BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Thursday, September 26, 2013

शिक्षा केंद्र, बुद्धिजीवी और सत्ता

शिक्षा केंद्र, बुद्धिजीवी और सत्ता

Wednesday, 25 September 2013 10:16

आनंद कुमार
जनसत्ता 25 सितंबर, 2013 : किसी भी लोकतांत्रिक समाज में सरकार और शिक्षा केंद्रों के बीच का संबंध हमेशा एक सृजनशील तनाव से निर्मित होता है।

सरकार की तरफ से शायद ही कभी ऐसा प्रयास हो, जिसमें शिक्षा केंद्रों को अधिकतम स्वायत्तता मिलती है, क्योंकि सरकार शिक्षा केंद्रों में चल रहे ज्ञान-मंथन, तथ्य-विश्लेषण और विद्वानों की स्वतंत्र शोध-क्षमता से सशंकित रहती है। सरकार का काम हमेशा कुछ आधा और कुछ पूरा- यह उसकी प्रवृत्ति भी है; लेकिन जब उसके अधूरेपन की आलोचना विद्याकेंद्रों से होने लगती है तो सरकार की समाज में साख गिरने लगती है। इसीलिए लोकतंत्र के बावजूद सरकार की तरफ से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीकों से विद्वानों और विद्याकेंद्रों को साधने की कोशिश की जाती है। इसमें साम, दाम, दंड, भेद, सबकुछ प्रयोग किया जाता है। 
दूसरी तरफ विश्वविद्यालयों और विश्वविद्यालयी व्यवस्था के संचालकों को हमेशा सरकार से अपनी स्वायत्तता के प्रति सतर्क रहने की एक जरूरत महसूस होती है, क्योंकि सरकार तात्कालिकता के आवेग और दबावों में चलती है। विद्या-साधना क्षण और अनंत के बीच का एक आवश्यक सेतु है, प्रक्रिया है और एक तरह से विज्ञान है। इसीलिए स्वायत्तता के संदर्भ में सरकार के सीधे और छिपे, दोनों तरह के प्रहारों को लेकर विद्याकेंद्रों ने सारी दुनिया में प्राय: प्रतिरोध का स्वर अपनाया है। जब प्रतिरोध कुंठित हुआ है, तब तानाशाही, फासीवाद और लोकतंत्र का निर्मूलन, ये सब उसके अनिवार्य परिणाम बने हैं। इसीलिए समाज के सजग तत्त्वों को सरकार और विद्वानों के बीच, मंत्रालय और विश्वविद्यालयों के बीच एक निश्चित स्वायत्तता के लिए बराबर दबाव बनाए रहना पड़ता है। 
प्रोफेसर योगेंद्र यादव बनाम मानव संसाधन विकास मंत्रालय के प्रसंग में सारे देश की यह चिंता है कि यह सरकारी फैसला किस आधार पर लिया गया है। इसमें राजनीति ज्यादा है, या नीतियों का पालन करने की जरूरत को ध्यान में रखा गया है? प्रो योगेंद्र यादव एक लंबे अरसे से भारत सरकार की शिक्षा व्यवस्था के साथ रचनात्मक स्तर पर जुड़े रहे हैं। उनका राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीइआरटी) में राजनीतिशास्त्र की पाठ्य-पुस्तकों के संदर्भ में किया गया योगदान सारे देश ने पसंद किया। इसी प्रक्रिया में उन्होंने पिछले कुछ वर्षों से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद के सदस्य के रूप में जो रचनात्मक सक्रियता दिखाई है, उससे अन्य सदस्यों को भी उनका प्रशंसक बनने में कोई संकोच नहीं रहा है। लेकिन अब एकाएक एक सरकारी मुलाजिम की तरह उनको 'कारण बताओ नोटिस' दिया जाना और उनके सुव्यवस्थित उत्तर के बावजूद, बिना एक दिन की भी देर किए, उनको विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की केंद्रीय समिति की सदस्यता से अवकाश घोषित करने की पूरी प्रक्रिया समीक्षा की मांग करती है। 
हमारा शिक्षा मंत्रालय हमारे विद्या संसार के संदर्भ में क्या करना चाहता है? क्या विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और विश्वविद्यालय व्यवस्था के साथ जुड़े हुए सभी सदस्यों को ध्यान में रखने पर कुल एक व्यक्ति यानीयोगेंद्र यादव ही सामने आते हैं जिनका किसी दल के साथ संबंध है? अगर नहीं, तो बाकी अन्य विद्या विशारदों के बारे में सरकार की क्या नीति होगी? योगेंद्र यादव ने यह उचित प्रश्न पूछा कि अगर उन्होंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की सदस्यता के बाद सत्तारूढ़ दल की सदस्यता ग्रहण की होती, तो क्या ऐसी ही तत्परता से उनको यूजीसी की संचालन समिति से हटाने की तत्परता दिखाई गई होती? 
वस्तुत: आज उच्च शिक्षा के क्षेत्र में चार बड़े संकट पैदा हो चुके हैं। पहला संकट यूजीसी की अपनी भूमिका और गतिविधियों को लेकर है। पिछले मंत्री के कार्यकाल के दौरान यूजीसी को पूरी तरह से समाप्त करने की तरफ कदम बढ़ाए गए थे। इसके लिए सैम पित्रोदा नामक तकनीकी विशेषज्ञ की अध्यक्षता में एक ज्ञान आयोग का गठन भी हुआ। उस ज्ञान आयोग की सिफारिशों में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के बारे में कोई बहुत शानदार बातें नहीं लिखी गई थीं। पित्रोदा समिति की संस्तुतियों को कार्यान्वित करने के लिए प्रो यशपाल समिति का गठन किया गया। 
यशपाल समिति ने तो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ही नहीं, चिकित्सा, तकनीकी, विधि और कृषि की उच्च शिक्षा का संचालन कर रही विभिन्न केंद्रीय समितियों को भी भंग करने की सलाह दी। इसके पीछे एक कारण इन समितियों में परस्पर तालमेल न होना था, और शायद दूसरा और कुछ छिपा हुआ कारण इन समितियों के संचालन में बढ़ रहा भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद भी कहीं था, क्योंकि यशपाल समिति की जांच के दौरान ही केंद्रीय तकनीकी शिक्षा आयोग और केंद्रीय मेडिकल शिक्षा आयोग के सर्वोच्च पदाधिकारियों में से कुछ लोग घूस लेते रंगे हाथ पकड़े गए। शायद उनमें से कुछ लोगों पर मुकदमा चल रहा होगा और कुछ तो शायद जेल में हैं। 
यह पहला संकट उच्च शिक्षा की संगठन व्यवस्था को लेकर है, जिसमें योगेंद्र यादव जैसे लोगों ने कुछ रचनात्मक सुझावों के जरिए मनमानी के बजाय नीतिसम्मत दूरगामी सुधारों का प्रयास किया था। सरकार को आलोचना रास नहीं आ रही है, इसलिए आलोचकों की अगुआई कर रहे लोगों में से योगेंद्र यादव को सदस्यता से वंचित करने का आदेश दे दिया गया।
दूसरा संकट। संसद में यह कहा जा चुका है कि उच्च शिक्षा के सबसे गरिमापूर्ण पद यानी कुलपति की नियुक्तिके लिए पैसे का लेन-देन होने लगा है। कुछ राज्यों में राज्यपाल जैसे संवैधानिक गरिमा वाले पद पर नियुक्त लोगों पर अंगुलियां उठ चुकी हैं। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पिछले एक दशक में कुलपतियों के चयन को लेकर जो प्रक्रियाएं अपनाई गर्इं और जिस तरह के लोगों को कुलपति पद पर नियुक्त होने का अवसर मिला, उसको लेकर भी सीधे राष्ट्रपति भवन शंका के दायरे में कई आलेखों में आ चुका है। लेकिन इसकी कौन सफाई करे, इसका कौन जवाब दे!

शिक्षा मंत्रालय से जुड़ी संसदीय समिति में संभवत: उच्च शिक्षा में नियुक्तियों के मापदंडों को लेकर और उसमें पैसे के लेन-देन के आरोपों को लेकर कभी गंभीर चर्चा नहीं हुई है। संसद में प्रश्न उठे हैं, लेकिन जवाब के स्तर पर चौतरफा सन्नाटा है। जब कुलपति का पद ही बिकाऊ हो जाएगा तो व्याख्याता और कार्मिक के पदों की खरीद-फरोख्त को कौन रोकेगा?
तीसरा संकट शिक्षा के व्यवसायीकरण से जुड़ा हुआ है। उदारीकरण और निजीकरण की आड़ में, और भूमंडलीकरण की सनक में देश के हर कोने में निजी पूंजी के बल पर विश्वविद्यालयों का निर्माण हुआ है। जिन्हें डीम्ड विश्वविद्यालय कहा जाता है, उनकी अस्वस्थता से चिंतित होकर कुछ शिक्षाविदों ने पहले शिक्षामंत्री, फिर राष्ट्रपति और अंतत: विवश होकर सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई। न्यायालय के हस्तक्षेप से ऐसे कई सौ कागजी और कमाऊ विश्वविद्यालयों की मान्यता निरस्त हुई है। जांच जारी है। लेकिन यह सच तो सामने आ ही गया कि उच्च शिक्षा की बढ़ती भूख को शांत करने में असमर्थ सरकार ने अपने ही एक हिस्से यानी सरकारी राजनीतिकों को अच्छे-बुरे पूंजीपतियों के साथ मिलकर शिक्षा क्षेत्र के खुले दोहन की छूट दे दी है। 
आज हिंदुस्तान की हर बड़ी पार्टी के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय नेताओं में एक लंबी सूची ऐसे नेताओं की है जिन्होंने चिकित्सा, टेक्नोलॉजी, मैनेजमेंट, विधि और ऐसी रोजगारपरक डिग्रियां देने वाले विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा केंद्रों का ताना-बाना बुना है- जो पूरी तरह शिक्षा के व्यवसायीकरण की दिशा में बढ़ने वाला एक आत्मघाती कदम है। इसी के समांतर भारत सरकार ने अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों को भी यहां लाने का एक अभियान चला रखा है। 
इससे केंद्रीय विश्वविद्यालयों और आइआइटी तक में योग्य अध्यापक-अध्यापिकाओं की कमी हो रही है। पैसे के आकर्षण से लेकर स्थानीय गुटबाजी तक की समस्याओं के कारण अनेक युवा प्रतिभाएं सरकारी क्षेत्र के विद्याकेंद्रों के बजाय निजी क्षेत्र के विद्याकेंद्रों में जाने को विवश हो रही हैं। यह सब उच्च शिक्षा के ढांचे को चरमराने वाला है। इससे उच्च शिक्षा का समूचा तंत्र अब राष्ट्र-निर्माण के बजाय धन-संचय का बहाना बन रहा है।
चौथी समस्या हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था में गुणवत्ता को लेकर है। पिछले दो दशक सूचना क्रांति और उच्च शिक्षा के बीच नई निर्भरता के रहे हैं। इन दो दशकों में हमने आधे-अधूरे तरीके से उच्च शिक्षा को नवीनतम ज्ञान, तकनीक से जोड़ने की कोशिश की है। 
एक तरफ विशेष अनुदानों का सिलसिला रहा है और दूसरी तरफ हाई स्कूल और इंटर पास विद्यार्थियों को मुफ्त लैपटॉप देने की सरकारी योजनाएं बनी हैं। लेकिन इस सबके बीच में उच्च शिक्षा के लिए जरूरी एकमुश्त अनुदान और बजट को बढ़ाने का राष्ट्रीय आह्वान- जिसे 1966 से कोठारी आयोग से लेकर 2011-12 की पित्रोदा समिति और यशपाल समिति तक ने बार-बार निस्संकोच दोहराया है- अर्थात राष्ट्रीय बजट का कम से कम छह प्रतिशत उच्च शिक्षा के लिए उपलब्ध कराना, यह नहीं हो रहा। 
एक तरफ तो हम सरकारी क्षेत्र में नए विश्वविद्यालय बनाने का स्वांग कर रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ इनमें से अधिकतर विश्वविद्यालयों में महज तीन साल और पांच साल की अवधि के लिए नियुक्तियां कर रहे हैं। कोई भी युवा प्रतिभा स्थायी नौकरी के बजाय तीन साला ठेकेदारी की नौकरी की तरफ भला कैसे आकर्षित होगी? इससे अंतत: या तो प्रतिभा पलायन हो रहा है, विश्व के अन्य ठिकानों की तरफ हमारे मेधावी विद्यार्थी अपने विश्वविद्यालयों से स्नातकोत्तर शिक्षा के बाद जा रहे हैं या उच्च शिक्षा के क्षेत्र में शोध की तरफ कदम ठिठकने लगे हैं। 
सबको यह पता है कि पिछले दिनों में हमने प्रतिभा संवर्द्धन के लिए जितनी योजनाएं शुरू कीं, उन सबका श्रेष्ठतम अंश अंतत: धौलपुर हाउस, अर्थात संघ लोक सेवा आयोग और राज्य सेवा आयोगों के दरवाजों पर कतार बांध कर खड़ा हो चुका है। आज भी यह देश के नवयुवकों के लिए बड़ी दुविधा है कि तेजस्वी होने के बावजूद शोध की तरफ बढ़ें या सरकारी नौकरियों की तरफ जाएं। क्योंकि शोध के बाद मिलने वाला अवसर उनकी प्रतिभा और उनकी जरूरतों के बीच उचित समन्वय नहीं पैदा करता। 
इन चार प्रश्नों को लेकर योगेंद्र यादव जैसे लोगों ने पिछले दिनों में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अंदर गरिमामय तरीके से कुछ सुधारों के प्रयास किए थे। इनमें शिक्षकों के लिए उचित कार्य-अवसर, उनकी पदोन्नति के लिए ठीक मापदंड, उनकी कार्य-सुविधाएं बढ़ाने के लिए तकनीकी और आर्थिक सुविधाओं को बढ़ाना, और अंतत: विश्व के बाजारी दबाव से हमारी उच्च शिक्षा को बचाना। ये सब आज के तकाजे हैं। इसमें योगेंद्र यादव जैसे लोगों को जोड़े रखना यूजीसी के हित में होता।
अब योगेंद्र यादव यूजीसी के सदस्य नहीं हैं। लेकिन क्या मानव संसाधन विकास मंत्रालय इस बात की गारंटी लेगा कि उसने योगेंद्र यादव को बहिष्कृत करके उच्च शिक्षा के राजनीतिकरण का संकट दूर कर दिया है! क्या विश्वविद्यालय अनुदान आयोग देश को इस बात का भरोसा दिलाएगा कि आने वाले समय में हम उच्च शिक्षा के क्षेत्र में मंत्रियों और अफसरों की बढ़ती मनमानी और हस्तक्षेप को निरस्त करेंगे और विश्वविद्यालयों को उनकी स्वायत्तता के जरिए ज्ञान साधना के उत्कृष्ट केंद्रों के रूप में विकसित होने की पूरी छूट देंगे?

 

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