From: reyaz-ul-haque <beingred@gmail.com>
Date: 2010/8/22
Subject: विभूति-कालिया: एक पितृसत्तात्मक पटकथा
To: kanilabc@gmail.com
विभूति-कालिया: एक पितृसत्तात्मक पटकथा
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Nothing is stable, except instability
Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ]
बीच सफ़हे की लड़ाई
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विभूति-कालिया: एक पितृसत्तात्मक पटकथा
Posted by Reyaz-ul-haque on 8/22/2010 08:58:00 PM
बीच सफ़हे की लड़ाई
गरीब वह है, जो हमेशा से संघर्ष करता आ रहा है. जिन्हें आतंकवादी कहा जा रहा है. संघर्ष के अंत में ऐसी स्थिति बन गई कि किसी को हथियार उठाना पड़ा. लेकिन हमने पूरी स्थिति को नजरअंदाज करते हुए इस स्थिति को उलझा दिया और सीधे आतंकवाद का मुद्दा सामने खड़ा कर दिया. ये जो पूरी प्रक्रिया है, उन्हें हाशिये पर डाल देने की, उसे भूल गये और सीधा आतंकवाद, 'वो बनाम हम ' की प्रक्रिया को सामने खड़ा कर दिया गया. ये जो पूरी प्रक्रिया है, उसे हमें समझना होगा. इस देश में जो आंदोलन थे, जो अहिंसक आंदोलन थे, उनकी क्या हालत हमने बना कर रखी है ? हमने ऐसे आंदोलन को मजाक बना कर रख दिया है. इसीलिए तो लोगों ने हथियार उठाया है न?अरुंधति राय से आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत.
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हम महसूस करते हैं कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक विध्वंसक कदम होगा, यदि सरकार ने अपने लोगों को, बजाय उनके शिकायतों को निबटाने के उनका सैन्य रूप से दमन करने की कोशिश की. ऐसे किसी अभियान की अल्पकालिक सफलता तक पर संदेह है, लेकिन आम जनता की भयानक दुर्गति में कोई संदेह नहीं है, जैसा कि दुनिया में अनगिनत विद्रोह आंदोलनों के मामलों में देखा गया है. हमारा भारत सरकार से कहना है कि वह तत्काल सशस्त्र बलों को वापस बुलाये और ऐसे किसी भी सैन्य हमले की योजनाओं को रोके, जो गृहयुद्ध में बदल जा सकते हैं और जो भारतीय आबादी के निर्धनतम और सर्वाधिक कमजोर हिस्से को व्यापक तौर पर क्रूर विपदा में धकेल देगा तथा उनके संसाधनों की कॉरपोरेशनों द्वारा लूट का रास्ता साफ कर देगा. इसलिए सभी जनवादी लोगों से हम आह्वान करते हैं कि वे हमारे साथ जुड़ें और इस अपील में शामिल हों.-अरुंधति रॉय, नोम चोम्स्की, आनंद पटवर्धन, मीरा नायर, सुमित सरकार, डीएन झा, सुभाष गाताडे, प्रशांत भूषण, गौतम नवलखा, हावर्ड जिन व अन्य
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शब्दों का हाशिया
अभी तोरणेन्द्रशब्द सहेजने की कला
अर्थ की चमक, ध्वनि का सौन्दर्य
पंक्तियों में उनकी सही समुचित जगह
अष्टावक्र व्याकरण की दुरूह साधना
शास्त्रीय भाषा बरतने का शऊर
इस जीवन में तो कठिन
जीवन ही ठीक से जान लूँ अबकी बार
जीवन जिनके सबसे खालिस, सबसे सच्चे, पाक-साफ, अनछुए
श्रमजल में पल-पल नहा कर निखरते
अभी तो,
उनकी ही जगह
इन पंक्तियों में तलाशने को व्यग्र हूँ
अभी तो,
हत्यारे की हंसी से झरते हरसिंगार
की मादकता से मताए मीडिया के
आठों पहर शोर से गूँजता दिगन्त
हमें सूई की नोंक भर अवकाश देना नहीं चाहता
अभी तो,
राजपथ की
एक-एक ईंच सौन्दर्य सहेजने
और बरतने की अद्भुत दमक से
चौंधियायी हुई हैं हमारी आँखें
अभी तो,
राजधानी के लाल सुर्ख होंठों के लरजने भर से
असंख्य जीवन, पंक्तियों से दूर छिटके जा रहे हैं
अभी तो,
जंगलों, पहाड़ों और खेतों को
एक आभासी कुरूक्षेत्र बनाने की तैयारी जोर पकड़ रही है
अभी तो,
राजपरिवारों और सुखयात क्षत्रिय कुलकों के नहीं
वही भूमिहीन, लघु-सीमान्त किसानों के बेटों को
अलग-अलग रंग की वर्दियाँ पहना कर
एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है
लहू जो बह रहा है
उससे बस चन्द जोड़े होंठ टहटह हो रहे हैं
अभी तो,
बस्तर की इन्द्रावती नदी पार कर गोदावरी की ओर बढ़ती
लम्बी सरल विरल काली रेखा है
जिसमें मुरिया, महारा, भैतरा, गड़बा, कोंड, गोंड
और महाश्वेता की हजारों-हजार द्रौपदी संताल हैं
अभी तो,
जीवन सहेजने का हाहाकार है
बूढ़े सास-ससुर और चिरई-चुनमुन शिशुओं पर
फटे आँचल की छाँह है
जिसका एक टुकड़ा पति की छेद हुई छाती में
फँस कर छूट गया है
अभी तो,
तीन दिन-तीन रात अनवरत चलने से
तुम्बे से सूज गए पैरों की चीत्कार है
परसों दोपहर को निगले गए
मड़ुए की रोटी की रिक्तता है
फटी गमछी और मैली धोती के टुकड़े
बूढ़ों की फटी बिवाइयों के बहते खून रोकने में असमर्थ हैं
निढ़ाल होती देह है
किन्तु पिछुआती बारूदी गंध
गोदावरी पार ठेले जा रही है
अभी तो,
कविता से क्या-क्या उम्मीदे लगाये बैठा हूँ
वह गेहूँ की मोटी पुष्ट रोटी क्यों नही हो सकती
लथपथ तलवों के लिए मलहम
सूजे पैरों के लिए गर्म सरसों का तेल
और संजीवनी बूटी
अभी तो,
चाहता हूँ कविता द्रौपदी संताल की
घायल छातियों में लहूका सोता बन कर उतरे
और दूध की धार भी
ताकि नन्हे शिशु तो हुलस सकें
लेकिन सौन्दर्य के साधक, कलावन्त, विलायतपलट
सहेजना और बरतना ज्यादा बेहतर जानते हैं
सुचिन्तित-सुव्यवस्थित है शास्त्रीयता की परम्परा
अबाध रही है इतिहास में उनकी आवाजाही
अभी तो,
हमारी मासूम कोशिश है
कुचैले शब्दों की ढ़ाल ले
इतिहास के आभिजात्य पन्नों में
बेधड़क दाखिल हो जाएँ
द्रौपदी संताल, सीके जानू, सत्यभामा शउरा
इरोम शर्मिला, दयामनी बारला और ... और ...
गोरे पन्ने थोड़े सँवला जाएँ
अभी तो,
शब्दों को
रक्तरंजित पदचिन्हों पर थरथराते पैर रख
उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँजो हाशिये पर है
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