BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Friday, June 29, 2012

Fwd: [New post] अर्थजगत : नव उदारवाद और विकास के अंतर्विरोध



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From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/6/29
Subject: [New post] अर्थजगत : नव उदारवाद और विकास के अंतर्विरोध
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अर्थजगत : नव उदारवाद और विकास के अंतर्विरोध

by समयांतर डैस्क

विशेष : पुस्तकों पर केंद्रित छमाही आयोजन : परिच्छेद :समीक्षा ' साक्षात्कार ' लेख ' कविता: जून, 2012

प्रस्तुति : जे. के. पांडे

वैकल्पिक आर्थिक वार्षिकी-तीन: भारत में आर्थिक वृद्धि एवं विकास गहराते अंतर्विरोध - 1991-2011: संपा.: कमल नयन काबरा, ब्रजेंद्र उपाध्याय, अरुण कुमार त्रिपाठी, ए. के. अरुण; युवा संवाद प्रकाशन; पृ.: 150; मूल्य: रु.175

ISBN 81 - 902586 -3 - 1

arthik-warshikiउदारवादी रथयात्रा ने हमारे आर्थिक स्वरूप को पिछले दो दशकों में पहचान से परे कर दिया है। याराना पूंजीवाद की शक्तियों ने नब्बे के दशक के शुरुआती आर्थिक संकट को अपनी आर्थिक नीतियों के प्रक्षेपण के लिए इस्तेमाल किया है। लगातार ढांचागत सुधारों के नाम पर बीते दशकों में इन शक्तियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर अपनी पकड़ मजबूत की है। आर्थिक परिचर्चा इस मुकाम तक क्षीण हो चुकी है कि संवृद्धि को सारी आर्थिक चुनौतियों की महाऔषधि मान लिया गया है।

वैकल्पिक आर्थिक वार्षिकी-3 (इंडियन पोलिटिकल एसोसिएसन) एक सामयिक प्रकाशन है जिसमें भारतीय अर्थव्यवस्था की आधिकारिक एवं कारपोरेट दिखावे के पीछे की तस्वीर विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों द्वारा बखूबी दिखाई गई है। खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आमंत्रण समेत अन्य ढांचागत सुधारों के लिए तरीके यह दर्शाते हैं कि मुद्दों पर सुविज्ञ परिचर्चा के बजाय सरकारी, कॉरपोरेट एवं मीडिया की सोची-समझी अटकलबाजी एवं शगूफाबाजी हमारे शासकों की जनता के प्रति संवेदनशीलता एवं समाज विरोधी मानसिकता की एक परिचायक है।

वार्षिकी में अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञों एवं प्रतिभागियों ने अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में सरकारी दावों और जमीनी आंकडों के बीच की खाई को बड़े ही सुगम तरीके से प्रस्तुत किया है। जिन क्षेत्रों को विस्तार से खंगाला गया है वह हैं-खुदरा व्यापार का विदेशीकरण, विकास के अंतर्विरोध एवं विकास का भ्रम, राजनीतिक पार्टियों तथा लोकतंत्र में विकल्प हीनता की स्थिति, काली अर्थव्यवस्था, खेती एवं ग्रामीण भारत में संकट, महंगाई एवं खाद्य-सुरक्षा, विदेशी क्षेत्र, उद्योग, बेरोजगारी, स्वास्थ्य सुविधा, जनसंख्या, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, सलवा जुडूम तथा माओवाद।

सामयिकता एवं जनहित के लिहाज से खुदरा व्यापार का विदेशीकरण एक महत्त्वपूर्ण लेख है। बेरोजगारी, सीमांतीकरण एवं विषमता के नजरिये से इसके दूरगामी परिणामों के प्रति लेखक ने आगाह किया है। बहुत सरलता से यह पूछा है कि पूंजी-ऊर्जा सघन बहुराष्ट्रीय खुदरा व्यापार कॉरपोरेशन किस जगत से सस्ता और उम्दा माल बेच पाएंगे। साथ ही कृषि, खुदरा व्यापार, मध्यम एवं लघु उद्योगों में स्थानीय प्रयासों को नष्ट करेगा तथा अनुमानित 8 से 12 करोड़ लोगों का विद्यमान तथा भावी धंधा घटाएगा। एक अन्य लेख में वृद्धि और विकास के बीच गहराते अंतर्विरोध पर गौर करते हुए लेखक ने उदारवादी नीतियों के भयावह परिणामों को सामने किया है। डेरिवेटिव, कर-छूट, दोहरा कराधान बचाव संधि, सार्वजनिक क्षेत्र विनिवेश एवं अन्य नीतियों के तहत कॉरपोरेट शेयरधारकों का एक छोटा सा समूह घरेलू उत्पाद के चौथाई का मालिक बन बैठा है जबकि कृषि क्षेत्र जो लगभग 70 करोड़ जनसंख्या का आजीविका प्रदायक है। घरेलू उत्पाद का महज छठा हिस्सा रह गया है।

'काली अर्थव्यवस्था: दलदल में फंसा विकास' नामक लेख में कालाधन और काली अर्थव्यवस्था के बीच के फर्क पर बल दिया गया है।

'बीस बरस के विकास का भरम' लेख में अफसरशाही और मंत्रियों के दिल में धड़कता उदारवाद तथा सार्वजनिक मंचों पर दो मुंहेपन की कलई खोली गई है। इन नीतियों से संसाधनों की लूट, कीमत स्फीति, भ्रष्टाचार, कृषि की दुर्गति तथा आम आदमी की थाली से गायब होते दाल और दूध पर चिंता व्यक्त करते हुए गरीब, कुपोषित तथा बेरोजगार जनता के प्रति जिम्मेदारी के प्रति संजीदगी लाने पर बल दिया है।

'जनगणना 2011' में प्रचलित नीतिगत मिथकों, आबादी नियंत्रण प्रयासों तथा जनसंख्या में बढ़ते लिंग-असंतुलन को चिंताजनक बताया गया है। 'खेती का संकट.....' कम होती खेती की जमीन, असमान भू-वितरण, उलट बंटाई, सिंचाई का बाजारीकरण तथा इससे गहराते भूजल संकट से हो रहे छोटे किसानों का सीमांतीकरण तथा जुताई, बुवाई, कटाई आदि में भी बाजारीकरण तथा मशीनीकरण के दुष्प्रभावों की चर्चा करता है।

'महंगाई एवं खाद्य सुरक्षा' खाद्य संकट के गहराने के पीछे कृषि एवं वाणिज्य क्षेत्र की नीतियों तथा सशक्त होती विदेशी कंपनियों, सटोरियों, बिचौलियों एवं जमाखोरों की भूमिका पर चर्चा करती है।

लघु तथा मध्यम उद्योगों के तकनीकी उत्थान पर बल देते हुए बढ़ती बेरोजगारी की भयावह तस्वीर से निपटने के प्रति नीतिगत अरुचि और सरकारी प्रयासों में व्याप्त अदूरदर्शिता पर चिंता व्यक्त की गई है।

बाजार के कहर का विश्लेषण करते हुए स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण तथा विदेशी निवेश आम पहुंच से दूर किए जाते तथा बाजार की होड़ में मेडिकल शिक्षा प्रणाली के अमीर केंद्रित होते जाने तथा भूख और कुपोषण जैसी समस्याओं की ओर भी ध्यान खींचा है।

राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में व्याप्त सर्वांगी भ्रष्टाचार, कार्यकारिणी, न्यायपालिका, कॉरपोरेट, मीडिया, माफिया द्वारा व्यवस्था की लूट-खसोट तथा न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति, रोजगार, समानता तथा सामाजिक सुरक्षा को सक्रिय उद्देश्यों में स्थान नहीं दिए जाने पर भी पुस्तक के कुछ अध्याय केंद्रित हैं।

उद्योग संस्थाओं द्वारा पनपते माओवाद के कारणों का अस्वीकरण तथा इस समस्या पर 'आर्थिक पिछड़ापन' तथा 'निवेश सुरक्षा' के चश्मे पर गौर किया गया है।

ऐसे में वर्तमान लोकतांत्रिक दायरे के अंदर रहते हुए अर्थव्यवस्था की पुनर्रचना के लिए विकल्पों पर चर्चा है तथा भारतीय राजनीतिक परिदृश्य से समाजवाद के पाष्पीकरण तथा राजनीतिक दलों के वैचारिक दिवालिएपन को एक गंभीर समस्या बताया है। जनांदोलनों के समन्वय एवं राजनीतिकरण पर बल देते हुए उनके प्रति सहिष्णुता में आई कमी की ओर पुस्तक में इशारा किया गया है और यह भी तर्क दिया है कि राजनीतिक दल आला नेताओं के हाथ की कठपुतलियां हैं तथा चुनावी नतीजों में सामाजिक समर्थन का स्थान धनबल, बाहुबल, पारिवारिक पहुंच और औद्योगिक घरानों के चंदों ने ले लिया है।

इन सभी लेखों में सरलता और गहनता है। आधिकारिक आर्थिक प्रक्षेपण के माया जाल को आसानी से तोडऩे वाले ये लेख वस्तुस्थिति की एक सटीक तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। लेखों को पढऩे पर अर्थव्यवस्था का सरकारी एवं कॉरपोरेटी चित्रण एक कल्पित वास्तविकता सा प्रतीत होता है। इस प्रकाशन की सामयिकता और प्रासंगिकता विलक्षण है।

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