंपियन बॉक्सर ने युवा ब्रिटिश मुक्केबाज की भी तारीफ की. मेरी ने कहा, "वह पहले और दूसरे राउंड में बेहतर थीं।"

लंदन ओलंपिक में मेरी कोम की राह शुरू से आसान नहीं थी।ओलंपिक खेलों में पहली बार महिला मुक्केबाजी को शामिल किया गया। लेकिन इसमें वह श्रेणी नहीं थी जिसमें मेरी कोम लड़ती हैं। लंदन ओलंपिक से पहले मेरी 48 किलोग्राम वर्ग में बॉक्सिंग करती आई हैं। इसी में उन्होंने कई वर्ल्ड चैंपियनशिप जीती हैं।

लेकिन लंदन ओलंपिक में 48 किलोग्राम की श्रेणी नहीं थी। यहां मेरी को 51 किलोग्राम श्रेणी में उतरना पड़ा। फ्लाईवेट श्रेणी में नई होने के बावजूद मेरी का सेमीफाइनल तक पहुंचना भी बड़ी कामयाबी है। सेमीफाइनल में ब्रिटेन की निकोला एडम्स को मनोवैज्ञानिक बढ़त भी थी। पांच फुट पांच इंच लंबी निकोला के सामने मेरी का पांच फुट दो इंच कद कम पड़ा।लंबा कद होने की वजह से निकोला के मुक्के का दायरा भी बड़ा था। इसका सीधा मतलब है कि निकोला ज्यादा दूर से मेरी को पंच मारने में सक्षम थीं। वहीं मेरी को मुक्का मारने के लिए ज्यादा करीब जाना पड़ रहा था, जिसकी वजह से उन्हें निकोला के हमलों का शिकार होना पड़ा।

निकोला को घरेलू माहौल का भी फायदा मिला। दर्शक दीर्घा में खुद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन निकोला की हौंसला अफजाई के लिए बैठे थे।
बहरहाल इस हार के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि मेरी का दौर खत्म हो गया है।

मणिपुर की मेरी 2002 से अंतरराष्ट्रीय महिला मुक्केबाजी का सबसे बड़ा नाम हैं। जुड़वा बच्चों को जन्म देने और दो साल की छुट्टी के बाद भी कयास लगाए जा रहे थे कि मेरी के मुक्के में अब वो दम नहीं रहा। लेकिन 2008 में मेरी बॉक्सिंग रिंग में वापस उतरीं और लगातार चार वर्ल्ड चैंपियनशिप जीत लीं।



दक्षिण भारत के बारे में हम कितना जानते हैं, इसीसे बाकी भारत से उसका अलगाव साफ हो जाता है। इस अलगाव, जिसके शिकार आदिवासी, हिमालयी लोग, पूर्वोत्तर के मंगोलाइड जनसूह, भारत भर में बिखरे हुए धार्मिक अल्पसंख्यक, शरणार्थी, बस्तीवासी और बंजारा समुदाय हैं, के पीछे इस नस्ली रंगभेदी भेदभाव का सबसे बड़ा हाथ है। जिसके कारण न भूमि सुधार लागू होता है और न ही वनाधिकार कानून, न पांचवी अनुसूची लागू होती है और ​​छठीं अनुसूची। सेज और भारत से निकालो अभियान साथ साथ चालू है। न अभयारण्य में अभय है और न समुद्र तट सुरक्षित। ऱाजमार्ग हैं , पर न उस पर चल सकते हैं और न उसके आर पार जा सकते हैं। ऊर्जा प्रदेश बनाया  जाता है पर पहाड़ अंधेरे में ही। विशाल बांध बनाकर  बांध दी जाती ही अनबंधीं नदियां और डूब में शामिल हो जाती हैं आबादी, परियोजनाएं बनती है विस्थापन के सहारे , पर न पुनर्वास मिलता  है न रोजगार। इस्पात कारखानों से​​ लेकर डीवीसी से लेकर नर्मदा टिहरी बांध, परमाणु संयंत्र, इंडस्ट्रीयल कारीडोर, सिडकुल तक यही हरिकथा अनंत हैं। इन सारे कारपोरेट ​​उपक्रमों के पीछे नियमागिरि पहाड़, नर्मदा घाटी,कांधला,  टिहरी, कुड़नकुलम मार्का नस्ली रंगभेद है, जिन्हें विशिष्ट इलाकों और विशिष्ट ​​जनसमूहों के खिलाफ ही आजमाया जाता है ताकि सैन्य कार्रवाई की हात में बाकी देश उनहें अलगाववादी , उग्रवादी और माओवादी मान लें।नागरिकता संशोधन कानून और गैरकानूनी आधारकार्ड योजना का मकसद भी यही है। खनन अधिनियम, प्रयावरण अधिनियम और भूमि अधिग्रहण कानून भी इस नस्ली रंगभेद तंत्र को मजबूत करने के मकसद से हैं।सामाजिक क्षेत्र की योजनाएं तो बाजार में नकदी बढाने के सकसद से बाजार के विस्तार की रणनीति के तहत है, अलगाव क्म करने के लिए नहीं। नोमनी असम ​​बोडो इलाके  की कहानी भी यही है। हिंसा के पीछे बोडो सवशासित परिषद को भंग करने की राजनीति है न कि बोडो मुस्लिम विवाद। हिंसा भड़काने वाले लोग न बोडो हैं, न हिंदू और मुसलमान। प्रत्य़क्षदर्शी और भुक्तभोगी चीख चीखकर कह रहे हैं, पर नस्ली भेदभाव को जायज ठहराने के लिए देशभर में सांप्रदायिक ध्रूवीकरण का खेल चालू है।​

भाजपा ने असम हिंसा के मद्देनजर अब बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे को लेकर ताल ठोक दी है। इस मुद्दे को संसद में उठाने के बाद पार्टी अब सड़कों पर भी ले जाने की कोशिश में है। पूर्वोत्तर के अलावा हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड में भी बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ भाजपा ने लंबे अर्से बाद फिर से मोर्चा खोल दिया है।मालूम हो कि २००१ में उतत्राकंड की पहली भाजपा  सरकार ने उत्तराखंड में १०५२ से बसाये गये विभाजनपीड़ित अछूत बंगाली शरणार्थियों, जिन्होंने बाबा साहेब अंबेडकर पूर्वी बंगाल से चुनकर संविदान सबा में बाजे था,को भारतीय नागरिक मानेन से इंकार कर दया ता और उनहें स्थाई निवास परमाम पत्र जारी करने पर रोक लगा थी। तब से संघ परिवार का उत्तराखंडी बंगालियों के खिलाफ देश निकालो अभियान जारी है, जो पिछले दिनों सितारगंज से बंगाली भाजपाई विधायक किरण मंडल के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए सीट खाली करने के बाद फिर घृणा अभियान में बदल गयी है। असम के बहाने भाजपा अब फिर एक बार हरकत में आयी है। भाजपा ने २००३ में नागरिकता संशोधन विधेयक पेश करके शरणार्थियों के खिलाफ राष्ट्रव्यापी देश निकाला अभियान चालू किया हुआ है। भाजपा सिर्फ मुसलमानों को नहीं, बल्कि विभाजन पीड़ित हिंदू बंगाली शरणार्थियो को भी बांग्लादेशी घुसपैठिया बता रही है, जिन्हें विभाजन के बाद देशभर में पुनर्वास दिया गया है, ज्यादातर आदिवासी बहुल वनक्षेत्रों में , जहां अकूत प्रकृतिक संपत्ति है। इसीलिए आदिवासियों की तरह हिंदू बंगाली शरणार्थी भी नस्ली भेदभाव के शिकार हैं और संघ परिवार के हिंदू राष्ट्रवाद के निशाने पर हैं।

हिमाचल प्रदेश में नवंबर में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर वहां भी इस मुद्दे के तूल पकड़ने की संभावना है। हिमाचल के तीन जिलों में काफी बंगाली बस चुके हैं। उत्तराखंड में बदरीनाथ धाम तक बंगाली पहुंच चुके हैं और चमोली जिले में इसके खिलाफ लोग आक्रोश भी जताने लगे हैं। भाजपा महासचिव जेपी नड्डा ने कहा है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों का मामला अब असम या दिल्ली तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि यह हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड तक पहुंच चुका है।

बहरहाल, बांग्लादेशियों घुसपैठियों के मामले में केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए भाजपा ने यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी से असम संधि को लेकर उनकी राय पूछी है। भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष को देशवासियों को बताना चाहिए कि वर्ष 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने असम को लेकर जो संधि की थी, कांग्रेस सरकार उस पर कब अमल करेगी। इसमें घुसपैठियों को बाहर निकालने की बात थी।उन्होंने कहा कि क्या सोनिया गांधी अब यूपीए सरकार को उस पर अमल करने को कहेंगी। भाजपा के तेवरों से साफ है कि अब वह इस मुद्दे को पूरे देश में उठाकर यूपीए सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करेगी। लोकसभा के बाद अब राज्यसभा में भी इस मुद्दे पर चर्चा हो चुकी है। इसके बाद भाजपा अब विभिन्न मंचों पर इस मामले को हवा देती रहेगी। पूर्वोत्तर में लंबे समय से अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश में जुटी भाजपा को असम की ताजा घटना ने एक मौका दे दिया है।
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​आपको मारियन जोंस की याद है? वह ओलंपिक स्वर्ण जीतने वाली फर्राटा रानी गजदंत मुस्कान वाली काली लड़की!कभी मैंने उसपर और ओसंपिक में दौड़ने वाली अपनी पीटी उषा समेत तमाम काली लड़कियों पर एक लंबी कविता लिखी थी। जो छप नहीं सकी। इसी दरम्यान मेरे पत्र पत्रिकाओं और कविता से ही नाता टूट गया। अगर कभी वह कविता फिर हाथ लग जाये, तो अपने नेट बंधुओं से शेयर करूंगा। ​​एथेलेटिक्स में अपने अश्वेत  खिलाड़ियों  के दम पर ही अमेरिका ओलंपिक में  मंगोलाइड चीन को पछाड़ पायी। हर देश में अश्वेत खिलाड़ियों का महती योगदान हैं और पश्चिम की रंगभेदी दुनिया में उन्हें बतौर नागरिक सामाजिक न्याय कमोबेश हासिल है। रंगभेद के जनक इंग्लैंड आज नस्लभेद से ऊपर मिश्र संस्कृतिवाला देश है, बायल के शानदार ओलंपिक उद्गाटन  समारोह में इसी वास्तव का चरमोत्कर्ष अभिव्यक्त हुआ है ष अमेरिका में रंगभेद के नाम पर बाकायदा गृहयुद्ध हुआ। मारे गये अब्राहम लिंकन और मार्टिन लूथर किंग। दक्षिण अप्रीका में श्वेत वर्चस्व खत्म। पर रंगभेद के विरुद्ध भारत का जो स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ, उसका यह हश्र!

इस सिलसिले में समर का लिखा यह मंतव्य पढ़ना जरूरी है (जातीय भेदभाव भी तो नस्लवाद है,http://raviwar.com/news/687_caste-system-and-racism-samar.shtml) :

जातिवादी भेदभाव के खिलाफ संघर्ष में अभी हाल में मिली एक महत्वपूर्ण विजय में ब्रिटेन जातीय पूर्वाग्रहों को नस्ली भेदभाव का हिस्सा मानने वाला पहला देश बन गया है. ब्रिटेन की संसद के उपरी सदन हॉउस ऑफ़ लॉर्ड्स द्वारा सरकार को जाति को नस्ल के एक पहलू के रूप में स्वीकार करने की अनुमति देने वाले समानता विधेयक को मार्च 2010 में ही पारित कर देने के बाद इस विधेयक के कानून बनने में अब सिर्फ एक सीढ़ी बची है कि यह संसद के निचले सदन हॉउस ऑफ़ कॉमंस द्वारा पारित कर दिया जाय.


भारत सरकार और ब्रिटेन में बसे दक्षिणपंथी हिन्दू समूहों द्वारा इंग्लैण्ड सरकार को इस बिल को कानून ना बनाने के लिए डाले गए दबाव की रोशनी में विभेदकारी जातीय सरंचना के खिलाफ दलित समूहों द्वारा नागरिक समाज संगठनों के साथ लगातार लड़कर हासिल की गयी यह विजय बहुत महत्वपूर्ण है. इसलिए भी क्योंकि यह विजय संयुक्त राष्ट्र संघ के नस्ली, नस्लीय भेदभाव, के खिलाफ डरबन सम्मलेन, जहाँ दलित समूहों और अंतर्राष्ट्रीय समतावादी समूहों के गौरवशाली संघर्ष के बावजूद भारत सरकार जातिगत भेदभाव को एजेंडे से बाहर रखने में सफल रही थी, के ठीक एक दशक बाद मिली है.

तब जाति को भारत का 'आतंरिक मामला' बताते हुए भारत सरकार ने जोर दिया था कि वह इस कुरीति को समाप्त करने के लिए सभी संभव प्रयास कर रही है. यह और बात है कि जाति को अपना 'आतंरिक मसला' बताते हुए भारत सरकार नस्लभेद के खिलाफ महान संघर्ष की अपनी खुद की गौरवमयी परम्परा को ना सिर्फ भूल रही थी वरन उसका अपमान भी कर रही थी.

वैसे भी अगर जाति भारत का आंतरिक मसला है तो नस्लीय रंगभेद दक्षिण अफ्रीका की उस दौर की श्वेत सरकार का आंतरिक मुद्दा क्यों नहीं था? नस्लभेद के खिलाफ वैश्विक जनमत तैयार कर दक्षिण अफ्रीका की सरकार को अलग-थलग करने में केन्द्रीय भूमिका निभाने वाली तत्कालीन भारत सरकार क्या एक संप्रभु देश के आतंरिक मसलों में हस्तक्षेप करने का अपराध कर रही थी? 2001 में इस तर्क का जवाब देने में असफल रही भारतीय सरकार ने जातिगत भेदभाव का अस्तित्व स्वीकार करते हुए भी जाति मुद्दे को अंतर-नस्लीय और अंतर्सांस्कृतिक बताते हुए खारिज करने की कोशिश की थी.

जाति के सवाल को सम्मलेन के एजेंडे से बाहर रखने की सरकारी जिद का बचाव करते हुए तत्कालीन महान्यायवादी सोली सोराबजी ने एक हास्यास्पद तर्क भी गढ़ा था कि इसके पीछे भारत की कुल जमा मंशा यह है कि सम्मलेन मुख्य मुद्दे नस्लवाद से भटक ना जाये. भारत में जातिगत भेदभाव की मौजूदगी स्वीकारते हुए भी उन्होंने जाति और नस्ल के पूरी तरह से अलग होने पर जोर दिया.

सवाल जाति और नस्ल के पूरी तरह से अलग होने का नहीं है. आखिरकार दुनिया में सामाजिक श्रेणीबद्ध विभेदन की कोई भी दो संरचनाएं पूरी तरह से समान नहीं हो सकती हैं. इन सरंचनाओं के पैदा होने से लेकर समाज में स्थापित होने तक की प्रक्रिया में उस समाज विशेष में मौजूद राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक कारक अपनी भूमिका निभाते हुए ख़ास किस्म की शक्ती विभाजन वाली संरचनाएं पैदा करते हैं. इसीलिये, अलग अलग समाजों में पैदा हुई संरचनाएं अपनी आंतरिक बुनावट में एक दूसरे से बिलकुल अलग हो सकती हैं. मगर मसला यहाँ इनके बीच अंतरों का नहीं वरन सामाजिक श्रेणीबद्धता को पैदा करने और बनाये रखने में उनकी सफलता का है.

इस सन्दर्भ में अपने ही समुदाय के ताकतवर सदस्यों द्वारा अन्यों को अमानवीय स्थितियों में रखने वाली जाति-व्यवस्था निस्संदेह सामजिक श्रेणीबद्धता की सफलतम और निर्ममतम संरचनाओं में से एक है. शोषित और वंचित तबकों को मानवीय गरिमा से वंचित कर जानवरों की तरह केवल श्रम के संसाधनों में तब्दील कर देने वाली ऐसी किसी व्यवस्था का अस्तित्व दुनिया में शायद ही कहीं और हो.

जाति को नस्लीय भेदभाव के अन्दर वर्गीकृत ना करने के समर्थन में भारत सरकार का दूसरा तर्क है कि संरक्षणात्मक कानूनों एवं सकारात्मक भेदभावपूर्ण नीतियों द्वारा जातिप्रथा के उन्मूलन की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति कर रही है. सरकारी आंकड़ों की रोशनी में ही देखें तो यह तर्क भरभरा के ढह जाता है.

उदाहरण के लिए, गृह मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले नेशनल क्राइम रिकोर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक बीते साल से 2 प्रतिशत की वृद्धि के साथ अनुसूचित जातियों के खिलाफ हुए अपराधों की कुल संख्या 33615 तक पंहुच गयी है. यह आंकड़े सत्य से कितने कम हैं, यह जानने के लिए इसमें यह भी जोड़ लें कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) क़ानून के प्रावधान सामान्य घटनाओं को तो छोड़ें ही खैरलांजी जैसी लोमहर्षक घटनाओं को अंजाम देने वाले अपराधियों पर भी लागू नहीं किये जाते.

भारतीय सरकार का तीसरा तर्क, जिसका समर्थन कुछ महत्पूर्ण समाजशास्त्री भी करते हैं, वह यह है कि क्योंकि नस्ल भारतीय संदर्भों में एक अर्थपूर्ण जैविक श्रेणी नहीं है और भारत में समुदायों का नस्लीय आधार पर प्रोफाइल बनाने की तमाम कोशिशें नाकामयाब साबित हुई हैं, इसीलिये जाति नस्ल का एक एक पहलू नहीं हो सकती.

यह तर्क दावा करता है कि अगर जाति की उत्पत्ति मूलवंश की अवधारणा में है भी तो आज के सन्दर्भों में यह नस्ल से पूरी तरह से अलग हो चुकी है. पर असली मुद्दा यह है कि अगर दलितों के खिलाफ होने वाला भेदभाव अंतरनस्लीय भी हो तो भी इसके परिणाम नस्लवाद की तुलना में दलितों के लिए कम बर्बर नहीं होते. उससे भी ज्यादा बुनियादी स्तर पर, 'वैज्ञानिक' प्रमाण की अनुपस्थिति से नस्ल की अनुपस्थिति तो साबित हो सकती है पर 'नस्लवाद की नहीं.

नस्लवाद अपने मूल में एक विचारधारात्मक सरंचना है जो जन्म, मूलवंश या उत्पत्ति के आधार पर कुछ लोगों का अन्यों की तुलना में उच्च होने और उन्ही आधारों पर 'अन्यों' के नीचा होने का दावा करने से बनती है. भारत में नस्ल के वैज्ञानिक आधार के प्रमाण हों या ना हों, श्रेणीगत विभाजन पर आधारित भेदभाव की इस संरचना के लगातार मजबूत होने के प्रमाण रोज सुबह के अखबारों में भरे मिलते हैं. ऊपर से, इस 'कुरीति' को ख़त्म करने की पुरजोर कोशिशों के दावे के बावजूद जमीनी स्तर पर इस मुद्दे पर सरकारी अकर्मण्यता इसके अगंभीर रवैये का ही सबूत देती है.

दक्षिण भारत में उत्तर भारतीयों के साथ 'नस्ली' भेदभाव
चेन्नई : दक्षिण भारत में इनदिनों उत्तर भारतीयों पर नज़र रखी जा रही है। तमिलनाडु पुलिस उत्तर भारत से राज्य में आकर नौकरी करने वाले लोगों, पढ़ाई कर रहे छात्रों का ब्योरा जुटा रही है। लेकिन इस पुलिसिया कसरत ने विवाद को जन्म दे दिया है। कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसे नस्लीय भेदभाव करार दिया है और इसे तुरंत रोके जाने की मांग की है। इसे नागरिकों के जीने और देश में कहीं भी काम करने के हक पर चोट माना जा रहा है।  सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस मुद्दे के खिलाफ प्रदर्शन भी किया। तमिलनाडु में डकैती और जूलरी स्टोर में चोरी के कई मामले सामने आने के बाद उत्तर भारत से आए प्रवासी मजदूरों, नौकरीपेशा लोगों और छात्रों का ब्योरा जुटाने में तेजी आई है। मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर काम कर रहीं पेशे से वकील गीता रामाशेषन ने इस बारे में कहा, 'राज्य में उत्तर भारतीय लोग नफरत के शिकार बन रहे हैं।' लेकिन चेन्नई के पुलिस कमिश्नर जेके त्रिपाठी को ब्योरा तैयार किए जाने में कोई बुराई नज़र नहीं आती। उन्होंने इस बारे में कहा, 'सिर्फ आपराधिक छवि के लोगों का ब्योरा तैयार किया जा रहा है इसमें किसी तरह से नस्लीय भेदभाव नहीं है। हमने शिक्षण संस्थाओं से अपने छात्रों का डेटाबेस तैयार करने को कहा है ताकि आगे अगर जरूरत पड़े तो उसका इस्तेमाल किया जा सके।'
(http://www.gnanews.com/news.php?p1=N5H&id=1432#.UCeFwaEgdbw)

अब अगर "चिंकी" कहा तो जेल की हवा खानी पड़ेगी .....?
दिल्ली -पूर्वोतर भारत के लोगो पर नस्ली या अपमानजनक टिप्पणी करना अब भारी पड़ सकता है , नॉर्थ ईस्ट के लोगो को "चिंकी" पुकारने पर पाँच साल कि सजा हो सकती है | यह पहली बार है जब केंद्र सरकार ने पूर्वोतर भारत के लोगो के खिलाफ भेदभाव रोकने कि पहल कि है | केंद्र सरकार ने वहा के निवासियों को नस्ली और अपमानजनक टिप्पणी से बचाने के लिए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशो कि पुलिस को "चिंकी" कहने वालो के खिलाफ " प्रिवेशन आफ एट्रोसिटीज एक्ट " के तहत करवाई करने के आदेश दिए है |

हिन्दुस्तान के किसी भी राज्य या बड़े शहरों में चले जाइए आपको पूर्वोतर राज्यों के निवासी रोज़ी रोटी की तलाश में जूझते नज़र आयेंगे | वो चाहे देश की राजधानी दिल्ली हो या फिर देश की आर्थिक राजधानी मुंबई हो या चेन्नई , कोलकाता सभी शहरों में अपने घर से हज़ारो मिल दूर ये पूर्वोतर राज्यों केनिवासी कुछ ना कुछ काम करते मिल जायेंगे | सरकार इन्हें अपना जीवन स्तर सुधारने के लिए उन सभी कामो में छूट देती है जो आवश्यक हो | पर अपने घरो से इतनी दूर आये इन लोगो को समाज उस तरह नहीं अपनाता है, जैसे वो खुद रहते है,इसकी भी एक वजह है कि हमारे समाज में थोडा सा भी कुछ अलग होता है तो , हम उसे स्वीकार नहीं करते और अगर कर लेते है तो उसे उस तरह से नहीं रहने देते जैसे हम खुद रहते है |

ऐसी ही हालत पूर्वोतर राज्यों से आये उन हज़ारो नागरिको की है ,जिन्हें हमारा समाज अपनाता तो नहीं है बल्कि उनको ताने और अपशब्दों से इतना नवाज देता है, की वहा से आये नागरिको में यहाँ के लोगो के प्रति घृणा की भावना भर कर जाती है | देखने में इधर के समाज से अलग लगते इन लोगो को स्वीकारने में थोड़ी दिक्कतों का सामना स्थानीय निवासियों को करना पड़ता है | वैसे देखा जाए तो उनकी और यहाँ के लोगो की कोई गलती नहीं है , पूर्वोतर राज्यों से आये वहा के निवासियों का रहन सहन का तरीका यहाँ से अलग है | पूर्वोतर वैसे तो पिछड़ा इलाका माना जाता है ,पर खान पान और फैशन के मामले में वो हिन्दुस्तान के कई इलाको से काफी आगे है | यही एक वजह है की वहा के निवासी सबकी नज़रो में आते है , और उन्हें नस्ली भेदभाव का सामना करना पड़ता है, साथ ही उन्हें ऐसे शब्द से नवाजा जाता है , जो इधर के लोगो ने पूर्वोतर के लोगो के लिए ईजाद किया है, "चिंकी" यही शब्द अब यहाँ के लोगो पर भारी पड़ने जा रहा है |

वैसे पूर्वोतर से आये इन लोगो ने अपनी काफी संस्कृतियों को स्थानीय लोगो के साथ बांटा भी है ,वहा का खान पान आज भारत के सभी हिस्सों में काफी मशहुर है | साथ ही वहा का पहनावा भी इधर के लोग काफी अपना रहे है, वजह हिमालय कि गोद में स्थित राज्यों में फैशन कि बयार हमेशा चलती रहती है | विश्व के किस हिस्से में क्या ट्रेंड है वहा के लोगो उसे अपनाते है, पर स्थानीय लोग उनके खान पान और पहनावे को तो फालो करते है पर जब भी मौका मिलता है नस्ली भेदभाव से भी नहीं चूकते | राजधानी दिल्ली में ही रोजाना दर्जनों मामले वहा के थानों में दर्ज होते है ,पर कारवाई के नाम पर पुलिस दोनों पक्षों में सुलह करा कर मामलों को रफा दफा कर देती है |

देश में बढते मामलों को देखते हुए केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने नस्ली भेदभाव या अपमानजनक टिप्पणी करने वालो को कानून के दायरे में लाने के लिए " प्रिवेशन आफ एट्रोसिटीज एक्ट " के तहत पाँच साल कि सजा का प्राविधान किया है | इस कानून के तहत अनुसूचित जाती अनुसूचित जनजाती के लोगो पर टिप्पणी करने वालो को सजा देने का कानून है |ये मुद्दा आज का नहीं है ये बहुत ही पुराना मामला है,वहा से आये नागरिको ने अपने साथ भेदभाव और नस्ली टिप्पणियों से तंग आकर कई बार आन्दोलन तक किया पर पुलिस और स्थानीय लोगो ने मामले को अपने स्तर पर ही खत्म कर स्थानीय लोगो को पूर्वोतर के निवासियों पर नस्ली भेदभाव कि छूट दे दी, पर सरकार के इस फैसले से वहा के नागरिको को कुछ राहत तो दी ही होगी|

सरकार के इस फैसले ने साइबर जगत के साथ सामाजिक संगठनो के लिए बहस का मुद्दा दे दिया | साथ ही ये भी सवाल खड़े कर दिए कि पूर्वोतर से आने वाले सभी नागरिक जनजातीय समूह के ही है , या उनमे कोई अगड़ा या पिछड़ा भी है ये कौन तय करेगा | इस कानून का इस्तेमाल कर कोई भी पूर्वोतर का नागरिक पुलिस के पास जाकर नस्ली भेदभाव का आरोप लगा सकता है, इसकी जाँच कौन करेगा फिलहाल केंद्र ने पुलिस को अवैध कमाई का एक और जरिया दे दिया |
(http://hindi.pardaphash.com/news/%E0%A4%85%E0%A4%AC-%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A4%B0-%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE-%E0%A4%A4%E0%A5%8B-%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%B2-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B9%E0%A4%B5%E0%A4%BE-%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80-%E0%A4%AA%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%87%E0%A4%97%E0%A5%80/707264.html)

COMMITTEE ON THE ELIMINATION
OF RACIAL DISCRIMINATION
Seventieth session
19 February – 9 March 2007
CONSIDERATION OF REPORTS SUBMITTED BY STATES PARTIES UNDER
ARTICLE 9 OF THE CONVENTION
Concluding observations of the Committee on the
Elimination of Racial Discrimination
INDIA
1.  The Committee considered the fifteenth to nineteenth periodic reports of India
(CERD/C/IND/19) submitted in one document at its 1796th and 1797th meetings
(CERD/C/SR.1796 and 1797), held on 23 and 26 February 2007. At its 1809th meeting
(CERD/C/SR.1809), held on 6 March 2007, it adopted the following concluding
observations.
A.  Introduction
2. The Committee welcomes the report submitted by India and the opportunity thus
offered to reengage in a dialogue with the State party. It also welcomes the answers the
delegation gave in response to some of the Committee's questions and expresses the hope
that the dialogue with the State party will be pursued in a constructive and cooperative spirit.
B.  Positive aspects
3. The Committee notes with appreciation the comprehensive constitutional provisions
and other legislation of the State party to combat discrimination, including discrimination
based on race and caste.
4. The Committee welcomes the special measures adopted by the State party to advance
the equal enjoyment of rights by members of scheduled castes and schedules tribes, such as
reservation of seats in Union and State legislatures and of posts in the public service.
5. The Committee welcomes the establishment of institutions responsible for the
implementation of anti-discrimination legislation such as the Scheduled Castes and
Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act (1989) and for the monitoring of acts of
UNITED
NATIONS
           CERD
International Convention
On the Elimination
Of all Forms of
Racial Discrimination
Distr.
GENERAL
CERD/C/IND/CO/19
… March 2007
Original:  ENGLISH CERD/C/IND/CO/19
page 2
discrimination and violence against members of scheduled castes and scheduled tribes,
including the Ministry of Social Justice and Empowerment, the Union and State
Parliamentary Committees on Social Justice, the Ministry of Tribal Affairs, and the National
Commissions on Scheduled Castes and on Scheduled Tribes.
6. The Committee notes with appreciation the declaration of the Indian Prime Minister
before the Dalit Minority International Conference in New Delhi on 27 December 2006 that
"the only parallel to the practice of 'Untouchability' was Apartheid in South Africa." Such a
declaration underlines the renewed commitment to address the discriminatory practice of
"Untouchability".
7. The Committee welcomes the fact that the State party hosts an important number of
refugees of different national and ethnic origins, including Tibetan, Sri Lankan and Chakma,
as well as Afghan and Myanmar refugees under UNHCR care.
C.  Concerns and recommendations
8. The Committee takes note of the State party's position that discrimination based on
caste falls outside the scope of article 1 of the Convention. However, after an extensive
exchange of views with the State party, the Committee maintains its position expressed in
General Recommendation No. 29 "that discrimination based on 'descent' includes
discrimination against members of communities based on forms of social stratification such
as caste and analogous systems of inherited status which nullify or impair their equal
enjoyment of human rights."
1
Therefore, the Committee reaffirms that discrimination based
on the ground of caste is fully covered by article 1 of the Convention.
9. The Committee regrets the lack of information in the State party's report on concrete
measures taken to implement existing anti-discrimination and affirmative action legislation,
as well as on the de facto enjoyment by members of scheduled castes and scheduled and other
tribes of the rights guaranteed by the Convention. (arts. 2 and 5)
Notwithstanding the above mentioned legal position of the State party, the
Committee invites it to include in its next periodic report detailed information on
measures taken to implement anti-discrimination and affirmative action
legislation, disaggregated by caste, tribe, gender, State/district and rural/urban
population. The State party should also provide disaggregated data on the
percentages of the Union, State and district budgets allocated for that purpose
and on the effects of such measures on the enjoyment by members of scheduled
castes and scheduled and other tribes of the rights guaranteed by the
Convention.
10. The Committee notes with concern that the State party does not recognize its tribal
peoples as distinct groups entitled to special protection under the Convention. (arts. 1 (1) and
2)
                                               
1
CERD, 61
st
session (2002), General Recommendation No. 29: Article 1, paragraph 1, of the Convention
(Descent), preamble.                   CERD/C/IND/CO/19
                                                                                                            page 3
The Committee recommends that the State party formally recognize its tribal
peoples as distinct groups entitled to special protection under national and
international law, including the Convention, and provide information on the
criteria used for determining the membership of scheduled and other tribes, as
well as on the National Tribal Policy. In this regard, the Committee refers the
State party to its General Recommendation No. 23.
2
11. The Committee is concerned that the so-called denotified and nomadic tribes, which
were listed for their alleged "criminal tendencies" under the former Criminal Tribes Act
(1871), continue to be stigmatized under the Habitual Offenders Act (1952). (art. 2 (1) (c))
The Committee recommends that the State party repeal the Habitual Offenders
Act and effectively rehabilitate the denotified and nomadic tribes concerned.
12. The Committee notes with concern that the State party has not implemented the
recommendations of the Committee to Review the Armed Forces (Special Powers) Act
(1958) to repeal the Act, under which members of the armed forces may not be prosecuted
unless such prosecution is authorized by the Central Government and have wide powers to
search and arrest suspects without a warrant or to use force against persons or property in
Manipur and other north-eastern States which are inhabited by tribal peoples. (arts. 2 (1) (c),
5 (b), (d) and 6)
The Committee urges the State party to repeal the Armed Forces (Special
Powers) Act and to replace it "by a more humane Act," in accordance with the
recommendations contained in the 2005 report of the above Review Committee
set up by the Ministry of Home Affairs. It also requests the State party to release
the report.
13. The Committee notes with concern that, despite the formal abolition of
"Untouchability" by Article 17 of the Indian Constitution, de facto segregation of Dalits
persists, in particular in rural areas, in access to places of worship, housing, hospitals,
education, water sources, markets and other public places. (arts. 3 and 5)
The Committee urges the State party to intensify its efforts to enforce the
Protection of Civil Rights Act (1955), especially in rural areas, including by
effectively punishing acts of "Untouchability", to take effective measures against
segregation in public schools and residential segregation, and to ensure equal
access for Dalits places of worship, hospitals, water sources and any other places
or services intended for use by the general public.
14. The Committee is concerned about reports of arbitrary arrest, torture and extrajudicial
killings of members of scheduled castes and scheduled tribes by the police, and about the
frequent failure to protect these groups against acts of communal violence. (arts. 5 (b) and 6)
The Committee urges the State party to provide effective protection to members
of scheduled castes and scheduled and other tribes against acts of discrimination
                                               
2
CERD, 51
st
session (1997), General Recommendation No. 23: Indigenous Peoples. CERD/C/IND/CO/19
page 4
and violence, introduce mandatory training on the application of the Scheduled
Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act (1989) for police,
judges and prosecutors and take disciplinary or criminal law measures against
police and other law enforcement officers who violate their duty of protection
and/or investigation in relation to crimes against scheduled castes and scheduled
and other tribes.
15. The Committee is concerned about the alarming number of allegations of acts of
sexual violence against Dalit women primarily by men from dominant castes, in particular
rape, and about the sexual exploitation of Dalit and tribal women who are being trafficked
and forced into prostitution. (art. 5 (b))
The Committee urges the State party to effectively prosecute and punish
perpetrators of acts of sexual violence and exploitation of Dalit and tribal
women, sanction anyone preventing or discouraging victims from reporting such
incidents, including police and other law enforcement officers, take preventive
measures such as police training and public education campaigns on the criminal
nature of such acts, and provide legal, medical and psychological assistance, as
well as compensation, to victims. The State party should also consider adopting
victim-sensitive rules of evidence similar to that of Section 12 of the Protection of
Civil Rights Act (1955) and establishing special court chambers and task forces
to address these problems.
16. While taking note of the mass influx of refugees in India, the Committee is concerned
that the State party has not acceded to the 1951 Convention Relating to the Status of
Refugees and its 1967 Protocol and that it has not yet adopted any specific refugee
legislation. (art. 5 (b))
The Committee recommends that the State party consider acceding to the 1951
Convention Relating to the Status of Refugees and its 1967 Protocol and enact a
comprehensive legal framework governing the treatment of refugees.
17. The Committee notes with concern reports that Dalit candidates, especially women,
are frequently forcibly prevented from standing for election or, if elected, forced to resign
from village councils or other elected bodies or not to exercise their mandate, that many
Dalits are not included in electoral rolls or otherwise denied the right to vote, and that public
service posts reserved for scheduled castes and scheduled tribes are almost exclusively filled
in the lowest category (e.g. sweepers). The Committee is also concerned that scheduled castes
and scheduled and other tribes are underrepresented in the Union, State and local
governments and legislatures, as well as in the public service. (arts. 5 (c) and 2 (2))
The Committee recommends to the State party to effectively enforce the
reservation policy; to ensure the rights of members of scheduled castes and
scheduled and other tribes to freely and safely vote and stand for election and to
fully exercise their mandate if elected to their reserved seats; to apply the
reservation policy to all categories of public service posts, including the highest,
and to extend it to the judiciary; to ensure adequate representation of scheduled
castes, scheduled and other tribes and ethnic minorities in Union, State and local                   CERD/C/IND/CO/19
                                                                                                            page 5
governments and legislatures; and to provide updated statistical data on such
representation in its next periodic report.
18. The Committee is concerned about the persistence of social norms of purity and
pollution which de facto preclude marriages between Dalits and non-Dalits; it is also
concerned about violence and social sanctions against inter-caste couples and the continuing
practices of child marriage and dowry, and devadasi whereby mostly Dalit girls are dedicated
to temple deities and forced into ritualised prostitution. (art. 5 (d) (iv) and 5 (b))
The Committee urges the State party to effectively enforce the prohibition of
child marriage, the Dowry Prohibition Act (1961) and State laws prohibiting the
practice of devadasi. The State party should punish such acts and acts of
discrimination or violence against inter-caste couples and rehabilitate victims.
Furthermore, it should conduct training and awareness raising campaigns to
sensitize police, prosecutors, judges, politicians, teachers and the general public
as to the criminal nature of such acts.
19. The Committee notes that the State party does not fully implement the right of
ownership, collective or individual, of the members of tribal communities over the lands
traditionally occupied by them in its practice concerning tribal peoples. It is also concerned
that large scale projects such as the construction of several dams in Manipur and other northeastern States on territories primarily inhabited by tribal communities, or of the Andaman
Trunk Road, are carried out without seeking their prior informed consent. These projects
result in the forced resettlement or endanger the traditional lifestyles of the communities
concerned. (art. 5 (d) (v) and 5 (e))
The Committee urges the State party to fully respect and implement the right of
ownership, collective or individual, of the members of tribal communities over
the lands traditionally occupied by them in its practice concerning tribal peoples,
in accordance with ILO Convention 107 on Indigenous and Tribal Populations
(1957). The State party should seek the prior informed consent of communities
affected by the construction of dams in the Northeast or similar projects on their
traditional lands in any decision-making processes related to such projects and
provide adequate compensation and alternative land and housing to those
communities. Furthermore, it should protect tribes such as the Jarawa against
encroachments on their lands and resources by settlers, poachers, private
companies or other third parties and implement the 2002 order of the Indian
Supreme Court to close the sections of the Andaman Trunk Road that run
through the Jarawa reserve.
20. The Committee is concerned about reports that Dalits are often denied access to and
evicted from land by dominant castes, especially if it borders land belonging to such castes,
and that tribal communities have been evicted from their land under the 1980 Forest Act or in
order to allow private mining activities (art. 5 (d) (v) and 5 (e) (i) and (iii)).
The Committee recommends that the State party ensure that Dalits, including  
Dalit women, have access to adequate and affordable land and that acts of
violence against Dalits due to land disputes are punished under the Scheduled
Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act (1989). The State
party should also ensure that tribal communities are not evicted from their lands CERD/C/IND/CO/19
page 6
without seeking their prior informed consent and provision of adequate
alternative land and compensation, that bans on leasing tribal lands to third
persons or companies are effectively enforced, and that adequate safeguards
against the acquisition of tribal lands are included in the Recognition of Forest
Rights Act (2006) and other relevant legislation.
21. The Committee notes with concern that Dalits who convert to Islam or to Christianity
to escape caste discrimination reportedly lose their entitlement under affirmative action
programmes, unlike converts who become Buddhists or Sikhs. (arts. 5 (d) (vii) and 2 (2))
The Committee recommends that the State party restore the eligibility for
affirmative action benefits of all members of scheduled castes and scheduled
tribes having converted to another religion.
22. The Committee is concerned about reports that Dalits were denied equal access to
emergency assistance during the post-tsunami relief, while noting that, according to the State
party, those allegations merely concern isolated cases. (arts. 5 (e) and 2 (1) (a))
The Committee recommends to the State party to investigate all alleged cases in
which Dalits were denied assistance or benefits equal to that received by caste
fishermen or cases in which they were otherwise discriminated against during
the post-tsunami relief and rehabilitation process and to compensate or
retroactively grant such benefits to the victims of such discrimination.
23. The Committee notes with concern that very large numbers of Dalits are forced to
work as manual scavengers and child workers and are subject to extremely unhealthy
working conditions and exploitative labour arrangements, including debt bondage. (art. 5 (e)
(i) and (iv))
The Committee recommends that the State party effectively implement the
Minimum Wages Act (1948), the Equal Remuneration Act (1976), the Bonded
Labour (System) Abolition Act (1976), the Child Labour (Prohibition and
Regulation) Act (1986) and the Employment of Manual Scavangers and
Construction of Dry Latrines (Prohibition) Act (1993). The State party should
also adopt measures to enhance Dalits' access to the labour market, e.g. by
extending the reservation policy to the private sector and issuing job cards under
the National Rural Employment Guarantee Scheme to Dalit applicants, and
report on the effects of the measures taken on the employment and working
conditions of Dalits in its next periodic report.
24. The Committee is concerned about reports that members of scheduled castes and
scheduled and other tribes are disproportionately affected by hunger and malnutrition, infant,
child and maternal mortality, sexually transmitted diseases, including HIV/AIDS,
tuberculosis, diarrhoea, malaria and other water borne diseases and that health care facilities
are either unavailable in tribal areas or substantially worse than in non-tribal areas. (art. 5 (e)
(iv))
The Committee recommends that the State party ensure equal access to ration
shops, adequate health care facilities, reproductive health services, and safe
drinking water for members of scheduled castes and scheduled and other tribes                   CERD/C/IND/CO/19
                                                                                                            page 7
and to increase the number of doctors and of functioning and properly equipped
primary health centres and health sub-centres in tribal and rural areas.
25. While noting the constitutional guarantee of free and compulsory education for all
children up to the age of 14 and the rapid growth of the literacy rate among Dalits, in
particular girls, the Committee remains concerned about the high dropout rate among Dalit
pupils at the primary and secondary levels, reports of classroom segregation and
discrimination against Dalit pupils, teachers and mid-day meal cooks, and the poor
infrastructure, equipment, staffing and quality of teaching in public schools attended by Dalit
and tribal children. (art. 5 (e) (v))
The Committee recommends that the State party take effective measures to
reduce dropout and increase enrolment rates among Dalit children and
adolescents at all levels of schooling, e.g. by providing scholarships or other
financial subsidies and by sensitizing parents as to the importance of education,
combat classroom segregation and discrimination against Dalit pupils and
ensure non-discriminatory access to the Mid-Day Meal Scheme, adequate
equipment, staffing and quality of teaching in public schools, as well as physical
access by Dalit and tribal pupils to schools in dominant caste neighbourhoods
and armed conflict areas.
26. The Committee notes with concern allegations that the police frequently fail to
properly register and investigate complaints about acts of violence and discrimination against
members of scheduled castes and scheduled tribes, the high percentage of acquittals and the
low conviction rate in cases registered under the Scheduled Castes and Scheduled Tribes
(Prevention of Atrocities) Act (1989), and the alarming backlog of atrocities cases pending in
the courts. (art. 6)
The Committee urges the State party to ensure that members of scheduled castes
and scheduled and other tribes who are victims of acts of violence and
discrimination have access to effective remedies and, to that effect, encourage
victims and witnesses to report such acts and protect them from acts of
retaliation and discrimination; ensure that complaints under the  Scheduled
Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act (1989) and other
criminal law provisions are properly registered and investigated, perpetrators
prosecuted and sentenced and victims compensated and rehabilitated; and
establish and make operational special courts trying atrocity cases as well as
committees monitoring the implementation of the Scheduled Castes and
Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act in all States and districts, as
mandated by the Act. In this regard, the State party is invited to include in its
next report information on the number and nature of complaints registered, the
convictions and sentences imposed on perpetrators, and the remedies and
assistance provided to victims of such acts.
27. The Committee notes with concern that caste bias as well as racial and ethnic
prejudice and stereotypes are still deeply entrenched in the minds of wide segments of Indian
society, particularly in rural areas. (art. 7)
The Committee recommends that the State party strengthen its efforts to
eradicate the social acceptance of caste-based discrimination and racial and CERD/C/IND/CO/19
page 8
ethnic prejudice, e.g. by intensifying public education and awareness raising
campaigns, incorporating educational objectives of inter-caste tolerance and
respect for other ethnicities, as well as instruction on the culture of scheduled
castes and scheduled and other tribes, in the National Curriculum Framework,
and ensuring adequate media representation of issues concerning scheduled
castes, tribes and ethnic minorities, with a view to achieving true social cohesion
among all ethnic groups, castes and tribes of India.
28. The Committee recommends that the State party consider ratifying ILO Convention
No. 169 concerning Indigenous and Tribal Peoples in Independent Countries.
29. The Committee recommends that the State party take into account the relevant
provisions of the Durban Declaration and Programme of Action when implementing the
Convention in its domestic legal order, particularly as regards Articles 2 to 7 of the
Convention. The Committee also urges that the State party include in its next periodic report
information on action plans and other measures taken to implement the Durban Declaration
and Programme of Action at the national level.
30. The Committee notes that the State party has not made the optional declaration
provided for in Article 14 of the Convention, and invites it to consider doing so.
31. The Committee strongly recommends that the State party ratify the amendments to
Article 8, paragraph 6, of the Convention, adopted on 15 January 1992 at the Fourteenth
Meeting of States Parties to the Convention and endorsed by the General Assembly in its
resolution 47/111. In this regard, the Committee refers to General Assembly resolution
59/176 of 20 December 2004, in which the Assembly strongly urged States parties to
accelerate their domestic ratification procedures with regard to the amendment, and to notify
the Secretary-General expeditiously in writing of their agreement to the amendment.
32. The Committee recommends that the reports of the State party be made readily
available to the public at the time of their submission, and that the observations of the
Committee with respect to these reports be similarly translated into Hindi and, to the extent
possible, other official languages of India, and publicized.
33. The Committee invites the State party to submits its core document in accordance
with the requirements of the Common Core Document in the Harmonised Guidelines on
Reporting, recently approved by the international human rights treaty-bodies
(HRI/MC/2006/3 and Corr.1).
34. Pursuant to Article 9, paragraph 1, of the Convention, and Article 65 of the
Committee's rules of procedure, as amended, the Committee requests that the State party
inform it of its implementation of the recommendations contained in paragraphs 12, 15, 19
and 26 above, within one year of the adoption of the present conclusions.
35. The Committee recommends to the State party that it submit its twentieth and twentyfirst periodic reports in a single report, due on 4 January 2010.
- - -


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