Sunday, 24 June 2012 16:49 |
जनसत्ता 24 जून, 2012: वरिष्ठ कथाकार संजीव ग्रामीण भारत के समर्थ रचनाकार हैं। उनकी रचनाओं में गांव अपने संपूर्ण सांस्कृतिक ताने-बाने के साथ मौजूद रहता है। यह मौजूदगी गांवों के प्रति रूमानियत का परिचायक न होकर देश की बहुसंख्यक गरीब जनता के प्रति गहरे सरोकार दर्शाती है। इसीलिए उनकी रचनाएं रूमानियत से दूर एक तीक्ष्ण आलोचकीय दृष्टि के साथ ग्रामीण यथार्थ को प्रस्तुत करती हैं। हिंदी कहानी में आज हो रहे तमाम शिल्पगत चमत्कारों के बीच भी वे अपने बनाए मार्ग पर निष्ठापूर्वक अग्रसर हैं। इसका पुख्ता प्रमाण उनका नया कहानी संग्रह झूठी है तेतरी दादी है। 'सौ टके की टीचर' कहानी एक ग्रामीण स्त्री की कहानी है, जो कठिन जीवन संघर्षों में उलझी हुई है। घर-बाहर के सभी काम करते हुए उसे सास-ससुर की फब्तियां भी दिन-रात सुननी पड़ती हैं। सौ रुपया महीने पर प्रौढ़ शिक्षा केंद्र में उसकी नौकरी है। उसकी समस्या है कि औरतें पढ़ने नहीं, मजदूरी करने चली जाती हैं, क्योंकि उनका विचार है कि पढ़-लिख कर कुछ हासिल नहीं होगा, उलटे मजदूरी मारी जाती है। वह उनसे गिड़गिड़ाती है कि पढ़ने आ जाओ नहीं तो उसकी नौकरी चली जाएगी। एक स्त्री कहती है कि सौ रुपए के लिए तुम इतना दुख-तकलीफ सह रही हो, हम तीन सौ की खातिर जा रहे हैं, तुम भी चलो हमारे साथ। स्त्री पूछती है, पढ़-लिख कर मिलेगा क्या? वह निदेशक महोदय का वाक्य दोहराती है- 'कम से कम यह तो समझ सकोगी कि तुम पर कौन-कौन से जुल्म ढाए जा रहे हैं।' स्त्री कहती है कि वह तो हम बिना पढ़े-लिखे ही समझ जाते हैं, तुमको देख कर। कहानी एक स्त्री के संघर्ष, उसकी दयनीयता और प्रौढ़ शिक्षा की अव्यावहारिकता को उजागर कर देती है। संजीव जहां पूंजीवाद के प्रगतिशील पक्ष को पहचानते हैं वहीं पूंजीवाद के दैत्याकार सर्वग्रासी रूप को भी। 'हत्यारे' कहानी प्राकृतिक संसाधनों के लूट के संदर्भ में कॉरपोरेट घरानों द्वारा नदी पर कब्जे और उस कब्जे के बाद ग्रामीणों की विडंबनापूर्ण स्थिति की मार्मिक कहानी है। सबसे दुखद बात यह है कि गांव वालों से उनकी जीवन-रेखा छीन लेने के इस अभियान में सरकार सहयोगी भूमिका में है। इस पूरे कुचक्र के खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठी जगधर की माई की मौत हो जाती है। पुलिस उलटे जगधर को ही अपनी माई को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में पकड़ लेती है और इस तरह पूंजीपतियों का बाल बांका भी नहीं होता। कहानी सरकार और कॉरपोरेट घरानों के क्रूर और हिंसक गठजोड़ को दर्शाती है। कहानी इस बात को रेखांकित करती है कि चूंकि सरकार अपनी ही जनता के खिलाफ पूंजीपतियों के पक्ष में खड़ी हो गई है, इसलिए अब शांतिपूर्ण भूख हड़ताल जैसे तरीके निष्प्रभावी हो गए हैं। इस कहानी को देश भर में चल रहे जल, जंगल और जमीन की लड़ाई के संदर्भ में देखने की जरूरत है। यह प्रकारांतर से माओवादी विकल्प की अनिवार्यता को रेखांकित करती है। संजीव हिंदी के उन थोड़े-से लेखकों में हैं, जिनकी कहानियों में यथार्थ की तीक्ष्ण वैचारिक आलोचना कहानी की आत्मा को क्षति पहुंचाए बिना होती है। संग्रह की ग्रामीण परिवेश के बाहर लिखी गई कहानियां 'अभिनय' और 'हत्यारा' बहुत सशक्त और प्रभावी नहीं बन पाई हैं। इसी तरह 'नायक-खलनायक', 'सिंह-अ बनाम सिंघ्र-अ', 'फूटे कांच का चश्मा' और 'खबर' जैसी कहानियों में विषय-वस्तु नई है, पर घटनाओं का विकास बहुत विश्वसनीय नहीं लगता। इन सभी कहानियों में यथार्थ की आलोचना तो है, लेकिन रचनात्मक उन्मेष बहुत कम। इसीलिए ये कहानियां हमारी संवेदना को बहुत दूर तक नहीं झकझोरतीं। संग्रह की असल ताकत ग्रामीण परिवेश वाली कहानियां ही हैं। बाकी का परिमाणात्मक महत्त्व अधिक है, गुणात्मक कम।
दिनेश कुमार |
BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7
Published on 10 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH.
http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM
http://youtu.be/oLL-n6MrcoM
Sunday, June 24, 2012
परिवेश को मथते हुए
परिवेश को मथते हुए
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