BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Monday, April 15, 2013

क्‍या आप जानते हैं, ब्राह्मण शाकाहारी क्यों बने? ♦ डॉ बी आर अंबेडकर

क्‍या आप जानते हैं, ब्राह्मण शाकाहारी क्यों बने?

♦ डॉ बी आर अंबेडकर

क समय था, जब ब्राह्मण सब से अधिक गोमांसाहारी थे। कर्मकांड के उस युग में शायद ही कोई दिन ऐसा होता हो, जब किसी यज्ञ के निमित्त गो वध न होता हो, और जिसमें कोई अब्राह्मण किसी ब्राह्मण को न बुलाता हो। ब्राह्मण के लिए हर दिन गोमांसाहार का दिन था। अपनी गोमांसा लालसा को छिपाने के लिए उसे गूढ़ बनाने का प्रयत्‍न किया जाता था। इस रहस्यमय ठाठ-बाट की कुछ जानकारी ऐतरेय ब्राह्मण में देखी जा सकती है। इस प्रकार के यज्ञ में भाग लेने वाले पुरोहितों की संख्या कुल सत्रह होती, और वे स्वाभाविक तौर पर मृत पशु की पूरी की पूरी लाश अपने लिए ही ले लेना चाहते। तो यजमान के घर के सभी सदस्यों से अपेक्षित होता कि वे यज्ञ की एक विधि के अंतर्गत पशु के मांस पर से अपना अधिकार छोड़ दें।

ऐतरेय ब्राह्मण में जो कुछ कहा गया है, उस से दो बातें असंदिग्ध तौर पर स्पष्ट होती हैं। एक तो यह कि बलि के पशु का सारा मांस ब्राह्मण ही ले लेते थे। और दूसरी यह कि पशुओं का वध करने के लिए ब्राह्मण स्वयं कसाई का काम करते थे।

तब फिर इस प्रकार के कसाई, गोमांसाहारियों ने पैंतरा क्यों बदला?

पहले बताया जा चुका है कि अशोक ने कभी गोहत्या के खिलाफ कोई कानून नहीं बनाया। और यदि बनाया भी होता तो ब्राह्मण समुदाय एक बौद्ध सम्राट के कानून को क्यों मानते? तो क्या मनु ने गोहत्या का निषेध किया था? तो क्या मनु ने कोई कानून बनाया? मनुस्मृति के अध्याय 5 में खान पान के विषय में श्लोक मिलते हैं…

"बिना जीव को कष्ट पहुंचाये मांस प्राप्त नहीं किया जा सकता और प्राणियों के वध करने से स्वर्ग नहीं मिलता, तो मनुष्य को चाहिए कि मांसाहार छोड़ दे।" (5.48)

Gau Devata

तो क्या इसी को मांसाहार के विरुद्ध निषेधाज्ञा माना जाए? मुझे ऐसा मानने में परेशानी है और मैं समझता हूं कि ये श्लोक ब्राह्मणों के शाकाहारी बन जाने के बाद में जोड़े गये अंश हैं। क्योंकि मनुस्मृति के उसी अध्याय 5 के इस श्लोक के पहले करीब बीस पच्चीस श्लोक में विवरण है कि मांसाहार कैसे किया जाए, उदाहरण स्वरूप…

♣ प्रजापति ने इस जगत को इस प्राण के अन्न रूप में बनाया है, सभी चराचर (जड़ व जीव) इस प्राण का भोजन हैं। (5.28)

♣ मांस खाने, मद्यपान तथा मैथुन में कोई दोष नहीं। यह प्राणियों का स्वभाव है, पर उस से परहेज में महाफल है। (5.56)

♣ ब्राह्मणों द्वारा मंत्रों से पवित्र किया हुआ मांस खाना चाहिए और प्राणों का संकत होने पर अवश्य खाना चाहिए। (5.27)

♣ ब्रह्मा ने पशुओं को यज्ञों में बलि के लिए रचा है इसलिए यज्ञों में पशु वध को वध नहीं कहा जाता। (5.39)

♣ एक बार तय हो जाने पर जो मनुष्य (श्राद्ध आदि अवसर पर) मांसाहार नहीं करता, वह इक्कीस जन्‍मों तक पशु योनि में जाता है। (5.35)

स्पष्ट है कि मनु ने मांसाहार का निषेध नहीं किया और गोहत्या का भी कहीं निषेध नहीं किया। मनु के विधान में पाप कर्म दो प्रकार के हैं…

1) महापातक : ब्रह्म हत्या, मद्यपान, चोरी, गुरुपत्नीगमन ये चार अपराध महापातक हैं।

और

2) उपपातक : परस्त्रीगमन, स्वयं को बेचना, गुरु, मां, बाप की उपेक्षा, पवित्र अग्नि का त्याग, पुत्र के पोषण से इंकार, दूषित मनुष्य से यज्ञ कराना और गोवध।

स्पष्ट है कि मनु की दृष्टि में गोवध मामूली अपराध था। और तभी निंदनीय था, जब गोवध बिना उचित और पर्याप्त कारण के हो। याज्ञवल्क्य ने भी ऐसा ही कहा है।

तो फिर आज के जैसी स्थिति कैसे पैदा हुई? कुछ लोग कहेंगे कि ये गो पूजा उसी अद्वैत दर्शन का परिणाम है, जिसकी शिक्षा है कि समस्त विश्व में ब्रह्म व्याप्त है। मगर यह संतोषजनक नहीं है। जो वेदांतसूत्र ब्रह्म के एकत्व की बात करते हैं, वे यज्ञ के लिए पशु हत्या को वर्जित नहीं करते (2.1.28)। और अगर ऐसा है भी, तो यह आचरण सिर्फ गो तक सीमित क्यों? सभी पशुओं पर क्यों नहीं लागू होता?

मेरे विचार से ये ब्राह्मणों के चातुर्य का एक अंग है कि वे गोमांसाहारी न रहकर गो पूजक बन गये। इस रहस्य का मूल बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष में छिपा है। उन के बीच तू डाल डाल, मैं पात पात की होड़ भारतीय इतिहास की निर्णायक घटना है। दुर्भाग्य से इतिहासकारों ने इसे ज्यादा महत्व नहीं दिया है। वे आम तौर पर इस तथ्य से अपरिचित होते हैं कि लगभग 400 साल तक बौद्ध और ब्राह्मण एक दूसरे से बाजी मार ले जाने के लिए संघर्ष करते रहे।

एक समय था, जब अधिकांश भारतवासी बौद्ध थे। और बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणवाद पर ऐसे आक्रमण किये, जो पहले किसी ने नहीं किये। बौद्ध धर्म के विस्तार के कारण ब्राह्मणों का प्रभुत्व न दरबार में रहा, न जनता में। वे इस पराजय से पीड़ित थे और अपनी प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करने के प्रयत्नशील थे।

इसका एक ही उपाय था कि वे बौद्धों के जीवनदर्शन को अपनाएं और उनसे भी चार कदम आगे बढ़ जाएं। बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद बौद्धों ने बुद्ध की मूर्तियां और स्तूप बनाने शुरू किये। ब्राह्मणों ने उनका अनुकरण किया। उन्‍होंने शिव, विष्णु, राम, कृष्ण आदि की मूर्तियां स्थापित करके उनके मंदिर बनाये। मकसद इतना ही था कि बुद्ध मूर्ति पूजा से प्रभावित जनता को अपनी ओर आकर्षित करें। जिन मंदिरों और मूर्तियों का हिंदू धर्म में कोई स्थान न था, उनके लिए स्थान बना।

गोवध के बारे में बौद्धों की आपत्ति का जनता पर प्रभाव पड़ने के दो कारण थे। एक तो वे लोग कृषि प्रधान थे और दूसरे गो बहुत उपयोगी थे। और उसी वजह से ब्राह्मण गोघातक समझे जाने के चलते घृणा के पात्र बन गये थे।

गोमांसाहार छोड़ कर ब्राह्मणों का उद्देश्य बौद्ध भिक्षुओं से उनकी श्रेष्ठता छीन लेना ही था। और बिना शाकाहारी बने वह पुनः उस स्थान को प्राप्त नहीं पर सकता था, जो बौद्धों के आने के बाद उसके पैर के नीचे से खिसक गया था। इसीलिए ब्राह्मण बौद्ध भिक्षुओं से भी एक कदम आगे जा कर शाकाहारी बन गये। यह एक कुटिल चाल थी, क्योंकि बौद्ध शाकाहारी नहीं थे। हो सकता है कि ये जानकर कुछ लोग आश्चर्य करें, पर यह सच है। बौद्ध त्रिकोटी परिशुद्ध मांस खा सकते थे। यानी ऐसे पशु को, जिसे उनके लिए मारा गया ऐसा देखा न हो, सुना न हो और न ही कोई अन्य संदेह हो। इसके अलावा वे दो अन्य प्रकार का मांस और खा सकते थे – ऐसे पशु का, जिसकी स्वाभाविक मृत्यु हुई हो या जिसे किसी अन्य वन्य पशु पक्षी ने मार दिया हो।

तो इस प्रकार के शुद्ध किये हुए मांस खाने वाले बौद्धों से मुकाबले के लिए मांसाहारी ब्राह्मणों को मांस छोड़ने की क्या आवश्यकता थी? थी, क्योंकि वे जनता की दृष्टि में बौद्धों के साथ एक समान तल पर खड़े नहीं होना चाहते थे। यह अति को प्रचंड से पराजित करने की नीति है। यह वह युद्ध नीति है, जिसका उपयोग वामपंथियों को हटाने के लिए सभी दक्षिणपंथी करते हैं।

एक और प्रमाण है कि उन्‍होंने ऐसा बौद्धों को परास्त करने के लिए ही किया। यह वह स्थिति बनी, जब गोवध महापातक बन गया। भंडारकर जी लिखते हैं कि, "हमारे पास एक ताम्र पत्र है जो कि गुप्त राजवंश के स्कंदगुप्त के राज्यकाल का है। यह एक दान पात्र है जिसके अंतिम श्लोक में लिखा है : जो भी इस प्रदत्तदान में हस्तक्षेप करेगा वह गो हत्या, गुरुहत्या या ब्राह्मण हत्या जैसे पाप का भागी होगा।" हमने ऊपर देखा है कि मनु ने गोवध को उपपातक माना है। मगर स्‍कंद गुप्त के काल (412 ईस्‍वी) तक आते-आते महापातक बन गया।

हमारा विश्लेषण है कि बौद्ध भिक्षुओं पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए ब्राह्मणों के लिए यह अनिवार्य हो गया था कि वे वैदिक धर्म के एक अंश से अपना पीछा छुड़ा लें। यह एक साधन था, जिसे ब्राह्मणों ने अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा को पाने के लिए उपयोग किया।

सौजन्‍य : सुभाष चंद्र

http://mohallalive.com/2013/04/15/dr-br-ambedkar-on-brahman-and-vegetarianism/

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