Saturday, 29 June 2013 11:02 |
श्रुति जैन रन आॅफ द रिवर परियोजनाओं के प्रोत्साहन में सरकार का तुरुप का इक्का यह रहा है कि इनसे न तो विस्थापन होगा और न अन्य किसी तरह का प्रतिकूल प्रभाव। इसलिए उत्तराखंड में सौ मेगावाट तक की परियोजनाओं को न तो पर्यावरणीय स्वीकृति की जरूरत है और न ही कोई पुनर्वास योजना बनाने की। सरकार का पूरा प्रयास है कि कंपनियों के रास्ते की थोड़ी-बहुत 'अड़चन', जो पर्यावरणीय मंजूरी और पुनर्वास की जिम्मेदारी के रूप में देखी जाती है, को भी हटा दिया जाए। हर जिम्मेदारी से मुक्त कंपनियां कौड़ी के मोल पहाड़वासियों की न सिर्फ जमीन, जंगल और नदियों पर कब्जा कर रही हैं, बल्कि होटल और रिसॉर्ट बना कर पूरी स्थानीय अर्थव्यवस्था पर ही नियंत्रण करने की कोशिश में हैं। इतनी सारी परियोजनाओं के कारण पहाड़ कमजोर हुए हैं। बादल फटने (यानी कुछ ही समय में एक जगह पर अत्यधिक बारिश) और भूस्खलन से जान-माल का बहुत नुकसान हुआ है। मगर बाढ़ की स्थिति परियोजना के बैराज टूटने आदि के कारण और भयावह हो जाती है। बाढ़ और भूस्खलन के खतरे बढ़ाने के अलावा भी इन परियोजनाओं ने स्थानीय जीवन को बहुत नुकसान पहुंचाया है। चालू परियोजनाओं के प्रभावित क्षेत्रों में भू-धंसान, घरों में दरारें पड़ने और पानी के स्रोत गायब होने का क्रम जारी है। जोशीमठ के पास जेपी कंपनी की अलकनंदा पर बन चुकी परियोजना के चलते पूरा का पूरा चाई गांव धंस गया। कंपनी को क्षतिपूर्ति के लिए कहने के बजाय सरकार ने गांव वालों को आपदा के नाम पर मात्र तीन लाख रुपए में टरका दिया। क्या इतने पैसों में घर बनाने, आजीविका चलाने का कोई फॉर्मूला भी है उनके पास? गांव में बेशक पीने का पानी नहीं, पर जेपी की टाउनशिप को सीधे सुरंग से पानी की आपूर्ति होगी। गांव वालों को कहा गया कि सुरंग से कोई खतरा नहीं, पर कंपनी ने अपनी टाउनशिप दूसरे किनारे सुरक्षित जगह बनाई है। किनारे पर बाड़ लगा कर नदी तक लोगों की पहुंच बाधित कर दी गई है। हद तो यह है कि गांव के रास्ते की जमीन यह कह कर कब्जे में ले ली गई कि सड़क बनाएंगे। अब वहां से आवाजाही पर भी कंपनी का नियंत्रण है। इससे कुछ ही नीचे टीएचडीसी की विष्णुगाड-पीपलकोटि परियोजना के विस्फोट (ब्लास्टिंग) से घरों की नींव हिल गई है। गांव के आसपास के पानी के स्रोत गायब होने से जनजीवन बेहाल है। ब्लास्टिंग से डर कर और ऊपर के जल-स्रोतों के प्रभावित होने से जंगली भालू आदि नीचे गांव की तरफ आते हैं। कुछ ने गांव वालों पर हमला भी किया है। बहुत-से स्थानों पर जंगली सूअरों के कारण खेती बरबाद है। पहाड़ों के नीचे ही पूरे के पूरे पॉवर हाउस बनाए जा रहे हैं। बिजली की ज्यादा क्षमता के तारों के नीचे की गांव की जमीन बंजर हो रही है। रुद्रप्रयाग के पास मंदाकिनी नदी पर लार्सन ऐंड टूब्रो कंपनी की परियोजना ने गांव के वर्षों के प्रयत्नों से लगे जंगल को तबाह किया है। भिलंगना नदी पर बनी 'छोटी' परियोजना के कारण फालिंडा गांव के लोगों को खेती के लिए पानी नसीब नहीं, क्योंकि नदी का पानी सुरंग में चला गया है और कई किलोमीटर आगे ही वापस नदी में डाला जाता है। यह सब देख कर प्रश्न उठता है कि कौन निश्चय करेगा कि नदियों का कितना दोहन किया जा सकता है? यह मान लेना कि अब कुछ भी करके बिजली बनानी ही होगी और अच्छा होगा कि बहती, इसलिए 'व्यर्थ' होती नदी को इस काम में लिया जाए, तर्कसंगत नहीं। उत्तराखंड में पानी की कमी से खेती मुश्किल है। फिर, बहुत कम खेती की जमीन बची है। पहले ही यहां छह राष्ट्रीय पार्क और छह अभयारण्य हैं, जिनके आसपास के इलाके पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील घोषित किए गए हैं। पर इससे ठीक उलट, उत्तराखंड में पर्यावरण-प्रतिकूल परियोजनाएं धड़ल्ले से बनती रही हैं। क्या यह राज्य सिर्फ कंपनियों के फायदे के लिए बना था? लोगों ने उत्तराखंड राज्य के लिए इसलिए संघर्ष किया था ताकि वहां के प्राकृतिक संसाधनों पर उनका अधिकार हो, पहाड़ी जीवन के अनुसार ही इनका प्रबंधन हो सके। लंबे समय से लोग वहां घराट और छोटी-छोटी पनबिजली योजना चला रहे थे। इस तरह के उपक्रमों को नष्ट कर, पहाड़ के साथ क्रूर और छलपूर्ण बर्ताव स्वीकार्य कैसे हो सकता है? http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/47996-2013-06-29-05-33-30 |
BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7
Published on 10 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH.
http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM
http://youtu.be/oLL-n6MrcoM
Saturday, June 29, 2013
हिमालय पर घात
हिमालय पर घात
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