BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Saturday, July 6, 2013

मेरे और कामरेड के बीच अलंघ्य एक दीवार है - मरीचझांपी

मेरे और कामरेड के बीच अलंघ्य एक दीवार है - मरीचझांपी


पलाश विश्वास


मेरे और कामरेड के बीच अलंघ्य एक दीवार है - मरीचझांपी और उनके जन्मशताब्दी वर्ष के लिएदशकों से उगाये गुलाब के सैकड़ों बाग हमने, उनके बीचोंबीच ठहर गया है सुंदरवन,जहां बहती है गोसाबा नदी और उसमें हमारे स्वजनों के खून के सिवाय कुछ नहीं है।शरणार्थियों का चारा खाकर जीते सुंदरवन के भयानक सुंदर बाघ में मेरे और मेरे कामरेड के दरम्यान कोर एरिया बना हुआ है और हममें से कोई कामरेड को छू भी नहीं सके मरीचझांपी नरसंहार के बाद से अब तलक। हमारे लोग मर गये भूखों, हमारी स्त्रियों की देह नोंची खसोटी गयी, हमारे पेयजल में मिला जहर और मृत शिशुओं के शव तैरते रहे नदियों में।


हमारे लिए क्रांति दंडकारण्य के शरणार्थी उपनिवेश से मरीचझांपी की आमंत्रित यात्रा के दरम्यान गोलियों की गूंज, लाठियों के प्रहार और डूबा दिये जाते  नावों, फूंक दिये गये घर और स्कूल के बीच कहीं खो गयी हमेशा के लिए।बंगाल से बहिस्कृत थे मेरे पिता, जो आजीवन लड़ते रहे शरणार्थियों के लिये, रीढ़ में कैंसर लेकर भी दौड़ते रहे स्वजनों के लिए आजीवन। उनकी चेतावनी फिर अमोघ सत्य बनकर ठहर गया कामरेड और हमारे बीचकि क्रांति हमारे लिए नहीं है। भूगोल और इतिहास से बाहर हैं हम और भोगे हुए यथार्थ के निरंतर प्रज्ज्वलित दावानलके सिवाय हमारे लिए कोई विचारधारा नहीं है और हम किसी देश के नागरिक नहीं हैं और हमारे कोई मानव अधिकार भी नहीं।


कामरेड से साये में विचारधारा की आग हमेशा हमारे भीतर जो धधक रही थी, देश निकाले के राष्ट्रीय अभियान में कहीं सुंदरवन में बाघों को नरभक्षी बना देने वाले खारा पानी में बुझ गयी हमेशा के लिए। कबंध में तब्दील कब से, न जाने कब से हम अपना चेहरा खोज रहे हैं। कहीं घात लगाकर विचारधारा हमें फीर फिर लहूलुहान करती तो हम देखते कामरेड की तरफ और खोजते रहते उनके मौन चेहरे पर प्रतिबद्धता की मुस्कान। पिता की आवाज गूंजती घाटियों में प्रतिध्वनित धार की कटती प्रतिध्वनियों के मानिंद कि इस देश में क्रांति हमारे लिए नहीं है। अनंत हिंसा, अनंत घृणा और अनंत अश्पृश्यता के रौरव नरक में हमारी कोई बायोमेट्रिक पहचान नहीं है इस डिजिटल देश में। हम कामरेड के करीब कहीं नहीं है।कामरेड लेकिन थे तेभागा में हमारी लड़ाई में। कामरेड थे आपातकाल के विरुद्ध। लेकिन कामरेड हमारे लिए न थे कभी।



कामरेड थे तेलंगना और ढिमरी ब्लाक मेंऔर आज भी कामरेड सक्रिय हैं कल कारखानों और खेतों में,हिमालय से कन्याकुमारी तक। पर कामरेड को हम खोज रहे थे भूमंडलीकरण के विरुद्ध या वैश्विक आवारा पूंजी के खिलाफ जनप्रतिरोध में। कामरेड को हम खोजते रहे सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के खिलाफ। पूर्वोत्तर में या जल जंगल जमीन से बेदखली के नियतिबद्ध क्षणों में। इस वधस्थल पर कामरेड कहीं नहीं हैं

हमारे साथ। परमामु संधि से लेकर गैस त्रासदी, बाबरी विध्वंस ले लेकर गुजरात नरसंहार, हर कहीं लेकिन कामरेड वाणी प्रसारित।लेकिन हकीकत जमीन पर मरीचझांपी हमारी नियति बनी रही हमेशा। गोसाबा की तेज धार में बहती रही हमारी लाशें और बाघों काचारा बनते रहे हम और चांदमारी के लिए भी तो हमारे ही लोग कतारबद्ध सर्वत्र प्रतीक्षारत। अश्वेमेध के पुरोहितों में निष्णात लाल।खुले बाजार के सेज में सजी विचारधारा और कामरेड की जीवनी मिथ्या बनकर डराती रही हमें। हम बार बार नरसंहार के मुखातिब होते रहे!न हम कामरेड के हो सके और न कामरेड हमारे हुए।


वर्दियों और बंदूकों में, पीड़ितों और मारे जाते स्वजनों की चीखों में कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो खोजते रहे हम और हमारे कामरेड अबाध पूंजी प्रवाह में बहते रहे। पूंजीवादी विकास के स्वर्णिम राजपथ पर उनकी अंध दौड़ वह भयानक लहूलुहान करती रही हमें और हम पिता की चेतावनी को याद करते रहे कि विचारधारा और क्रांति बेदखल हो गयी। अस्पृश्यता और नस्ली भेदभाव के अरण्य में हम तो बाघों का चारा बनने के लिए ही नियतिबद्ध।सिलसिला लेकिन खत्म नहीं हुआ। मरीचझांपी का हादसा बार बार दोहराया जाता और न कहीं किसी थाने में दर्ज होती रपट या फिर खानापूरी के लिए ही सही, कहीं कभी, यहां तक कि परिवर्तन राज में भी गठित नहीं होता कोई तदंत कमीशन। क्योंकि हत्यारों की जाति एक है और उनका धर्म भी एक। उनकी ही ग्लोबल सरकार। सर्वक्षेत्रे उन्हींका वर्चस्व।सिर्फ हम जो वध्य हैं, जो चुने गये हैं आखेट के लिए, हमारे साथ नत्थी है जाति पहचान और धर्मोन्माद की पैदल सेना भी तो हमीं ही।हमीं ही, हमीं ही तो अश्वमेधी नरसंहार में अपने स्वजनों के नरमेध उत्सव में शामिल अनंतकाल से!


अधिकारों के लिए रचनात्मक सामाजिक आंदोलनों में तेजी आई है। जैसे कि काम का अधिकार, वन अधिकार, विस्थापित न किए जाने का अधिकार, भोजन का अधिकार तथा शिक्षा का अधिकार।हमारे लिए अप्रासंगिक है सारे अधिकार और हम आदिवासी हैं सही मायने में जो हड़प्पा और मोहंजोदोड़ो के समय से लगातार लगातार एकाधिकारवादी युद्ध के शिकार। वर्चस्व के लिए मुख्यधारा से बहिस्कृत और हमारे लिए ही  हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक अनंत सुनामी का यह आयोजन और अपनी अपनी घाटियों में अपने अपने डूब में, रेडियो एक्टिव विकिरण में या फिर भोपाल की जहरीली औद्योगिक गैसप्रवाह में कर्मकांड साधते अंध श्रद्धा बलिबेदी पर जलप्रलय को प्रतीक्षारत अनंतकाल से। कोई विचारधारा, कोई लोकतंत्र या फिर कोई नागरिक मानवाधिकार हमारे लिए रक्षा कवच नहीं और बार बार मरचझांपी घटित होता रहता सुकमा के जंगल की तस्वीरें जारी होतीं फिर किसी आयोजन के लिए। हमारी बेटियां तो इरोम है, या सोनी सोरी या फिर मुठभेड़ में मारी जाती इशरत जहां, जिसकी पहचान बताता अमेरिका और हम खुश!


वे मनरेगा देकर हमें खुश कर देते हमारी बेदखली को अंजाम देने के बाद। हमारी कृषि की तबाही, हमारी आजीविका की हत्य के बाद वे हमारी खाद्य सुरक्षा के लिए संसदीय बहस करते वर्षों तक।भूमि सुधार के नारे लगाते और वनाधिकार करते हमारे हवाले। घोषणा कर देते हमारे लिए राष्ट्रव्यापी सर्व शिक्षा। इतने पारदर्शी कि कारपोरेट चंदे से चलती राजनीति अराजनीति दोनों और सूचना खा अधिकार थमाकर जारी रखते कारपोरेट राज फिर एक तिहाई खाद्य सुरक्षा जारी करके नत्थी कर देते हमें हमारी उंगलियों की छाप की तरह।हम विदेशी भी और अपराधी भी। हम माओवादी, हम आतंकवादी और हम राष्ट्रविरोधी भी। सैनिक नाकेबंदी  में कैद हमारा वजूद।म हमारे विरुद्ध राष्ट्रीय युद्धघोषणा और प्रतिरक्षा और आंतरिक सुरक्षा का चाकचौबंद इंतजाम। जेड प्लस सुरक्षा एकतरफ और निहत्था निनानब्वे फीसद। मरीचझांपी का नरसंहार एक द्वीप है खारापानी बीच।जहां लोकगणराज्य का निषेध है। न्याय और समता, समाज, राजनीति और अर्थव्वस्था से बाहर हैं हम और कामरेड कहीं नहीं।कामरेड कहीं नहीं!


जैसा कि डा. आम्बेडकर ने कहा कि जब हमने अपना संविधान बनाया तब हमने सबसे अधिक परस्पर विरोधी स्थिति पैदा की मसलन कानून के सामने सभी नागरिकों को समानता दी जबकि समाज में जन्म के आधार पर वर्गों और श्रेणियों में बंटे होने की परम्परा कायम थी। यह दोहरापन सभी समुदायों के बीच समानता की समानांतर समस्या में भी उतना ही स्पष्ट था, जो अब भी खतरा बना हुआ है। इस संदर्भ में यह एक उपलब्धि ही है कि भारत में पिछले 60 वर्षों से लोकतंत्र कायम है।



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