BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Monday, April 15, 2013

अम्बेडकर की किसी स्थापना पर सवाल उठाते ही दलितवादी बुद्धिजीवी तर्कपूर्ण बहस के बजाय ''सवर्णवादी" का लेबल चस्पाँ कर देते हैं, निहायत अनालोचनात्मक श्रद्धा का रुख़ अपनाते हैं !

 अम्बेडकर की किसी स्थापना पर सवाल उठाते ही दलितवादी बुद्धिजीवी तर्कपूर्ण बहस के बजाय ''सवर्णवादी" का लेबल चस्पाँ कर देते हैं, निहायत अनालोचनात्मक श्रद्धा का रुख़ अपनाते हैं !

Satya Narayan
4:17pm Apr 15
जो समाज जितना ही पिछड़ा हुआ, अतार्किक और अन्धविश्वासी होता है, उसमें देव-पूजा, डीह-पूजा, नायक-पूजा की प्रवृत्ति उतनी ही गहराई से जड़ें जमाये रहती है। 'जीवित' और प्रश्नों से ऊपर उठे ''देवताओं" के सृजन से कुछ निहित स्वार्थों वाले व्यक्तियों का भी हित सधता है, प्रभावशाली सामाजिक वर्गों का भी और सत्ता का भी। शासक तबकों द्वारा देव-निर्माण और पन्थ-निर्माण की संस्कृति से प्रभावित शासित भी अक्सर सोचने लगते हैं कि उनका अपना नायक हो और अपना 'पन्थ' हो। इसके लिए कभी-कभी किसी ऐसे पुराने धर्म को जीवित करके भी, जिसके साथ अतीत
में उत्पीड़ितों का पक्षधर होने की प्रतिष्ठा जुड़ी हो, उत्पीड़ित जन यह भ्रम पाल लेते हैं कि उन्हें शासकों के धर्मानुदेशों से (अतः उनके प्रभुत्व से) छुटकारा मिल जायेगा। जब यह भ्रम भंग भी हो जाता है और नायक/नेता द्वारा प्रस्तुत वैकल्पिक मार्ग आगे नहीं बढ़ पाता, तब भी उक्त महापुरुष-विशेष और उसके सिद्धान्तों की आलोचना वर्जित और प्रश्नेतर बनी रहती है और उसे देवता बना दिया जाता है। इससे लाभ अन्ततः शोषणकारी व्यवस्था का ही होता है। धीरे-धीरे, उत्पीड़ितों के बीच से जो मुखर और उन्नत तत्त्व पैदा होते हैं, वे इसी व्यवस्था के भीतर दबाव और मोल-तोल की राजनीति करके फायदे में रहना सीख जाते हैं, ''महापुरुष नेता" के वफादार शिष्य बनकर मलाई चाटते
हुए इस व्यवस्था में सहयोजित कर लिये जाते हैं और अपने जैसे दूसरे उत्पीड़ित जनों की दुनिया से दूर हो जाते हैं। अम्बेडकर को लेकर भारत में प्रायः ऐसा ही रुख़ अपनाया जाता रहा है। अम्बेडकर
की किसी स्थापना पर सवाल उठाते ही दलितवादी बुद्धिजीवी तर्कपूर्ण बहस के बजाय ''सवर्णवादी" का लेबल चस्पाँ कर देते हैं, निहायत अनालोचनात्मक श्रद्धा का रुख़ अपनाते हैं तथा सस्ती फ़तवेबाज़ी के द्वारा मार्क्सवादी स्थापनाओं या आलोचनाओं को ख़ारिज कर देते हैं। इससे सबसे अधिक नुकसान दलित जातियों के आम जनों का ही हुआ है। इस पर ढंग से कोई बात-बहस ही नहीं हो पाती है कि दलित-मुक्ति के लिए अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत परियोजना वैज्ञानिक-ऐतिहासिक तर्क की दृष्टि से कितनी सुसंगत है और व्यावहारिक कसौटी पर कितनी खरी है? अम्बेडकर के विश्व-दृष्टिकोण, ऐतिहासिक विश्लेषण-पद्धति, उनके आर्थिक सिद्धान्तों और समाज-व्यवस्था के मॉडल पर ढंग से कभी बहस ही नहीं हो पाती। ज़रूरत है अम्बेडकर के सभी विचारों के निरीक्षण-विश्लेषण की। 

मजदूर बिगुल मार्च 2011 के अंक से साभार

No comments:

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...