आहार-गरीबी से मुक्ति देगा खाद्य सुरक्षा कानून?
भूख और कुपोषण इस दुनिया की सबसे बड़ी बीमारी है, जो प्रकृति के कोप के कारण नहीं, बल्कि सरकारों की उन नीतियों से पैदा होती है, जो गरीबों की
जरूरतों की उपेक्षा कर अमीरों की तिजोरियों को भरने के लिए बनायी जाती हैं। यही कारण है कि पूरी दुनिया में कृषि से कई गुना ज्यादा हथियारों व सेनाओं पर खर्च होता है और सरकारी गोदाम अनाज से लबालब भरे रहने के बावजूद एक अरब लोग रात को भूखे ही सो जाते हैं। आजादी से पहले बंगाल में पड़े महाअकालों में यही नजारा था। तब अंग्रेज यहां राज कर रहे थे। लेकिन आजादी के बाद के परिदृश्य में भी कोई ज्यादा अंतर नहीं आया है, क्योंकि अब 'काले अंग्रेज' यहां राज कर रहे हैं। नीतियां वहीं हैं, चेहरे बदल गये हैं।
बदतर आहार-गरीबी
मानव विकास संकेतकों के पैमाने पर भारत की स्थिति अपने पड़ोसी देशों से भी बदतर है। 78 देशों की सूची में विश्व भूख सूचकांक में भारत का स्थान 65वां है। इस भूख का सीधा सम्बन्ध कुपोषण से है और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के आंकलन के अनुसार, दुनिया के कुल कुपोषितों का 40 प्रतिशत से अधिक भारत में ही है। वास्तव में तो देश की 85 प्रतिशत आबादी आाहार-गरीब है, जिसे 2100 कैलोरी (शहरी) तथा 2200 कैलोरी (ग्रामीण) प्रतिदिन ऊर्जा-उपभोग नसीब नहीं है। आहार-गरीबी का यह सरकारी पैमाना नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन(2320 कैलोरी) तथा राष्ट्रीय नमूना सर्वे संगठन (2700 कैलोरी) द्वारा तय मानकों से भी बहुत नीचे है। लेकिन वास्तव में तो वर्ष 2009-10 में राष्ट्रीय स्तर पर कैलोरी उपभोग का औसत मात्र 1975 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन ही था, जो भूख और कुपोषण की गंभीर स्थिति को बताता है।
भूख और कुपोषण का सीधा प्रभाव देश के बच्चों तथा माताओं पर पड़ता है, जिनकी आधी से ज्यादा आबादीरक्तअल्पता की शिकार हैं। हमारे देश में बच्चे को जन्म देते हुये हर दस मिनट एक माता की मौत हो रही है। जो 1000 जीवित प्रसव होते हैं, उनमें से 47 बच्चे अपना पांचवा जन्मदिन नहीं मना पाते।
ये सभी कुपोषण जनित बीमारियों से ग्रसित होते हैं। यूनीसेफ की वर्ष 2009 की रिपोर्ट के अनुसार हर वर्ष पांच वर्ष से कम आयु वर्ग के 15.41 लाख बच्चे अकाल मौत का शिकार हो रहे हैं। भूख और कुपोषण के अलावा स्वास्थ्य सेवाओं की दयनीय हालत का भी इसमें विशेष योगदान होता है। उच्च बाल मृत्युदर में भारत का स्थान 49वा है, जबकि नेपाल और बांग्लादेश क्रमशः 57वें और 60वें स्थान पर हैं।
इस दयनीय स्थिति का सीधा सम्बन्ध लोगों की आय से है और सरकारी रिपोर्टो के ही अनुसार हमारे देश की 78 प्रतिशत आबादी की क्रयशक्ति 20 रुपये से अधिक नहीं है। योजना आयोग ने ग्रामीण भारत के लिये 26 रुपये तथा शहरी भारत के लिये 32 रुपये प्रतिदिन की आय को गरीबी रेखा का पैमाना तय किया है। इस प्रकार यह आबादी अति दरिद्र की श्रेणी में ही आती है, जिसके पास भोजन सहित जिंदा रहने के साधन नहीं के बराबर हैं। गरीबी निर्धारण के
मामले में सरकार एन.सी.सक्सेना कमेटी द्वारा सुझाये गये सामाजिक-आर्थिक मानदंडों को मानने के लिये भी तैयार नहीं है, जो योजना आयोग के मापदंडों से कहीं बहुत ज्यादा व्यवहारिक है।
उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों ने इस तबके की आजीविका के साधनों को छीना है, उनके लिये रोजगार के अवसर और संकुचित हुये हैं। अर्थव्यवस्था पर राज्य का नियंत्रण कमजोर होने से बाजारवाद हावी हुआ है, जिससे बड़ी तेजी से महंगाई बढ़ी है। फलतः उनकी आय में गिरावट आयी है। इसका सीधा असर उनकी भोजन आवश्यकताओं की पूर्ति पर पड़ रहा है। कई सर्वे स्पष्ट बताते हैं कि पोषण आहार की पूर्ति के मामले में मध्यम वर्ग और उसके नीचे के
लोगों को धनी वर्ग की तुलना में उनकी आमदनी के अनुपात में कहीं ज्यादा खर्च करना पड़ता है।
कुछ तुलनायें देखें। वर्ष 2010-11 में मध्यप्रदेश में प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 27250 रुपये थी, जबकि खाने पर प्रति व्यक्ति वार्षिक खर्च 8328 रुपये (30.56 प्रतिशत) था। वहीं छत्तीसगढ़ में 44097 रुपये वार्षिक
आय पर खाने पर प्रति व्यक्ति वार्षिक खर्च 8640 रुपये (19.59 प्रतिशत) था। लेकिन येऔसत आंकड़े हैं। वर्ष 2009-10 के राष्ट्रीय नमूना सर्वे संगठन के 66वें चक्र के आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण भारत में 57 प्रतिशत, तो शहरी भारत में 44 प्रतिशत आय भोजन पर ही लोग खर्च करते हैं।
गांव के सबसे गरीब (जो शहरी गरीबों की अपेक्षा ज्यादा दरिद्र होते हैं) लोग तो 65 प्रतिशत तथा शहरों के सबसे अमीर (जो ग्रामीण अमीरों की तुलना में ज्यादा धनी होते हैं) लोग अपनी 31 प्रतिशत राशि भोजन पर खर्च करते हैं। इस प्रकार भारत में सबसे अमीर समूह की तुलना में सबसे गरीब समूह को अनुपातिक रुप से भोजन पर दुगना खर्च करना पड़ता है। महंगाई बढ़ने के (और खाद्यान्नों व पोषण-आहार में यह दर औसत महंगाई से कहीं ज्यादा ऊंची होती है) कारण भोजन पर अनुपातिक व्यय मध्यम व निम्न आय वर्ग के लिये बढ़ता जाता है।
इस प्रकार हमारे देश की 80-85 प्रतिशत जनता पेट भरने के संकट से ही जूझ रही है। यदि वह अपनी न्यूनतम पोषण आवश्यकताओं को पूरा करने की कोशिश करती है, तो अन्य बुनियादी मानवीय जरूरतों से वंचित होती है (और जिसके बिना वह एक इंसान की जिंदगी नहीं जी सकता) और यदि वह कपड़ा, मकान व अन्य जरूरतों को पूरा करने की कोशिश करती है, तो उसे अपनी स्वस्थता से हाथ धोना पड़ता है। यह एक ऐसा दुष्चक्र है, जिसका सीधा जवाब उसकी पोषण आवश्यकताओं की पूर्ति तथा आय में वृद्धि के उपायों से ही दिया जा सकता है।
पीडीएस को अलविदा
सार्वजनिक वितरण प्रणाली की भूमिका यहीं पर सामने आती है। औपनिवेशिक नीतियों के दुष्प्रभाव को हमने झेला था। आम जनता के लिये खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये हमने इस प्रणाली की शुरूआत की थी। इसके लिये खाद्य भंडारण जरूरी था और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों की फसल खरीदी की नीति अपनायी गयी। इसने कृषि को अग्रगति दी। इन दोनों नीतियों के योग से आम उपभोक्ताओं तथा किसानों के लिये बाजार, महंगाई, अकाल और काला बाजारी के खिलाफ सुरक्षा कवच तैयार किया गया। खाद्यान्न के मामले में हम न केवल आत्मनिर्भर बने, बल्कि खाद्यान्न आयातक देश से खाद्यान्न निर्यातक देश में तब्दील हुये। 'हरित क्रांति' ने भी इसमें योगदान दिया। इस दौर में खाद्य सुरक्षा का मुद्दा कभी इतने तीखे रुप में सामने नहीं आया, जैसा कि आज आ रहा है।
लेकिन 1990 के बाद से सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुनियोजित ढंग से लगातार कमजोर किया गया क्योंकि वैश्वीकरण की जरूरत आम जनता को बाजार में धकेलने की थी। 'लक्षित वर्गों के लिए लक्ष्यबद्ध वितरण प्रणाली' का नारा दिया गया और 'गरीबी रेखा' की आड़ में अधिकांश गरीबों व मध्यवर्गीय लोगों को यथार्थतः सस्ते राशन से वंचित किया गया और सारतः उन्हें बाजार के रहमो-करम पर छोड़ दिया गया। दो दशक बाद आज पोषण संकट इतना गंभीर हो गया है कि फिर से खाद्य सुरक्षा की बात करना शासक वर्ग की मजबूरी हो गया है।
नई बोतल में पुरानी शराब
इसी मजबूरी का नतीजा है कि आजकांग्रेसनीत संप्रग सरकार खाद्य सुरक्षा कानून को अमलीजामा पहनाने के लिये उतावली है। उसे लगता है कि यह कानून उसे 'चुनावी वैतरणी' पार करने में भी मदद करेगा। आखिर छत्तीसगढ़ में पिछले चुनाव में ऐसी पहलकदमी ने ही भाजपा की नैया को किनारे लगाया था! लेकिन देश की बहुमत जनता और उसका प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां प्रस्तावित केन्द्रीय कानून से सहमत नहीं हैं, क्योंकि-
1. यह देश की केवल दो तिहाई जनता को ही अपने दायरे में समेटता है, जबकि देश की 85 प्रतिशत जनता आहार-गरीबी और आय-दरिद्रता के स्तर से जूझ रही है। इस पूरे तबके को दायरे में लिये बिना भूख और कुपोषण से लड़ना संभव नहीं है। इसीलिए जरूरत सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सार्वभौमिक बनाने की है, ताकि सभी जरूरतमंदों की राशन प्रणाली तक सीधी पहुंच बने।
2. पोषण मानकों के अनुसार पांच व्यक्तियों के परिवार के लिये लगभग 70-80 किलो प्रतिमाह अनाज की जरूरत पड़ती है, जबकि इस समय प्रति परिवार मात्र 35 किलो अनाज देने का कानूनी प्रावधान है। प्रस्तावित कानून इसमें भी कटौती करते हुये प्रति व्यक्ति पांच किलो और प्रति परिवार अधिकतम 25 किलो अनाज देने का प्रस्ताव करता है। अतः आम जनता और ज्यादा बाजार पर निर्भर हो जायेगी। उसके भोजन व्यय अनुपात में वृद्धि होगी और इससे खाद्य असुरक्षा बढ़ेगी।
3. अभी लक्षित वर्गों को देश के विभिन्न राज्य सरकारें 1 या 2 रुपये किलो की दर से अनाज उपलब्ध कराती हैं। प्रस्तावित कानून में एक बड़े तबके को 3 रुपये किलो की दर से देने का प्रावधान है। खाद्यान्न कीमतों में बढ़ोतरी से आम जनता के पोषण स्तर में और ज्यादा गिरावट आयेगी।
4. अभी अनाज उपलब्ध करवाना सरकार की जिम्मेदारी है। ऐसा न होने पर प्रस्तावित कानून नगद सब्सिडी देने की बात करता है। भारतीय परिस्थितियों
में ऐसा प्रस्ताव सरासर बेतुका है, क्योंकि नगद सब्सिडी बाजार के झटकों से गरीब उपभोक्ताओं की रक्षा करने में असमर्थ रहेगी।
स्पष्ट है कि प्रस्तावित कानून समूची जनता को खाद्य सुरक्षा देने से इंकार तो करता ही है, लक्षित समुदाय के लिये भी यह कानून अनाज की मात्रा में कटौती तथा कीमतों में बढ़ोतरी करके वर्तमान में उसे मिल रही 'राहत' को भी छीनने का काम करेगा तथा उन्हें फिर से नगद सब्सिडी की आड़ में बाजार में धकेलने की कोशिश करेगा। तो नये कलेवर में फिर वही पुरानी शराब परोसी जा रही है। वैसे भी वर्तमान में जो वितरण प्रणाली चल रही है, उसके अधीन संख्यात्मक रुप से देश की आधी आबादी तो आती ही है, भले ही इसका लाभ सबको बराबर न मिल रहा हो।
कृषि पर नकारात्मक प्रभाव
देश के आम नागरिकों से खाद्यान्न सुरक्षा छीनने का सीधा असर कृषि के क्षेत्र पर पड़ेगा। कृषि के क्षेत्र में वृद्धि इस बात पर निर्भर करती है कि उसके कच्चे माल (उपादानों) के लिए कितनी सब्सिडी दी जा रही है और फसल पकने पर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद की व्यवस्था कैसी है। और सभी जानते हैं कि हमारे देश में कृषि और किसान दोनों सबसे ज्यादा
संकटग्रस्त हैं। कृषि क्षेत्र में सब्सिडी घट रही है, इसलिए फसलों का लागत मूल्य बढ़ रहा है, लेकिन सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य इसकी भरपाई करने में असमर्थ है, उसका लाभकारी मूल्य होना तो दूर की बात है। यही कारण है कि कृषि उत्पादन का क्षेत्र एक जबरदस्त ठहराव से जकड़ गया है और हमारे देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता तेजी से घट
रही है। वर्ष 1990-91वें में खाद्यान्न उपलब्धता 186 किलोग्राम थी, जो आज घटकर केवल 160 किलोग्राम रह गयी है। हमारे जैसे गरीब देश में खाद्यान्न उपलब्धता में गिरावट का सीधा अर्थ है- प्रति व्यक्ति कैलोरी उपभोग में गिरावट आना। वर्ष 1972-73 की तुलना में 2009-10 में राष्ट्रीय स्तर पर कैलोरी उपभोग में शहरी लोगों के लिये 7.64 प्रतिशत तथा ग्रामीण लोगों के
लिये 10.62 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी है। बाद के तीन सालों में स्थिति में और गिरावट ही आयी होगी।
नगद सब्सिडी के प्रावधान के कारण प्रस्तावित केन्द्रीय कानून सरकार द्वारा आम जनता को खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी से ही बरी करता है। इसका सीधा सा अर्थ है- न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल खरीदी को धीरे-धीरे बंद करना तथा इस प्रकार बाजार में पहुंच रहे उपभोक्ताओं के लिये आयातित अनाज का बाजार बनाना। इससे भारतीय किसान तो बर्बाद होंगे, लेकिन अनाज व्यापार के मगरमच्छ मालामाल होंगे।
तो एक ओर उत्पादन में गतिरोध तथा खाद्यान्न उपलब्धता में कमी, दूसरी ओर खाद्यान्न निर्यात तथा अनाज भंडार में वृद्धि- यही आज की सच्चाई है। इस
वर्ष 2 करोड़ टन अनाज का निर्यात का अनुमान है और इसके लिए व्यापारियों को भारी प्रोत्साहन (सब्सिडी) दिया जायेगा। सरकारी गोदामों में लगभग 7
करोड़ टन अनाज सड़ रहा है (खाद्यान्न सब्सिडी का बड़ा हिस्सा अनाज भंडारण में ही खर्च हो जाता है)। पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने इस अनाज को गरीबों
के बीच मुफ्त बांटने का सुझाव दिया था, ताकि भुखमरी व कुपोषण की समस्या पर काबू पाया जा सके, लेकिन संप्रग सरकार ने इसे मानने से इंकार कर दिया था। वास्तव में बफर स्टाक से ज्यादा मात्रा में अनाज का यह भंडारण मांग में कमी को ही दिखाता हैं, जो कि आम जनता की क्रयशक्ति में गिरावट के कारण हो रही है। स्पष्ट है कि खाद्य असुरक्षा का सीधा सम्बन्ध कृषि व किसानों के संकट से भी जुड़ता है, क्योंकि गांव में यही किसान खाद्य उपभोक्ता भी है।
इस प्रकार भुखमरी व कुपोषण से लड़ने के नाम पर 'सबके लिये खाद्यान्न' का ढोल पीटते हुये जिस खाद्य सुरक्षा कानून को लाने की कोशिश की जा रही है, वह वास्तव में खाद्य असुरक्षा को बढ़ाने वाला तथा भारतीय कृषि को बर्बाद करने वाला ही साबित होने जा रहा है। वास्तव में वैश्वीकरण के पैरोकारों की जरूरत भी यही है कि आम जनता को बड़े पैमाने पर बाजार में धकेला जाये, उन्हें विदेशी पूंजी का गुलाम बनाया जाये तथा उनकी लूट पर अपने मुनाफे के महल खड़े किये जायें। दिखावे की 'चुनावी तलवारबाजी' से अलग, कांग्रेस-भाजपा दोनों इन्हीं नीतियों की पैरोकारी कर रही हैं। लेकिन ऐसी सत्यानाशी कोशिशों का विरोध स्वाभाविक है। आम जनता तथा किसानों के लिये
उत्तरदायी सभी ताकतों को ऐसे विरोध को लामबंद करके जनआंदोलन की शक्ल देनी चाहिये।
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